GP:प्रवचनसार - गाथा 80 - अर्थ
From जैनकोष
[यः] जो [अर्हन्तं] अरहन्त को [द्रव्यत्व-गुणत्वपर्ययत्वै:] द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने [जानाति] जानता है, [सः] वह [आत्मानं] (अपने) आत्मा को [जानाति] जानता है और [तस्य मोह:] उसका मोह [खलु] अवश्य [लयं याति] लय को प्राप्त होता है ॥८०॥