केवलाद्वैत
From जैनकोष
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/631,635 ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। =प्रश्न–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। उत्तर–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किंतु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परंतु वह भिन्न नहीं है।635।
देखें नय - III.4.5।