उपचार
From जैनकोष
अन्य वस्तु के धर्म को प्रयोजन वश अन्य वस्तु में आरोपित करना उपचार कहलाता है जैसे मूर्त पदार्थों से उत्पन्न ज्ञान को मूर्त्त कहना अथवा मुख्य के अभाव में किसी पदार्थ के स्थान पर अन्य का आरोप करना उपचार कहलाता है जैसे संश्लेष संबंध के कारण शरीर को ही जीव कहना। अथवा निमित्त के वश से किसी अन्य पदार्थ को अन्य का कहना उपचार है - जैसे घी का घड़ा कहना। और इस प्रकार यह उपचार एक द्रव्य का अन्य द्रव्य में, एक गुण का अन्य गुण में, एक पर्याय का अन्य पर्याय में, स्वजाति द्रव्यगुण पर्याय का विजाति द्रव्यगुण पर्याय में, सत्यासत्य पदार्थों के साथ संबंध रूप में, कारण का कार्य में, कार्य का कारण में इत्यादि अनेक प्रकार से करने में आता है। यद्यपि यथार्थ दृष्टि से देखने पर यह मिथ्या है, परंतु अपेक्षा या प्रयोजन की दृष्टि में रखकर समझें तो कथंचित् सम्यक् है। इसी से उपचार को भी एक नय स्वीकार किया गया है। व्यवहार नय को ही उपचार कहा जाता है। व्यवहार नय सद्भूत और असद्भूत रूप से दो प्रकार है तथा इसी प्रकार उपचार भी दो प्रकार का है। अभेद वस्तु में गुण गुणी आदि का भेद करना भेदोपचार या सद्भूत-व्यवहार है। तथा भिन्न वस्तुओं में प्रयोजन वश एकता का व्यवहार अदोभेचार या असद्भूत व्यवहार है। सो भी दो प्रकार का है-अनुपचरित असद्भूत और उपचरित-असद्भूत। तहाँ संश्लेष संबंध-युक्त पदार्थों में एकता का उपचार अनुपचरित असद्भूत-व्यवहार है और भिन्न प्रदेशी द्रव्यों में एकता का उपचार उपचरित-असद्भूत-व्यवहार है। दोनों ही प्रकार के व्यवहार स्वजाति पदार्थों में अथवा विभाजित पदार्थों में अथवा उभयरूप पदार्थों में होने के कारण तीन-तीन प्रकार का हो जाता है। इस प्रकार गुणाकार करने से इसके अनेकों भंग बन जाते हैं, जिनका प्रयोग लौकिक क्षेत्र में अथवा आगम में नित्य स्थल-स्थल पर किया जाता है।
- उपचार के भेद व लक्षण
- कारण कार्य आदि उपचार निर्देश
- कारण में कार्य के उपचार के उदाहरण
- कार्य में कारण के उपचार के उदाहरण
- अल्प में पूर्ण के उपचार के उदाहरण
- भावी में भूत के उपचार के उदाहरण
- आधार में आधेय के उपचार के उदाहरण
- तद्वान में तत्के उपचार के उदाहरण
- समीपस्थ में तत्का उपचार
- अन्य अनेकों उपचारों के उदाहरण
- द्रव्यगुण पर्याय में उपचार निर्देश
- द्रव्य को गुणरूप से लक्षित करना
- पर्याय को द्रव्यरूप से लक्षित करना
- द्रव्य को पर्यायरूप से लक्षित करना
- पर्याय को गुणरूप से लक्षित करना
- गुण को पर्यायरूप से लक्षित करना
- उपचार की सत्यार्थता व असत्यार्थता
- परमार्थतः उपचार सत्य नहीं है
- अन्य धर्मों का लोप करनेवाला उपचार मिथ्या है
- उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है
- निश्चित व मुख्य के अस्तित्व में ही उपचार होता है सर्वथा अभाव में नहीं
- मुख्य के अभाव में भी अविनाभावी संबंधों में ही परस्पर उपचार होता है परस्पर उपचार होता है
- उपचार प्रयोग का कारण व प्रयोजन
- उपचार व नय संबंधी विचार
- उपचार कोई पृथक्नय नहीं
- असद्भूत व्यवहार नय ही उपचार है
- उपचार शुद्ध नय में नहीं नैगमादि नयों में ही संभव है
• व्यवहार नयके भेदादि निर्देश - देखें नय - V
1. उपचार के भेद व लक्षण
1. उपचार सामान्य का लक्षण
आलापपद्धति अधिकार 9
अन्यत्रप्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यत्र समारोपणमसद्भूतव्यवहारः। असद्भूतव्यवहार एवोपचारः। उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः।.....मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते। सोऽपि संबंधाविनाभावः।
= अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म को अन्य में समारोप करके कहना सो असद्भूत-व्यवहारनय है। असद्भूत व्यवहार को ही उपचार कहते हैं। (जैसे गुण गुणी में भेद करके जीव को ज्ञानवान् कहना अथवा मर्त पदार्थों से उत्पन्न ज्ञान को भी मूर्त कहना।) इस उपचार का भी जो उपचार करता है सो उपचरित असद्भूत व्यवहार है (जैसे शरीर को या धन आदि को जीव कहना अथवा अन्न को प्राण कहना इत्यादि)। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक . 22,29)। यह उपचार मुख्यपदार्थ के अभाव में, प्रयोजन में और निमित्त में प्रवर्तता है, और वह भी अविनाभावी-संबंधों में ही किया जाता है।
सूत्रपाहुड़/ पं. जयचंद 6/54
प्रयोजन साधनेकूं काहूं वस्तु कूं घट कहना सो तो प्रयोजनाश्रित व्यवहार है (जैसे जलमें भीगे हुए वस्त्रको ही जल धारणके कारण घट कह देना)। बहुरि काहू अन्य वस्तुकै निमित्ततै घटमें अवस्था भई ताकूं घटरूप कहना सो निमित्ताश्रित व्यवहार है (जैसे घीका घड़ा कहना अथवा अग्निसे पकनेपर घड़ेको पका हुआ कहना)।
2. उपचार के भेद-प्रभेद
आलापपद्धति अधिकार 5,9
असद्भूतव्यवहारस्त्रेधा। स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो,.....विजात्यसद्भूतव्यवहारो,.....स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहारो।...उपचरितासद्भूतव्यवहारस्त्रे। स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो,.....विजात्य सद्भूत व्यवहारो, स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहारो,....।5। गुण-गुणिनोः पर्यायपर्यायिणोः स्वभावस्वभाविनोः कारककारकिणोर्भेद सद्भूतव्यवहारस्यार्थः। द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्याये पर्यायोपचारः, गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये पर्यायोपचारः, गुणे द्रव्योपचारः, गुणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः, पर्याये गुणोपचारः इति नवविधोऽसद्भूतव्यवहारस्यार्थो द्रष्टव्यः। ....सोऽपि संबंधाविनाभावः। संश्लेषसंबंधः, परिणाम-परिणामिसंबंधः, श्रद्धा-श्रद्धेय-संबंधः, ज्ञानज्ञेयसंबंधः, चारित्रचर्यासंबंधश्चेत्यादि सत्यार्थः असत्यार्थः, सत्यार्थासत्यार्थश्चेत्युपचरितासद्भूतव्यवहारनयस्यार्थः।
= भावार्थ - 1. उपचार दो प्रकार का है भेदोपचार और अभेदोपचार। गुणगुणी में भेद करके कहना भेदोपचार है। इसे सद्भूत व्यवहार कहते हैं क्योंकि गुणगुणी का तादात्म्य संबंध पारमार्थिक है। भिन्न द्रव्यों में एकत्व करके कहना अभेदोपचार है। इसे असद्भूत व्यवहार कहते हैं, क्योंकि भिन्न द्रव्यों का संश्लेष या संयोग संबंध अपारमार्थिक है। यह अभेदोपचार भी दो प्रकार का है-संश्लेष युक्त द्रव्यों या गुणों आदि में और संयोगी द्रव्यों या गुणों में। तहाँ संश्लेषयुक्त अभेदको असद्भूत कहते हैं और संयोगी-अभेदको उपचरित-असद्भूत कहते हैं, क्योंकि यहाँ उपचारका भी उपचार करनेमें आता है, जैसे कि धन पुत्रादिका संबंध शरीरसे है और शरीरका संबंध जीवसे। इसलिए धनपुत्रादिको जीवका कह दिया जाता है। 2. गुण-गुणीमें, पर्याय-पर्यायीमें, स्वभाव-स्वभावीमें, कारक-कारकीमें भेद करना सद्भूत या भेदोपचारका विषय है। (विशेष देखें नय - V/5/4-6) 3. एक द्रव्यमें अन्य द्रव्यका, एक पर्यायमें अन्य पर्यायका, एक गुणमें अन्य गुणका, द्रव्यमें गुणका, द्रव्यमें पर्यायका, गुणमें द्रव्यका, गुणमें पर्यायका, पर्यायमें द्रव्यका तथा पर्यायमें गुणका इस तरह नौ प्रकार असद्भूत-अभेदोपचारका विषय है। सो भी स्वजाति-असद्भूत-व्यवहार, विजाति-असद्भूत-व्यवहार, और स्वजाति-विजाति-असद्भूत-व्यवहारके भेदसे तीन-तीन प्रकारका है। 4. अविनाभावी-संबंध कई प्रकारका होता है। जैसे-संश्लेष-संबंध, परिणाम-परिणामी संबंध, श्रद्धा-श्रद्धेय संबंध, ज्ञान-ज्ञेय संबंध, चारित्रचर्या संबंध इत्यादि। ये सब उपचरित-असद्भूत-व्यवहार रूप अभेदोचारके विषय हैं। सो भी स्वजाति-उपचरित-असद्भूत व्यवहार, विजाति-उपचरित-असद्भूत-व्यवहारके भेदसे तीन-तीन प्रकारके हैं। अथवा सत्यार्थ, असत्यार्थ व सत्यासत्यार्थके भेदसे तीन-तीन प्रकार हैं। यथा-1. स्वजाति-द्रव्यमें विजाति-द्रव्यका आरोप, 2. स्वजाति-गुणमें विजाति-गुणका आरोप, 3. स्वजाति पर्यायमें विजाति पर्यायका आरोप. 4. स्वजाति द्रव्यमें विजाति गुणका आरोप, 5. स्वजाति द्रव्यमें विजाति पर्यायका आरोप, 6. स्वजाति गुणमें विजाति द्रव्यका आरोप, 7. स्वजाति गुणमें विजाति पर्यायका आरोप, 8. स्वजाति पर्यायमें विजाति द्रव्यका आरोप, 9. स्वजाति पर्यायमें विजाति गुणका आरोप।
5. इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्यायमें स्वजाति विजाति व स्वजाति-विजाति (उभयरूप) भेदोंमें परस्पर अविनाभावी-संबंध देखकर यथासंभव अन्य भी भंग बना लेने चाहिए। (नयचक्रवृहद् गाथा 188,189,223-236/240 नयचक्र / श्रुतभवन दीपक 22 ) 6. इनके अतिरिक्त भी प्रयोजनके वशसे अनेकों प्रकारका उपचार करनेमें आता है। यथा-कारणमें कार्यका उपचार, कार्यमें कारणका उपचार, अल्पमें पूर्णका उपचार, आधारमें आधेयका उपचार, तद्वानमें तत्का उपचार, अतिसमीपमें तत्पनेका उपचार....इत्यादि-इत्यादि। (इनमें-से कुछका परिचय आगेवाले शीर्षकोंमें यथासंभव दिया गया है।)
3. उपचार के भेदों के लक्षण
नयचक्रवृहद् गाथा 226-231
स्वजातिपर्याये स्वजातिपर्यायारोपणोऽसद्भूत व्यवहारः-"दट्ठूणं पडिबिंबं भवदि हु तं चेव एस पज्जाओ। सज्जाइ असब्भूओ उपयरिओ णियजाइपज्जाओ ।226-1।" विजातिगुणे विजातिगुणारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः-"मुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमद्दवेण जण्णिओ जम्हा। जइ णहु मुत्तंणाणं तो किं खलुओ हु मुत्तेण ।226-2।" स्वजातिविजातिद्रव्ये स्वाजातिविजातिगुणारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः-"णेयं जीवमजीवं तं पिय णाणं खु तस्स विसयादो। जो भण्णइ एरिसत्थं सो ववहारोऽसब्भूदो ।227-1।" स्वजातिद्रव्ये स्वजातिविभावपर्यायारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः "परमाणु एयदेसी बहुप्पदेसी य जंपय जो हु। सो ववहारो णेओ दव्वे पज्जाय उवयारो ।227-2।" स्वजातिगुणे स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहारो-"रूवं पि भणई दव्वं ववहारो अण्ण अत्थसंभूदो। सो खलु जधोपदेसं गुणेसु दव्वाण उवयारो ।228।" स्वजातिगुणे स्वजातिपर्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः-"णाणं पि हु पज्जायं परिणममाणो दु गिहणए जम्हा। ववहारो खलु जंपइ गुणेसु उवयरिय पज्जाओ ।229।" स्वजातिविभावपर्याये स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहारः-"दट्ठूणथूलखंधं पुग्गलदव्वेत्ति जंपए लोए। उवयारो पज्जाए पुग्गलदव्वस्स भण्णइ ववहारो ।230।" स्वजातिपर्याये स्वजातिगुणारोपणोऽसद्भूतव्यवहारो-"दट्ठूण देहठाणं वण्णंतो होइ उत्तमं रूवं। गुण उवयारो भणिओ पज्जाए णत्थि संदेहो ।231।"
नयचक्रवृहद् गाथा 241-244
देसवइ देसत्थौ अत्थवणिज्जो तहेव जंपंतो। मे देसं मे दव्वं सच्चासच्चंपि उभयत्थं ।241। पुत्ताइबंधुवग्गं अहं च मम संपदादि जप्पंतो। उवयारा सब्भूओ सज्जाइ दव्वेसु णायव्वो ।242। आहरणहेमरयणाच्छादीया ममेति जप्पंतो। उवयरियअसब्भूओ, विजाइदव्वेसु णायव्वो ।243। देसत्थरज्जदुग्गं मिस्सं अण्णं च भणइ मम दव्वं। उहयत्थे उवयरिदो होइ असब्भूयववहारो ।244।
1. असद्भूत व्यवहार के भेदों की अपेक्षा
1. स्वजाति पर्यायमें स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-दर्पणमें प्रतिबिंबको देखकर `यह दर्पणकी पर्याय है' ऐसा कहना। यहाँ प्रतिबिंब व दर्पण दोनों पुद्गल पर्यायें हैं। एकका दूसरेमें आरोप किया गया है। 2. विजाति गुणमें विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-मूर्त इंद्रियोंमें या विषयोंसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञानको मूर्त्त कहना। तथा ऐसा तर्क उपस्थित करना यदि यह ज्ञान मूर्त्त न होता तो मूर्त्त द्रव्योंसे स्खलित कैसे हो जाता? यहाँ ज्ञान गुणका विजाति मूर्त गुणका आरोप किया गया है। 3. स्वजाति-विजाति द्रव्यमें स्वजाति विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-जीव व अजीव द्रव्योंको ज्ञेय रूपसे विषय करने पर ज्ञानको जीवज्ञान व अजीवज्ञान कह देना। यहाँ चेतन अचेतन द्रव्योंमें ज्ञान गुणका आरोप किया गया है। 4. स्वजाति द्रव्यमें स्वजाति विभावपर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परमाणु यद्यपि एकप्रदेशी है, परंतु परस्परमें बँधकर बहुप्रदेशी स्कंध होनेकी शक्ति होनेके कारण बहुप्रदेशी कहा जाता है। यहाँ पुद्गल द्रव्य (परमाणु) का पुद्गल पर्याय (स्कंध) में आरोप किया गया है। 5. स्वजाति गुणमं स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे-द्रव्यके रूपको ही द्रव्य कहना यथा-रूपपरमाणु, गंधपरमाणु आदि। यहाँ पुद्गलके गुणमें पुद्गल द्रव्य (परमाणु) का आरोप किया गया है। 6. स्वजाति गुणमें स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परिणमनके द्वारा ग्राह्य होनेके कारण ज्ञानको ही पर्याय कह देना। यहाँ ज्ञान गुणमें स्वजाति ज्ञान पर्यायका आरोप है। 7. स्वजाति विभाव पर्यायमें स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे-स्थूल स्कंधको ही पुद्गल द्रव्य कह देना। यहाँ स्कंधरूप पुद्गलकी विभाव पर्यायमें पुद्गल द्रव्यका उपचार किया गया है। 8. स्वजाति पर्यायमें स्वजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-देहके वर्णविशेषको देखकर `यह उत्तम रूपवाला है' ऐसा कहना। यहाँ देह पुद्गल पर्याय है। उसमें पुद्गलके रूपगुणका आरोप किया गया है।
2. उपचरित असद्भूत व्यवहार के भेदों की अपेक्षा
1. सत्यार्थ उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे-किसी देशके राजाको देशपति कहना। क्योंकि व्यवहारसे वह उस देशका स्वामी है ।241। 2. असत्यार्थ उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे-किसी नगर या देशमें रहनेके कारण यह मेरा नगर है' ऐसा कहना। क्योंकि व्यवहारसे भी वह उस नगरका स्वामी नहीं है ।241। 3. सत्यासत्यार्थ उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है जैसे-`मेरा द्रव्य' ऐसा कहना। क्योंकि व्यवहारसे भी कुछ मात्र द्रव्य उसका है सर्व नहीं ।241। स्वजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे.....`पुत्र बंधुवर्गादि मेरी संपदा है' ऐसा कहना। क्योंकि यहाँ चेतनका चेतन पदार्थोंमें ही स्वामित्व कहा गया है। 5. विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे-`आभरण हेम रत्नादि मेरे हैं' ऐसा कहना, क्योंकि यहाँ चेतनका अचेतनमें स्वामित्व संबंध कहा गया है। 6. स्वजाति विजाति उपचरित असद्भूत व्यवहार इस प्रकार है। जैसे.....`देश, राज्य, दुर्गादि मेरे हैं' ऐसा कहना, क्योंकि यह सर्व पदार्थ चेतन व अचेतनके समुदाय रूप हैं। इनमें चेतनका स्वामित्व बतलाया गया है।
नोट-इसी प्रकार अन्य भी उपचार यथा संभव जानना।
( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक 22 ); ( आलापपद्धति अधिकार 5)।
2. कारण कार्य आदि उपचार निर्देश
1. कारणों में कार्य के उपचार के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/10/348/11
हिंसादयो दुःखमेवेति भावयितव्यम्। कथं हिंसादयो दुःखम्। दुःखकारणत्वात्। यथा `अन्नं वै प्राणाः' इति। कारणस्य कारणत्वाद् वा यथा धनं प्राणाः इति। धनकारणमन्नपानमन्नपानकारणाः प्राणा इति। तथा हिंसादयोऽसद्वेद्यकारणम्। असद्वेद्यकर्म च दुःखकारणमिति। दुःखकारणे दुःखकारणकारणे वा दुःखोपचारः।
= हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसा चिंतन करना चाहिए। = प्रश्न-हिंसादिक दुःख कैसे हैं? उत्तर-दुःखके कारण होनेसे। यथा-`अन्न ही प्राण है'। अन्न प्राणधारणका कारण है पर कारणमें कार्यका उपचार करके अन्नको ही प्राण कहते हैं। या कारणका कारण होनेसे हिंसादिक दुःख हैं। यथा `धन ही प्राण हैं'। यहाँ अन्नपानका कारण धन है और प्राणका कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धनको प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादिक असाता वेदनीयकर्मके कारण हैं और असाता वेदनीय दुःखका कारण है, इसलिए दुःखके कारण या दुःखके कारणके कारण हिंसादिकमें दुःखका उपचार है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/10/1/537/24)
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/56/464/23
घृतमायुरन्नं वै प्राणा इति, कारणे कार्योपचारं।
= निश्चय कर घृत ही आयु है। अन्न ही प्राण है। इन वाक्यों में कारण में कार्य का उपचार किया गया है।
कषाय पाहुड 1/1,13-14/$244/288/5 (
कारण रूप द्रव्य कर्म में कार्य रूप क्रोध भाव का उपचार कर लेने से द्रव्य कर्म में क्रोध भाव की सिद्धि हो जाती है।
धवला पुस्तक 1/4,1,4/135/8 (
भावेंद्रियों के कारण कार्यभूत द्रव्येंद्रियों को भी इंद्रिय संज्ञा की प्राप्ति)
धवला पुस्तक 1/1,1,60/298/2 (
कारण में कार्य का उपचार करके ऋद्धि के कारणभूत संयम को ही ऋद्धि कहना)।
धवला पुस्तक 6/1,1,1,28/51/3 (
कारण में कार्य के उपचार से ही जाति नामकर्म को `जाति' संज्ञा की प्राप्ति।)
धवला पुस्तक 9/4,1,45/162/3 (
कारण में कार्य का उपचार करके शब्द या उसकी स्थापना को भी `श्रुत' संज्ञा की प्राप्ति।)
धवला पुस्तक 9/4,1,67/323/6 (
कारण में कार्य का उपचार करके क्षेत्रादिकों को भी `भाव ग्रंथ' संज्ञा की प्राप्ति।)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 34 (
कारण में कार्य का उपचार करके ही द्रव्य श्रुत को `ज्ञान' संज्ञा की प्राप्ति।)
2. कार्य में कारण के उपचार के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 1/12/122/8
श्रुतमपि क्वचिन्मतिरित्युपचर्यते मतिपूर्वकत्वादिति।
= श्रुतज्ञान भी कहीं पर मतिज्ञानरूपसे उपचरित किया जाता है क्योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। (अर्थात् श्रुतज्ञान कार्य है और मतिज्ञान उसका कारण)।
राजवार्तिक अध्याय 2/18/3/131/1
कार्यं हि लोके कारणमनुवर्तमानं दृष्टं यथा घटकारपरिणतं विज्ञान घट इति, तथेंद्रियनिमित्त उपयोगोऽपि इंद्रियमिति व्यपदिश्यते।
= लोक में कारण की भी कार्य में अनुवृत्ति देखी जाती है जैसे घटाकार परिणत ज्ञान को घट कह देते हैं। उसी प्रकार उपयोग को भी इंद्रिय के निमित्त से इंद्रिय कह देते हैं।
धवला पुस्तक 1/1,1,24/202/9 (
कार्यमें कारणका उपचार करके मनुष्य गति नामकर्मके कारणसे उत्पन्न मनुष्य पर्यायके समूहको मनुष्य गति कहा जाता हैं।)
धवला पुस्तक 4/1,5,1/316/9 ( कार्यमें कारणका उपचार करके पुद्गलादि द्रव्योंके परिणमनको भी `काल' संज्ञाकी प्राप्ति।)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 30 (
कार्यमें कारणका उपचारसे ज्ञानको ज्ञेयगत कहा जाता है।)
3. अल्प में पूर्ण के उपचार के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/361/1
उपचाराद् राजकुले सर्वगतचैत्राभिधानवत्।
= जैसे राजकुल में चैत्र को सर्वगत उपचार से कहा जाता है इसी प्रकार सामायिक व्रत के महाव्रतपना उपचार से जानना चाहिए।
4. भावी में भूत के उपचार के उदाहरण
धवला पुस्तक 1,1,16/182/4
कर्मणां क्षयोपशमाभ्यामभावे कथं तयोस्तत्र सत्त्वमिति चेन्नैष दोषः, तयोस्तत्र सत्त्वस्योपचारनिबंधनत्वात्।
= प्रश्न-कर्मों के क्षय और उपशम के अभाव में भी 8 वें गुणस्थान में क्षायिक या औपशमिक भाव कैसे हो सकता है? उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस गुणस्थान में क्षयिक और औपशमिक भाव का सद्भाव उपचार से माना गया है। विशेष देखें अपूर्वकरण - 4
5. आधार का आधेय में उपचार
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/56/464/24
मंचाः क्रोशंति इतितात्स्थ्यात्तच्छब्दोपचारः।
= मचान पर बैठकर किसान चिल्लाते हैं, पर कहा जाता है कि मचान चिल्लाते हैं। यहाँ आधार का आधेय में आरोप है।
6. तद्वानमें तत्का उपचार
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/464/24
साहचर्याद्यष्टिः पुरुष इति।
= लाठीवाले पुरुष को लाठिया या गाड़ीवाले पुरुष को गाड़ी कहना तद्वानमें तत्का उपचार है।
7. समीपस्थ में तद्का उपचार
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/56/464/25
सामीप्याद्वृक्षा ग्राम इति।
= किसी पथिक के पूछने पर यह कह दिया जाता है कि ये सामने दीखनेवाले वृक्ष ही ग्राम है अर्थात् अत्यंत समीप है। यहाँ समीप में तद्का उपचार है।
8. अन्य अनेकों उपचारों के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/18/356/6
शल्यमिव शल्यं। यथा तत् प्राणिनो बाधाकरं तथा शरीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकारः शल्यमित्युपचर्यते।
= जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकारी होती हैं, उसी प्रकार शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण होने से कर्मोदय जनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं। (यहाँ तत् सदृश कारण में तत्का उपचार है।)
राजवार्तिक अध्याय 4/26/4/244/28
चरम के पासवाला अव्यवहित पूर्व का मनुष्य भव भी उपचार से चरम कहा जाता है। (यहाँ काल सामीप्य में तत्का उपचार है।)
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/5/8-14/188/5 (
यह भी गौ है वह भी गौ थी। यहाँ धर्मके एकत्व कारण धर्मियोंमें एकत्व का उपचार किया है।
धवला पुस्तक 2/1,1/446/3
आयोगकेवली के एक आयु प्राण ही होता है, किंतु उपचार से एक, छः अथवा सात प्राण भी होते हैं। (यहाँ संश्लेष संबंध को प्राप्त द्रव्येंद्रिय व शरीरादि में जीव की पर्याय का उपचार किया गया है)।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 108 (
प्रजाके गुण दोषको उपजानेवाला राजा है। ऐसा कहना। यहाँ आश्रयमें आश्रयीका उपचार किया है।)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 19/57/13 (
मुक्त जीवोंके अवस्थाके कारण लोकाग्रको भी मोक्ष संज्ञा प्राप्त है। यहाँ आधारमें आधेयका उपचार है।
न्याय दीपिका 1/$14 (
आँखसे जानते हैं इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है। उपचारकी प्रवृत्तिमें सहकारिता निमित्त है।)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 702 (
अवधि व मनःपर्ययज्ञानको एकदेश प्रत्यक्ष कहना उपचार है।)
3. द्रव्यगुण पर्याय में उपचार निर्देश
1. द्रव्य को गुणरूप से लक्षित करना
धवला पुस्तक 1/1,1,9/161/3
गुणसहचरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञां प्रतिलभते। उक्तं च-"जेहि दु लक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ।104।"
= गुणों के साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञा को प्राप्त होता है। कहा भी है-"दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के उदय उपशम आदि अवस्थाओं के होनेपर उत्पन्न हुए जीव-परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, उन जीवों को सर्वज्ञदेव ने उसी (औपशमिक आदि) गुण संज्ञावाला कहा है।"
(गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 812/986) (
और भी देखें उपचार - 1.3)
2. पर्याय को द्रव्यरूप से लक्षित करना
धवला पुस्तक 4/1,5,4/337/5
असुद्धे दव्वट्ठिय णये अवलंविदे पुढविआदीणि अणेयाणि दव्वाणि होंति त्ति वंजणपज्जायस्स दव्वत्तब्भुवगमादो।
= अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का अवलंबन करने पर पृथिवी जल आदिक अनेक द्रव्य होते हैं, क्योंकि व्यंजन पर्याय के द्रव्यपना माना गया है। (और भी देखें उपचार - 1.3)
धवला पुस्तक 8/3,4/6/3
कधमत्थियवसेण अदव्वाणं पज्जयाणं दव्वत्तं। ण, दव्वदो एयंतेण तेसिं पुधभूदाणमणुवलंभादो, दव्वसहावाणं चेवुवलंभा।.....दव्वट्ठियस्स कधमभावव्ववहारो। ण एस दोसो, `यदस्ति न तद् द्वयमतिलंघ्य वर्त्तते' इति दो वि णए अविलंबिउण ट्ठिदणेगमणयस्स भावाभावव्ववहारविरोहाभावादो।
= प्रश्न-द्रव्यार्थिक नय से द्रव्य से भिन्न पर्यायों के द्रव्यत्व कैसे संभव है? उत्तर-पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती, किंतु द्रव्य स्वरूप ही वे उपलब्ध होती हैं। प्रश्न-द्रव्यार्थिक की अपेक्षा पर्यायों में अभाव का व्यवहार कैसे होता है? उत्तर-`जो है वह दोनों का अतिक्रमण करके नहीं रहता' इसलिए दोनों नयों का आश्रय कर स्थित नैगम नय के भाव अभाव रूप (दोनों प्रकार के) व्यवहार में कोई विरोध नहीं है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 294
प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते, निवर्तमानं च यद्युपादाय निवर्तते तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमेति लक्षणीयः तदेकलक्षण-लक्ष्यत्वात्।
= वह (चैतन्य) प्रवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्याय को व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है, वे समस्त सहवर्ती (गुण) या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं, इस प्रकार लक्षित करना चाहिए, क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षण से लक्ष्य है।
3. द्रव्य को पर्यायरूप से लक्षित करना
धवला पुस्तक 5/1,7,1/1/187/9
भावो णाम किं। दव्वपरिणामो पुव्वावरकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा।
= प्रश्न-भाव नाम किस वस्तु का है? उत्तर-द्रव्य के परिणाम को (पर्यायको) अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं। (और भी देखें उपचार - 1.3)
4. पर्याय को गुणरूप से लक्षित करना
भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 57/182
अहिंसादिगुणाः....।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 57/183/5
एते अहिंसादयो गुणाः परिणामा धर्म इत्यर्थः। ननु सहभुवो गुणा इति वचनात् चैतन्यामूर्तित्वादीनामेवात्मनः सभुवां गुणताम्। हिंसादिभ्यो विरतिपरिणामः पुनः कादाचित्कत्वात् मनुष्यत्वादिक्रोधादिवत् पर्याया इति चेन्न गुणपर्ययवद्द्रव्यमित्यावुभयोपादाने अवांतरभेदोपदर्शनमेत्द्यथा `गोबलीवर्दम्' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्ततापरिहृतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैव गुणशब्दस्य ग्रहणे धर्ममात्रवचनात्।
= अहिंसादि गुण आत्मा के परिणाम हैं अर्थात् धर्म हैं प्रश्न-`सहभुवो गुणाः' ऐसा आगम का वचन होने के कारण चैतन्य अमूर्तित्वादि ही आत्मा के गुण हैं क्योंकि ये कभी उससे पृथक् नहीं होते। परंतु हिंसा आदि से विरतिरूप परिणाम कादाचित्क होने के कारण, ये भाव मनुष्यत्वादि अथवा क्रोधादि की भाँति पर्याय हैं? उत्तर-`गुणपर्ययवद्द्रव्यम्' इस सूत्र में दोनों का ग्रहण किया है। यहाँ गुण शब्द उपलक्षण वाचक समझना चाहिए, अर्थात् वह ज्ञानादि गुणों के समान अहिंसादि धर्मों का भी वाचक है। जैसे-`गोबलीवर्दम्' इस शब्द से एक ही गौ पदार्थका गौ और बलीवर्द दोनों शब्दों के द्वारा ग्रहण होने से एक को पुनरुक्तता प्राप्त होती है। इसे दूर करने के लिए यहाँ गो शब्द का अर्थ `स्त्री' करना पड़ता है। उसी तरह `अहिंसादिगुणाः' इस गाथा के शब्द से यहाँ धर्ममात्र को गुण कहा है, ऐसा समझना चाहिए। (फिर वे धर्म गुण हों या पर्याय, इससे क्या प्रयोजन)।
देखें उपचार - 3.1 औपशमिकादि भावों को जीव के गुण कहा जाता है।
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा 97/135
उपशमंगुणं गृह्णाति।
= (अंतः कोटाकोटी मात्र कर्मों की स्थिति रह जानेपर जीव) उपशम सम्यक्त्व गुणको ग्रहण करै है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 5/14/12
केवलज्ञानादयः स्वभावागुणा मतिज्ञानादयो विभावगुणाः।
= केवलज्ञानादि (शुद्ध पर्याय) स्वभाव गुण हैं और मति ज्ञानादि (अशुद्ध पर्यायें) विभाव गुण हैं।
(प.प्रा./टीका 1/57) (विशेष देखें उपचार - 1.3)
5. गुण को पर्यायरूप से लक्षित करना
समयसार / मूल या टीका गाथा 345
केहिचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिचि दु जीवो। जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।345।
= क्योंकि जीव कितनी ही पर्यायों से नष्ट होता है और कितनी ही पर्यायों (गुणों) से नष्ट नहीं होता। इसलिए `वही करता है' अथवा `दूसरा ही करता है' ऐसा एकांत नहीं है।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 18
उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स। पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो।
= किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से विनाश सर्व पदार्थ मात्र के होता है। और किसी पर्याय से (गुणसे) पदार्थ वास्तव में ध्रुव है। (विशेष देखें उपचार - 1.3)
4. उपचार की सत्यार्थता व असत्यार्थता
1. परमार्थतः उपचार सत्य नहीं होता
धवला पुस्तक 7/2,1,33/76/4
उवयारेण खवोसमियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्थाभावविरोहादो।
= योग से क्षयोपशम भाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग औदयिक भाव ही है। और औदयिक योग का सयोगिकेवलियों में अभाव मानने में विरोध आता है। (अतः सयोगकेवलियों में योग पाया जाता है।)
धवला पुस्तक 14/5,6,16/13/4
सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ण, उवयारस्स सच्चात्ताभावादो।
= प्रश्न-सिद्धों के भी जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि सिद्धों में जीवत्व उपचार से है, और उपचार को सत्य मानना ठीक नहीं है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 105
पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्पः स तु उपचार एव न तु परमार्थः।
= पौद्गलिक कर्म आत्मा ने किया है ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन से भ्रष्ट विकल्प परायण अज्ञानियों का विकल्प है। वह विकल्प उपचार ही है परमार्थ नहीं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 225 प्रक्षेपक गाथा 8/304/25
न उपचारः साक्षाद्भवितुमर्हति अग्निवत् क्रूरोऽयं देवदत्त इत्यादि।
= उपचार कभी साक्षात् या परमार्थ नहीं होता। जैसे-`यह देवदत्त अग्निवत् क्रोधी है' ऐसा कहना। (इसी प्रकार आर्यिकाओंके महाव्रत उपचारसे है। सत्य नहीं)।
न्यायदीपिका अधिकार 1/$14
चक्षुषा प्रमीयत इत्यादि व्यवहारे पुनरुपचारः शरणम्। उपचारप्रवृत्तौ तु सहकारित्वं निबंधनम्। न हि सहकारित्वेन तत्साधकमिति करणं नाम, साधकविशेषस्यातिशयवतः करणत्वात्।
= आँख से जानते हैं' इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है और उपचार की प्रवृत्ति में सहकारिता निमित्त है। इसलिए इंद्रियादि प्रमितिक्रिया में मात्र साधक है पर साधकतम नहीं। और इसीलिए करण नहीं है, क्योंकि, अतिशयवान् साधक विशेष (असाधारण कारण) ही कारण होता है।
2. अन्य धर्मों का लोप करने वाला उपचार मिथ्या है
स्वयम्भूस्तोत्र 22
अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं, भेदाऽन्वयज्ञानमिदं हि सत्यम्। मृषोपचारोऽन्यतरस्य लोपे, तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥
= वह सुयुक्तिनीत वस्तु तत्त्व अनेक तथा एक रूप है, जो भेदाभेद ज्ञानका विषय है और वह ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें-से एकको भी असत्य मानकर दूसरेमें उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है, क्योंकि, दोनोंमें-से एकका अभाव माननेपर दूसरेका भी अभाव हो जाता है। और दोनोंका अभाव हो जानेपर वस्तुतत्त्व अनुपाख्य अर्थात् निःस्वभाव हो जाता है।
3. उपचार सर्वथा अप्रमाण नहीं है
धवला पुस्तक 1/1,1,4/135/9
नेयमदृष्टपरिकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति सुप्रसिद्धस्योपलंभात्।
= यह (द्रव्येंद्रिय को उपचार से इंद्रिय कहना) कोई अदृष्ट कल्पना नहीं है, क्योंकि, कार्यगत धर्म का कारण में और कारणगत् धर्म का कार्य में उपचार जगत् में प्रसिद्ध रूप से पाया जाता है।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 5/26/26
लौकिकानामपि घटाकाशं पटाकाशमिति व्यवहारप्रसिद्धेराकाशस्य नित्यानित्यत्वम्।.... न चायमौपचारिकत्वादप्रमाणमेव। उपचारस्यापि किंचित्साधर्म्यद्वारेण मुख्यार्थस्पर्शित्वात्।
= आकाश नित्यानित्य है, क्योंकि सर्व-साधारण में भी `यह घट का आकाश है', `यह पट का आकाश है' यह व्यवहार होता है। यह व्यवहार से उत्पन्न होता है इसलिए अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उपचार भी किसी न किसी साधर्म्य से ही मुख्य अर्थ को द्योतित करनेवाला होता है।
4. निश्चित व मुख्य के अस्तित्व में ही उपचार होता है सर्वथा अभाव में नहीं
राजवार्तिक अध्याय 1/12/14/56/15
सति मुख्ये लोके उपचारो दृश्यते, यथा सति सिंहे....अन्यत्र क्रौर्यशौर्यादिगुणसाधर्म्यात् सिंहोपचारः क्रियते। न च तथेह मुख्यं प्रमाणमस्ति। तदभावात् फले प्रमाणोपचारे न युज्यते।
= उपचार तब होता है जब मुख्य वस्तु स्वतंत्रभाव से प्रसिद्ध हो। जैसे सिंह अपने शूरत्व क्रूरत्वादि गुणों से प्रसिद्ध है तभी उसका सादृश्य से बालक में उपचार किया जाता है। पर यहाँ जब मुख्य प्रमाण ही प्रसिद्ध नहीं है तब उसके फल में उसके उपचार की कल्पना ही नहीं हो सकती।
धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4
अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपकोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्।
= प्रश्न-इस आठवें गुणस्थान में न तो कर्मों का क्षय ही होता है और न उपशम ही। ऐसी अवस्था में यहाँ पर क्षायिक या औपशमिक भाव का सद्भाव कैसे हो सकता है? उत्तर-नहीं, भावों में भूत के उपचार से उसकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-ऐसा मानने पर तो अतिप्रसंग आता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक कर्म का उदय अथवा मरण यदि न हों तो वह चारित्रमोह का उपशम या क्षय अवश्य कर लेता है। उपशम या क्षपण के सन्मुख हुए ऐसे व्यक्ति के उपचार से क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है।
( धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/9); ( धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/2)
धवला पुस्तक 5/1,7,9/206/4
उवयारे आसइज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि। चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो।
= प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचार करने पर अतिप्रसंग दोष नहीं प्राप्त होगा?
उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्त्ती अर्थ के प्रसंग से अतिप्रसंग दोष का प्रतिषेध हो जाता है। (इसलिए अपूर्वकरण गुणस्थान में तो उपचार से क्षायिक व औपशमिक भाव कहा जा सकता है पर इससे नीचे के अन्य गुणस्थानों में नहीं।)
धवला पुस्तक 7/2,1,56/98/2
ण चोवयारेण दंसणावरणणिद्देसो, मुहियस्साभावे उवयाराणुववत्तीदो।
= (दर्शन गुण को अस्वीकार करने पर) यह भी नहीं कहा जा सकता कि दर्शनावरण का निर्देश केवल उपचार से किया गया है, क्योंकि, मुख्य वस्तु के अभाव में उपचार की उपपत्ति नहीं बनती।
5. अविनाभावी संबंधों में ही परस्पर उपचार होता है
आलाप पद्धति./9
मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्त्तते सोऽपि संबंधाविनाभावः।
= मुख्य का अभाव होने पर प्रयोजन या निमित्त के वश से उपचार किया जाता है और वह प्रयोजन कार्य कारण या निमित्त नैमित्तिकादि भावों में अविनाभाव संबंध ही है।
6. उपचार-प्रयोग का कारण व प्रयोजन
धवला पुस्तक 7/2; 1,56/101/5
कधमंत्रंगाए चक्खिंदियवितपडिबद्धाए सत्तीए चक्खिदियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणट्ठं चक्खूणं जं दिस्सदि तं चक्खुदंसणमिदि परूवणादो। गाहाए गलभ जणमकाऊण उजुवत्थो किण्ण घेप्पदि। ण तत्थ, पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।
= प्रश्न-उस चक्षु इंद्रिय के विषय से प्रतिबद्ध अंतरंग (दर्शन) शक्ति में चक्षु इंद्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? उत्तर-नहीं, यथार्थ में तो चक्षु इंद्रिय की अंतरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किंतु बालक जनों को ज्ञान कराने के लिए अंतरंग में बहिरंग पदार्थ के उपचार से `चक्षुओं को जो दिखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है। प्रश्न-गाथा का गला न घोंटकर सीथा अर्थ क्यों नहीं करते? उत्तर-नहीं करते, क्योंकि, वैसा करने में तो पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 542-543
असदपि लक्षणमेतत्सन्मात्रत्वे सुनिर्विकल्पत्वात्। तदपि न विनावलंबान्निर्विषयं शक्यते वक्तुम् ।542। तस्मादनन्यशरणं सदपि ज्ञानं स्वरूपसिद्धत्वात्। उपचरितं हेतुवशात् तदिह ज्ञान तदन्यशरणमिव ।243।
= निश्चयनय से तत्त्व का स्वरूप केवल सत्रूप मानते हुए, निर्विकल्पता के कारण यद्यपि उक्त लक्षण (अर्थविकल्पो ज्ञानं) ठीक नहीं है। इसलिए ज्ञान स्वरूप से सिद्ध होने से अनन्य शरण होते हुए भी यहाँ पर वह ज्ञान हेतु (या प्रयोजन) के वश से उपचरित होकर उससे भिन्न के (ज्ञेयों) के शरण की तरह मालूम होता है। अर्थात् स्वपर व्यवसायात्मक प्रतीत होता है।
(और भी देखें नय - V/8/4)
5. उपचार व नय संबंध विचार
1. उपचार कोई पृथक् नय नहीं है
आलापपद्धति अधिकार 9
उपचारः पृथग् नयो नास्तीति न पृथक् कृतः।
= उपचार नय कोई पृथक् नय नहीं है, इसलिए असद्भूत व्यवहार नय से पृथक् उसका ग्रहण नयों की गणना में नहीं किया है।
2. असद्भूत व्यवहार ही उपचार है
आलापपद्धति अधिकार 9
असद्भूतव्यवहार एवोपचारः, उपचारादप्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः।
= असद्भूत व्यवहार ही उपचार है। और उपचार का भी जो उपचार करता है सो उपचरितासद्भूत व्यवहार है। (विशेष देखो नय V)
3. उपचार शुद्ध नयमें नहीं नैगामादि नयोंमें ही संभव है
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/248/290/6
एवं णेगम-संगह-ववहाराणं। कुदो। कज्जादो अभिण्णस्स कारणस्स पच्चयभावब्भुवगमादो उजुसुदस्स कोहोदयं पडुच्च जीवो कोहकसाओ। जं पडुच्च कोहकसाओ तं पच्च यकसाएण कसाओ। बंधसंताणं जीवादो अभिण्णाणं वेयणसहावाणमुजुसुदो कोहादिपच्चयभावं किण्ण इच्छदे। ण बंधसंतेहिंतो कोहादिकसायणमुप्पत्तीए अभावादो। ण च कज्जमणुकंताणं कारणववएसो; अव्वत्थावत्तीदो।
= इस प्रकार ऊपर चार सूत्रों द्वारा जो क्रोधादि रूप द्रव्य को प्रत्यय कषाय कह आये हैं, वह नैगम संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा से जानना चाहिए। प्रश्न-यह कैसे जाना कि उक्त कथन नैगमादि की अपेक्षा से किया है? उत्तर चूँकि ऊपर (इन सूत्रों में) कार्य से अभिन्न (अविनाभावी) कारण को प्रत्ययरूप से स्वीकार किया है, अर्थात् जो `कारण' कार्य से अभिन्न है उसे ही कषाय का प्रत्यय बतलाया है। ऋजुसूत्र की दृष्टि में क्रोध के उदय की अपेक्षा जीव क्रोध कषाय रूप होता है। प्रश्न-बंध और सत्त्व भी जीव से अभिन्न हैं, और वेदना स्वभाव हैं, इसलिए ऋजुसूत्र नय क्रोधादि कर्मों के बंध और सत्त्व को भी क्रोधादि प्रत्यय रूप से क्यों नहीं स्वीकार करता है? अर्थात् क्रोध कर्म के उदय को ही ऋजुसूत्र प्रत्यय कषाय क्यों मानता है; उसके बंध और सत्त्व अवस्था को प्रत्यय कषाय क्यों नहीं मानता? उत्तर-नहीं क्योंकि क्रोधादि कर्मों के बंध और सत्त्व से क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति नहीं होती है, तथा जो कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं उन्हें कारण कहना ठीक भी नहीं है, क्योंकि (इस नय से) ऐसा मानने पर अव्यवस्था दोष की प्राप्ति होती है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/$257/297/1
जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो तत्तो पुधभूतो संतो कथं कोहो। होंत ए ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा। किंतु णइमणओ जयिवसहाइरिएण जेणावलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकच्चब्भुवगमादो।
= प्रश्न-जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर-यदि यहाँ पर संग्रह आदि नयों का अवलंबन लिया होता तो ऐसा होता, किंतु यतिवृषभाचार्य ने चूँकि यहाँ पर नैगमनय का अवलंबन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न-नैगम नय का अवलंबन लेने पर दोष कैसे नहीं है? उत्तर-क्योंकि नैगमनय को अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है, इसलिए दोष नहीं है।