अस्तेय
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- भेद व लक्षण
- अस्तेय का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/15/352/12 अदत्तादानं स्तेयम् ॥15॥ सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/15/353/6 यत्र संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति बाह्यावस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च। = बिना दी हुई वस्तु का लेना स्तेय है ॥15॥ इस कथन का यह अभिप्राय है कि बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किंतु जहाँ संक्लेश रूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है, वहाँ स्तेय है। - अस्तेय अणुव्रत का लक्षण
रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक 57 निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं। न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्य्यादुपारमणं। = जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए परद्रव्य को नहीं हरता है, न दूसरों को देता है सो स्थूल चोरी से विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत है। ( वसुनंदि श्रावकाचार गाथा 211), (गुणभद्र श्रावकाचार 135)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/20/358/9 अन्यपीडाकरं पार्थिवभयादिवसादवश्यं परित्यक्तमपि यददत्तं ततः प्रतिनिवृत्तादरः श्रावक इति तृतीयमणुव्रतम् = श्रावक राजा के भय आदि के कारण दूसरे को पीड़ाकारी जान कर बिना दी हुई वस्तु को लेना यद्यपि छोड़ देता है तो भी बिना दी हुई वस्तु के लेने से उसकी प्रीति घट जाती है इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। (राजवार्तिक अध्याय 7/20/3/547/10)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 335-336 जो बहुमुल्लं वत्थुं अप्पयमुल्लेण णेव गिण्हेदि। वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ॥335॥ जो परदव्वं ण हरदि मायालोहेण कोहमाणेण। दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ ॥336॥ = जो बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य में नहीं लेता, दूसरे की भूली वस्तु को भी नहीं उठाता, थोड़े लाभ से ही संतुष्ट रहता है ॥335॥ तथा कपट लोभ माया व क्रोध से पराये द्रव्य का हरण नहीं करता वह शुद्धमति दृढ़निश्चयी श्रावक अचौर्याणु व्रती है ॥336॥
सागार धर्मामृत अधिकार 4/46 चौरव्यपदेशकरस्थूलस्तेयव्रतो सृतस्बंधनात्। परमुदकादेश्चाखिलभोग्यान्न हरेद्दददाति न परस्वं ॥46॥ = `चोरी' ऐसे नाम को करने वाली स्थूल चोरी का है व्रत जिसके - ऐसा पुरुष या श्रावक मृत्यु को प्राप्त हो चुके पुत्रादिक से रहित अपने कुटुंबी भाई वगैरह के धन से तथा संपूर्ण लोगों के द्वारा भोगने योग्य जल, घास आदि पदार्थों से भिन्न अर्थात् इनके अतिरिक्त दूसरे के धन को न तो स्वयं ग्रहण करे और न दूसरे के लिए देवे। - अस्तेय महाव्रत का लक्षण
नियमसार / मूल या टीका गाथा 58 गामे वा णयरे वा रण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं। जो मुंचदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥48॥ = ग्राम में, नगर में, या वन में परायी वस्तु को देख कर जो उसे ग्रहण करने के भाव को छोड़ता है उसको तीसरा (अचौर्य) महाव्रत है।
मूलाचार 7,291 गामादिसु पडिदाइं अप्पप्पहुदिं परणे संगहिदं। णादाणं परदव्वं अदत्तपरिवज्जणं तं तुं ॥7॥ गामे णगरे रण्णे थूलं सचित्तं बहुसपडिवक्खं। तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिच्चं ॥291॥ = ग्राम आदिक में पड़ा हुआ, भूला हुआ, रखा हुआ इत्यादि रूप से अल्प भी स्थूल सूक्ष्म वस्तु को दूसरे कर इकट्ठा किया हुआ ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना वह अदत्तत्याग अर्थात् अचौर्य महाव्रत है ॥7॥ ग्राम नगर वन आदि में स्थूल अथवा सूक्ष्म, सचित्त अथवा अचित्त, बहुत अथवा थोड़ा भी स्वर्णादि, धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि परिग्रह बिना दिया मिल जाये तो उसे मन वचन काय से सदा त्याग करना चाहिए। वह अचौर्य व्रत है ॥291॥
- अस्तेय का लक्षण
- अस्तेय निर्देश
- अस्तेय अणुव्रत के पाँच अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/27 स्तेनप्रयोग तदाहृतादान विरुद्धराज्यातिक्रम हीनाधिकमानोन्मान प्रतिरूपकव्यवहाराः ॥27॥ = 1. चोरी करने के उपाय बतलाना, 2. चोरी का माल लेना, 3. राज्य नियमों के विरुद्ध ब्लैक मार्केट करना या टैक्स चुंगी बचाना, 4. मापने व तोलने के गज बाट कमती बढ़ती रखना, 5. अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाना-ये पाँच अस्तेय के अतिचार हैं। ( रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 58) (अन्य भी श्रावकाचार)
सागार धर्मामृत अधिकार 4/50 में उद्धृत-यशस्तिकलचंपू-मानवन्न्यनताधिवये स्तेनकर्म ततो ग्रहः। विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेन्स्यैते निवर्तकाः। = जो वस्तु तोलने या माने योग्य है, उसे देते समय कम तोलकर, लेते समय अधिक तौलकर या अधिक मापकर लेना, चोरी कराना, चोरी के माल लेना, और युद्ध के समय पदार्थों का संग्रह करना-ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं। - महाव्रती के लिए अस्तेय की भावनाएँ
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1208-1209 अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्धी अणुण्णवित्ता वि। एदावंतियउग्गहजायणमेध उग्गहाणुस्स ॥1208॥ वज्जणमणण्णुणादगिहप्पवेसस्स गोयरादीसु। उग्गहजायणमणुवीचिए तहा भावणा तइए ॥1209॥ = 1. उपकरणों को उसके स्वामी की परवानगी के बिना ग्रहण न करना; 2. उनकी अनुज्ञा से भी यदि ग्रहण करे तो उनमें आसक्ति न करना; 3. अपने प्रयोजन को बताते हुए कोई वस्तु माँगना; 4. या अपनी मर्जी से भी यदि दातार देगा तो `वह सबकी सब ग्रहण कर लूँगा-ऐसी भावना न करना; 5. ज्ञान व चारित्र में उपयोगी ही वस्तुएँ या उपकरण ग्रहण करना, अन्य नहीं, तथा अनुपयोगी वस्तु की याचना न करना ॥1208॥ 6. घर के स्वामी द्वारा घर में प्रवेश की मनाई होने पर उसके घर में प्रवेश न करना; 7. आगम से अविरुद्ध ही संयमोपकरण की याचना करना-ऐसी ये अचौर्य व्रत की भावनाएँ हैं ॥1209॥ ( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 339) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 4/57/345)
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/6 शून्यागार विमोचितावास परोपरोधाकरण भैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादाः पंच ॥6॥ = शून्यागारावास, विमोचित या त्यक्तावास, परोपरोधाकरण अर्थात् दूसरे के आने में रुकावट न डालना, भैक्ष्यशुद्धि अर्थात् भिक्षाचर्या की शुद्धि, सधर्माविसंवाद अर्थात् साधर्मी जनों से वाद विवाद न करना ये अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं॥6॥ ( चारित्तपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 33)
अनगार धर्मामृत अधिकार 4/57 में आचार आदि शास्त्रों से उद्धृत पृ. 346 उपादान मतस्यैव मते चासक्त बुद्धिता। गार्ह्यस्यार्थ कृतो लानमितरस्य तु वर्जनम्। अप्रवेशीऽमतेऽगारे गृहिभिर्गोचरादिषु। तृतीये भावना योग्ययाञ्चा सूत्रानुसारतः॥ देहणं भावणं चावि उग्गहं च परिग्गहे। संतुट्ठी भत्तपाणेसु तदियं वदमिस्सदो॥ = यहाँ दो प्रकार से पाँच-पाँच भावनाएँ बतायी है-एक आचार शास्त्र के अनुसार और दूसरी प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार। 1. तहाँ आचार शास्त्र के अनुसार तो 1. स्वामीके द्वारा अनुज्ञात तथा योग्य ही वस्तु का ग्रहण करना; 2. और अनुमत वस्तु में भी आसक्त बुद्धि न रखना; 3. तथा जितने से अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाता है उतना ही उसको ग्रहण करना बाकी को छोड़ देना; 4. गोचरादिक करते समय जिस गृह में प्रवेश करने की उसके स्वामी की अनुमति नहीं है, उसमें प्रवेश न करना; 5. और सूत्र के अनुसार योग्य विषय की ही याचना करना। 2. प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार - 1. शरीर की अशुचिता या अनित्यता आदि का विचार करना; 2. आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न समझना; 3. परिग्रह निग्रह अर्थात् `जितने भी चेतन या अचेतन पर-पदार्थ हैं' उनके संपर्क से आत्मा अपने हित से मूर्च्छित हो जाता है'- ऐसा विचार करना; 4. भक्त-संतोष अर्थात् विधि पूर्वक जैसा भी भोजन प्राप्त हो जाये उसमें ही संतोष धारण करना; 5. पान-संतोष अर्थात् यथा लब्ध पेय वस्तु के लाभालाभ में संतोष रखना; उन दोनों की प्राप्ति के लिए गृद्ध न होना।
महापुराण सर्ग संख्या 20/163 मितोचिताभ्यनुज्ञातग्रहणान्यग्रहोऽन्मथा। संतोषो भक्तपाने च तृतीयव्रतभावनाः ॥163॥ = 1. परिमित आहार लेना 2. तपश्चरण के योग्य आहार लेना; 3. श्रावक के प्रार्थना करने पर आहार लेना; 4. योग्य विधि के विरुद्ध आहार न लेना; 5. तथा प्राप्त हुए भोजन में संंतोष रखना-ये पाँच तृतीय अचौर्य व्रत की भावनाएँ हैं ॥163॥ - अणुव्रती के लिए अस्तेय की भावनाएँ
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/9/347/8 तथास्तेनः परद्रव्यहरणासक्तः सर्वस्योद्वेजनीयो भवति। इहैव चाभिघातवधबन्दहस्तपादकर्णनासोत्तरौष्ठच्छेदनभेदनसर्वस्वहरणादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभां गतिं गर्हितश्च भवतीति स्तेयाद् व्युपरतिः श्रेयसी। एवं हिंसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनीयम। = पर-द्रव्य का अपहरण करने वाले चोर का सब तिरस्कार करते हैं। इस लोक में वह तोड़ना मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, नाक, कान, ऊपर के औष्ठ का छेदना, भेदना और सर्वस्व हरण आदि दुःखों को और परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है, इसलिए चोरी का त्याग श्रेयस्कर है।....इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।• व्रतों की भावनाओं संबंधी विशेष विचार - देखें व्रत - 2।
- अन्याय पूर्वक ग्रहण करने का निषेध
कुरल काव्य परिच्छेद 12/3,6 अन्यायप्रभवं वित्तं मा गृहाण कदाचन वरमस्तु तदादाने लाभंवास्तु दूषणम् ॥3॥ नीतिं मनः परित्यज्य कुमार्गं यदि धावते। सर्वनाशं विजानीहि तदा निकटसंस्थितम् ॥6॥ = अन्याय से उत्पन्न धन को कभी भी ग्रहण न करो। भले ही उससे लाभ के अतिरिक्त अन्य वस्तु की संभावना न हो अर्थात् उससे केवल लाभ होना निश्चित हो ॥3॥ जब तुम्हारा मन नीति को त्याग कुमार्ग में प्रवृत्ति करने लगता है तो समझ लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है ॥6॥ - चोरी की निंदा
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 865/984 पदव्वहरणमेदं आसवदारं खु वेंति पावस्स। सोगरियवाहपरदारवेहिं चोरोहु पापदरो। = परद्रव्य हरण करना पाप आने का द्वार है। सूअर का घात करने वाला, मृगादिकों को पकड़ने वाला और परस्त्री गमन करने वाला, इनसे भी चोर अधिक पापी गिना जाता है। - अस्तेय का माहात्म्य
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 875-876एदे सव्वे दोसा ण होंति परदव्वहरण-विरदस्स। तव्विवरीदा य गुणा होंति सदा दत्तभोइस्स ॥875॥ देविंदरायगहवइदेवदसाहम्मि उग्गहं तुम्हा। उगग्हविहीणा दिण्णं गेण्हसु सामण्णसाहण्यं ॥876॥ = उपर्युक्त चोरी का दोष जिसने त्याग किया है, ऐसे महापुरुष में दोष नहीं रहते हैं, परंतु गुण ही उत्पन्न होते हैं। दिये हुए पदार्थ का उपभोग लेने वाले उस महापुरुष में अच्छे-अच्छे गुण प्रगट होते हैं ॥876॥ देवेंद्र, राजा, गृहस्थ, राजाधिकारी, देवता और साधर्मिक साधु - इन्हीं से योग्य विधि से दिया हुआ. मुनिपना को सिद्ध करने वाला, जिससे ज्ञान की सिद्धि व संयम की वृद्धि होगी, ऐसा पदार्थ हे क्षपक! तू ग्रहण कर ॥876॥ - चोरी के निषेध का कारण
लांटी संहिता अधिकार 2/168-170ततोऽवश्यं हि पापः स्यात्परस्वहरणे नृणाम्। यादृशं मरणे दुःखं तादृशं द्रविणक्षितौ ॥168॥ एवमेतत्परिज्ञाय दर्शनश्रावकोत्तमैः। कर्त्तव्या न मतिः क्वापि परदारधनादिषु ॥169॥ आस्तां परस्वस्वीकाराद्यद् दुःखं नारकादिषु। यदत्रैव भवेद् दुःखं तद्वक्तुं कः क्षमो नरः ॥170॥ = चोरी करने वाले पुरुष को अवश्य महापाप उत्पन्न होता है क्योंकि, जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने में दुःख होता है वैसा ही दुःख धन के नाश हो जाने पर होता है ॥168॥ उपरोक्त प्रकार चोरी के महादोषों को समझकर दर्शनप्रतिमा धारण करने वाले उत्तम श्रावक को दूसरे की स्त्री वा दूसरे का धन हरण करने के लिए कभी भी अपनी बुद्धि नही करनी चाहिए ॥169॥ दूसरे का धन हरण करने से वा चोरी करने से जो नरक आदि दुर्गतियों में महादुःख होता है वह तो होता ही है किंतु ऐसे लोगों को इस जन्म में ही जो दुःख होते हैं उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता ॥170॥• चोरी का हिंसा में अंतर्भाव - देखें अहिंसा - 3।
- मार्ग में पड़ी वस्तु मिलने पर कर्तव्य
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 157 जं तेणं तल्लद्धं सच्चित्ताचित्तमिस्सयं दव्वं। तस्स य सो आइरिओ अरिहदि एवंगुणो सोवि ॥157॥ = चलते समय मार्ग में शिष्यादि चेतन, पुस्तकादि अचेतन और पुस्तक सहित शिष्यादि मिश्र ये पदार्थ मिल जाँय तो आगे जाने वाले गुणवान् आचार्य ही उन पदार्थों के योग्य हैं अर्थात् उनको उठाकर आचार्य के समीप ले जावे।
कुरल काव्य परिच्छेद 12/1 इदं हि न्यायनिष्ठत्वं यन्निष्पक्षतया सदा। न्याय्यो भागो हृदादेयी मित्र य रिपवेऽथवा ॥1॥ = न्याय निष्ठा का सार केवल इसमें है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर धर्मशीलता के साथ दूसरे के देय अंश को दे देवे, फिर चाहे लेने वाला शत्रु हो या मित्र।
- अस्तेय अणुव्रत के पाँच अतिचार
- शंका समाधान
- कर्मादि पुद्गलों के ग्रहण में भी दोष लगेगा
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/15/352/12 यद्येवं कर्मनोकर्मग्रहणमपि स्तेयं प्राप्नोतिः अन्येनादत्तत्वात्। नैषदोषः; दानादाने यत्र संभवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहारः। कुतः, अदत्तग्रहणसामर्थ्यात्। = प्रश्न - यदि स्तेय का पूर्वोक्त (अदत्तादान) अर्थ किया जाता है तो कर्म और नोकर्म का ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योंकि, ये किसी के द्वारा दिये नहीं जाते? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जहाँ देना और लेना संभव है वहीं स्तेय का व्यवहार होता है। प्रश्न - यह अर्थ किस शब्द से फलित होता है? उत्तर - सूत्र में दिये गये `अदत्त' शब्द से। (राजवार्तिक अध्याय 7,15/1-3/542/15) - पुण्योपार्जन प्रशस्त चोरी कहलायेगा
राजवार्तिक अध्याय 7/15/8/543/1 स्यान्मतम् वंदनाक्रियासंबंधेन धर्मोपचये सति प्रशस्तं स्तेयं प्राप्नोति; तन्न; किं कारणम्। उक्तत्वात्। उक्तमेतत्दानादानसंभवो यत्र तत्र स्तेयप्रसंग इति। = प्रश्न - वंदना सामायिक आदि क्रियाओं के द्वारा पुण्य का संचय साधु बिना दिया हुआ ही ग्रहण करता है; अतः उसको प्रशस्त चोर कहना चाहिये? उत्तर - यह आशंका निर्मूल है, क्योंकि, यह पहले ही कह दिया गया है कि जहाँ लेन-देन का व्यवहार होता है वहीं चोरी है। - शब्द ग्रहण व नगर-द्वार प्रवेश से साधु को दोष लगेगा
राजवार्तिक अध्याय 7/15/7/543 स्यादेतत्-शब्दादिविषयरथ्याद्वारादोन्यदत्तानि आददानस्य भिक्षोः स्तेयं प्राप्नोतीति। तन्नः; किं कारणम्। अप्रमत्तत्वात्।...दत्तमेव वा तत्सर्वम्। तथा हि अयं पिहितद्वारादीन् न प्रविशति। = प्रश्न - इंद्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ग्रहण करने से तथा नगर के दरवाजे आदि को बिना दिये हुए प्राप्त करने से साधु को चोरी का दोष लगना चाहिए? उत्तर - यत्नवान अप्रमत्त और ज्ञानी साधु को शास्त्र-दृष्टि से आचारण करने पर शब्दादि सुनने में चोरों का दोष नहीं है, क्योंकि, वे सब वस्तुएँ तो सबके लिए दी ही गयी हैं, अदत्त नहीं हैं। इसीलिए उन दरवाजों मे प्रवेश नहीं करता जो सार्वजनिक नहीं हैं या बंद हैं।( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/15/353/2)
- कर्मादि पुद्गलों के ग्रहण में भी दोष लगेगा
पुराणकोष से
पाँच व्रतों में तीसरा व्रत । यह साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण है । इस व्रत की साधना इन पांच भावनाओं से होती है― मितग्रहण, उचित ग्रहण, अभ्यनुज्ञान ग्रहण, सविधिग्रहण और भोजन तथा पान में संतोष । इसके पाँच अतिचार है― स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार । महापुराण 18.71, 20.94-95, 159, 163, हरिवंशपुराण - 2.128, 58.171-173