अवपीड़क
From जैनकोष
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा संख्या ४७४-४७८
आलोचणागुणदोसे कोई सम्म पि पण्णविज्जंतो। तिव्वेहिं गारवादिहिं सम्मं णालोचए खवए ।।४७४।। णिद्धं महुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्जमेगंते। कोई त्तु पण्ण विज्जंतओ वि णालोचए सम्म ।।४७६।। तो उप्पीलेदव्वा खवयस्सोप्पीलए दोसा से वामेइ मंसमुदर मिव गदं सीहो जह सियालं ।।४७७।। उज्जसी तेजस्सी वच्चस्सी पहिदकित्तियायरिओ। पज्जेइ घदं माया तस्सेव हिदं विचिंतंती ।।४७९।।
= आलोचना करने से गुण और न करने से दोष की प्राप्ति होती है, यह बात अच्छी तरह से समझाने पर भी कोई क्षपक तीव्र अभिमान या लज्जा आदि के कारण अपने दोष कहने में उद्युक्त नहीं होता है ।।४७४।। स्निग्ध, कर्णमधुर व हृदय में प्रवेश करनेवाला ऐसा भाषण बोलने पर भी कोई क्षपक अपने दोषों की आलोचना नहीं करता ।।४७६।। तब अवपीडक गुणधारक आचार्य क्षपक के दोषों को जबरी से बाहर निकालते हैं, जैसे सिंह सियाल के पेट में भी चला गया मांस वमन करवाता है ।।४७७।। उत्पीलक या अवपीडक गुणधारक आचार्य ओजस्वी, बलवान् और तेजस्वी प्रतापवान् होते हैं; तथा सब मुनियों पर अपना रौब जमानेवाले होते हैं। वे वर्चस्वी अर्थात् प्रश्न का उत्तर देने में कुशल होते हैं, उनकी कीर्ति चारों दिशाओं में रहती है। वे सिंह समान अक्षोभ्य रहते हैं। वे किसी से नहीं डरते।