कर्म कारक
From जैनकोष
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/16 नित्यानंदैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति।=नित्यानंदरूप एक स्वभाव के द्वारा स्वयं प्राप्य होने से (आत्मा ही) कर्म कारक होता है।
राजवार्तिक/6/1/4/504/17 तत्त्रिविधं निर्वर्त्यं विकार्यं प्राप्यं चेति। तत् त्रितयमपि कर्तुरन्यत्।=यह कर्म कारक निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य तीन प्रकार का होता है। ये तीनों कर्म कर्ता से भिन्न होते हैं।
देखें कर्ता ।