उपसंपदा
From जैनकोष
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 509-514
तियरणसव्वावासयपडिपुण्णं तस्स किरिय किरियम्मं। विणएणमंजलिकदो वाइयवसमं इमं भणदि ।509। पुव्वज्जादी सव्वं कादूणालोयणं सुपरिसुद्धं। दंसणणाणचारित्ते णिसल्लो विहरिदुं इच्छे ।511। अच्छाहि ताम सुविदिद वीसत्थो मा य होहि उव्वादो। पडिचरएहिं समंता इणमट्ठं संपहारेमो ।514।
= मन वचन और शरीर के द्वारा सर्व सामायिक आदि छः आवश्यक कर्म जिसमें पूर्णता को प्राप्त हुए हैं ऐसा कृतिकर्म कर अर्थात् वंदना करके विनय के साथ क्षपक हाथ जोड़कर श्रेष्ठ आचार्य को आगे लिखे हुए सूत्र के अनुसार विज्ञप्ति देता है ।509। दीक्षाग्रहण काल से आज तक जो जो व्रतादिकों में दोष उत्पन्न हुए हों उनकी मैं दश दोषों से रहित आलोचना कर दर्शन ज्ञान और चारित्रमें निःशल्य होकर प्रवृत्ति करने की इच्छा करता हूँ ।511। हे क्षपक, अब तुम निःशंक होकर हमारे संघ में ठहरो, अपने मन में से खिन्नता को दूर भगाओ। हम प्रतिचारकों के साथ तुम्हारे विषय में अवश्य विचार करेंगे। (ऐसा आचार्य उत्तर देते हैं)। इस प्रकार उपसंपाधिकार समाप्त हुआ।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 509 की उत्थानिका 728 गुरुकुले आत्मनिसर्गः उपसंपा नाम समाचारः।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 68/196/6
उपसंपया आचार्यस्य ढौकनं
= गुरुकुल में अपना आत्मसमर्पण करना यह उपसंपा शब्दका अभिप्राय है ।509। आचार्य के चरणमूल में गमन करना उपसंपदा है ।68।