GP:प्रवचनसार - गाथा 75 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जिनके तृष्णा उदित है ऐसे देवपर्यन्त समस्त संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से, पुण्य-जनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दुखी होते हुए १मृगतृष्णा में से जल की भाँति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस २दुख-संताप के वेग को सहन न कर सकने से विषयों को तब-तक भोगते हैं, जब तक कि विनाश (मरण) को प्राप्त नहीं होते । जैसे जोंक (गोंच), तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय को प्राप्त दु:खांकुर से क्रमश: आक्रान्त होने से दूषित रक्त को चाहती है और उसी को भोगती हुई मरण-पर्यन्त क्लेश को पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवों की भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय-प्राप्त दु:खांकुरों के द्वारा क्रमश: आक्रांत होने से, विषयों को चाहते हुए और उन्ही को भोगते हुए विनाश-पर्यन्त (मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं ।
इससे पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही साधन है ॥७५॥
१जैसे मृगजल में से जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में से सुख प्राप्त नहीं होता
२दुःखसंताप = दुःखदाह; दुःख की जलन-पीड़ा