उभयसारी ऋद्धि
From जैनकोष
तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/९८०-९८३
बुद्धीविपक्खणाणं पदाणुसारी हवेदि तिविहप्पा। अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उभयसारी ।९८०। आदि अवसाणमज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेण्हिय उवरिमगंथं जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी ।९८१। आदिअवसाणमज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेण्हिय हेट्ठिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी ।९८२। णियमेण अणियमेण य जुगवं एगस्स बीजसद्दस्स। उवरिमहेट्ठिमगंथं जा बुज्झइ उभयसारी सा ।९८३।
विचक्षण पुरुषों की पदानुसारिणी बुद्धि अनुसारिणी, प्रतिसारिणी और उभयसारिणी के भेद से तीन प्रकार है, इस बुद्धि के ये यथार्थ नाम हैं ।९८०। जो बुद्धि आदि मध्य अथवा अन्त में गुरु के उपदेश से एक बीजपद को ग्रहण करके उपरिम (अर्थात् उससे आगे के) ग्रन्थ को ग्रहण करती है वह `अनुसारिणी' बुद्धि कहलाती है ।९८१। गुरु के उपदेश से आदि मध्य अथवा अन्त में एक बीजपद को ग्रहण करके जो बुद्धि अधस्तन (पीछे वाले) ग्रन्थ को जानती है, वह `प्रतिसारिणी' बुद्धि है ।९८२। जो बुद्धि नियम अथवा अनियम से एक बीजशब्द के (ग्रहण करनेपर) उपरिम और अधस्तन (अर्थात् उस पद के आगे व पीछे के सर्व) ग्रन्थ को एक साथ जानती है वह `उभयसारिणी' बुद्धि है ।९८३।
अधिक जानकारी के लिये देखें ऋद्धि - 2.4।