GP:प्रवचनसार - गाथा 84 - अर्थ
From जैनकोष
[मोहेन वा] मोहरूप [रागेण वा] रागरूप [द्वेषेण वा] अथवा द्वेषरूप [परिणतस्य जीवस्य] परिणमित जीव के [विविध: बंध:] विविध बंध [जायते] होता है; [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह-राग-द्वेष) [संक्षपयितव्या:] सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं ॥८४॥