GP:प्रवचनसार - गाथा 59 - अर्थ
From जैनकोष
[स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंतं] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में विस्तृत [विमलं] विमल [तु] और [अवग्रहादिभि: रहितं] अवग्रहादि से रहित- [ज्ञानं] ऐसा ज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्तिक सुख है [इति भणित] ऐसा (सर्वज्ञ-देव ने) कहा है ॥५९॥