अविरति
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका 30/88/3
अभ्यन्यरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपरमसुखामृतरतिविलक्षणा बहिविषये पुनरव्रतरूपा चेत्यविरतिः।
= अंतरंग में निज परमात्म स्वरूप की भावना से उत्पन्न परम सुखामृत में जो प्रीति, उससे विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदि को धारण न करना, सो अविरति है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 88
निर्विकारस्वसंवित्तिविपरीताव्रतपरिणामविकारोऽविरतिः।
= निर्विकार स्वसंवेदन से विपरीत अव्रतरूप विकारी परिणाम का नाम अविरति है।
2. अविरति के भेद
बारसअणुवेक्खा 48
अविरमणं हिंसादी पंचविहो सो हवइ णियमेण।
= अविरति नियम से हिंसा आदि पांच प्रकार अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह रूप है।
( नयचक्रवृहद् गाथा 307); ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 30/88)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/375/12
अविरतिर्द्वादशविधाः षट्कायषट्करणविषभेदात्।
= छह काय के जीवों की दया न करने से और छह इंद्रियों के विषय भेद से अविरति बारह प्रकार की होती है।
(राजवार्तिक अध्याय 8/1/29/564/28); (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 37/89/3)
नोट :- और भी देखें असंयम
• कर्म बंध के प्रत्यय के रूप में अविरत - देखें बंध - 5.6।
• अविरति व कषाय में अंतर - देखें प्रत्यय1.6।
पुराणकोष से
कर्मास्रव के पाँच भेदों में दूसरा भेद । इसके बारह भेद है । (छ: इंद्रिय अविरतियाँ और छ: प्राणी अविरतियाँ) । इसके एक सौ आठ भेद भी होते हैं । महापुराण 47.310, वीरवर्द्धमान चरित्र 11.66