GP:प्रवचनसार - गाथा 275 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव) शिष्यजन को शास्त्र के फल के साथ जोड़ते हुए शास्त्र समाप्त करते हैं :-
सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होने से साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ, जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तारसंक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक प्रभाव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस उपदेश को जानता है, वह वास्तवमें, भूतार्थस्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है, पूर्वकाल में कभी जिसका अनुभव नहीं किया, ऐसे भगवान आत्मा को प्राप्त करता है-जो कि (जो आत्मा) तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सकल पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत है ॥२७५॥
इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका में चरणानुयोगसूचक चूलिका नाम का तृतीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।