आकंपित
From जैनकोष
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 562
आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठं बादर च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।
= आलोचना के दश दोष हैं - आकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी।
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 563-603
भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण। अणकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोई ॥563॥
= आकंपित - स्वतः भिक्षालब्धि से युक्त होने से आचार्य की प्रासुक और उद्गमादि दोषों से रहित आहार-पानी के द्वारा वैयावृत्त्य करना, पिंछी, कमंडलु वगैरह उपकरण देना, कृतिकर्म वंदना करना इत्यादि प्रकार से गुरु के मन में दया उत्पन्न करके दोषों को कहता है सो आकंपित दोष से दूषित है॥563॥
आलोचना के अन्य दोषों को जानने हेतु देखें आलोचना - 2।