क्षितिशयन
From जैनकोष
मूलाचार/32 फासुयभूमिपएसे अप्पमसथारिदम्हि पच्छण्णे। दंडंधणुव्व सेज्जं खिदिसयणं एयपासेण।32। =जीवबाधारहित, अल्पसंस्तर रहित, असंयमी के गमनरहित गुप्तभूमि के प्रदेश में दंड के समान अथवा धनुष के समान एक कर्वट से सोना क्षितिशयन मूलगुण है।
अनगार धर्मामृत/9/91/921 अनुत्तानोऽनवाङ् स्वप्याद्भूदेशेऽसंस्तृते स्वयम् । स्वमात्रे संस्तृतेऽल्पं वा तृणादिशयनेऽपि वा। =तृणादि रहित केवल भूमिदेश में अथवा तृणादि संस्तर पर, ऊर्ध्व व अधोमुख न होकर किसी एक ही कर्वट पर शयन करना क्षितिशयन है।
साधु का एक मूलगुण–देखें निद्रा - 2।