GP:प्रवचनसार - गाथा 75 - अर्थ
From जैनकोष
[पुन:] और, [उदीर्णतृष्णा: ते] जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव [तृष्णाभि: दुःखिता:] तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए, [आमरणं] मरणपर्यंत [विषय सौख्यानि इच्छन्ति] विषय-सुखों को चाहते हैं [च] और [दुःखसन्तसा:] दुःखों से संतप्त होते हुए (दुःख-दाह को सहन न करते हुए) [अनुभवंति] उन्हें भोगते हैं ॥७५॥