इच्छा निषेध
From जैनकोष
आत्मानुशासन/36 आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ।36। = आशा रूप वह गड्ढा प्रत्येक प्राणी के भीतर स्थित है, जिसमें कि विश्व परमाणु के बराबर प्रतीत होता है । फिर उसमें किसके लिए क्या और कितना आ सकता है । अर्थात् नहीं के समान ही कुछ नहीं आ सकता । अतः हे भव्यो, तुम्हारी उन विषयों की अभिलाषा व्यर्थ है ।36।
ज्ञानार्णव/20/28 उदधिरुदकपूरैरिंधनैश्चित्रभानुर्यदि कथमपि दैवात्तृप्तिमासादयेताम् । न पुनरिह शरीरी कामभोगैर्विसंख्यैश्चिरतमपि भुक्तैस्तृप्तिमायाति कैश्चित् ।28। = इस जगत् में समुद्र तो जल के प्रवाहों से तृप्त नहीं होता और अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती, सो कदाचित् दैवयोग से किसी प्रकार ये दोनों तृप्त हो भी जायें परंतु यह जीव चिरकाल पर्यंत नाना प्रकार के काम-भोगादि के भोगने पर भी कभी तृप्त नहीं होता ।
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