क्षेत्रज्ञ
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
धवला 1/1,1,2/ गाथा 81,82/118-119 जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो।81। सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो। असंकडो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य।82। =जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है, शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जंतु है, मानी है, मायावी है, योगसहित है, संकुट है, असंकुट है, क्षेत्रज्ञ है और अंतरात्मा है।81-82।
महापुराण/24/105-108 प्राणा दशास्य संतीति प्राणी जंतुश्च जन्मभाक् । क्षेत्रं स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात् स तथोच्यते।105। पुरुष: पुरुभोगेषु शयनात् परिभाषित:। पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते।106। भवेष्वतति सातत्याद् एतीत्यात्मा निरुच्यते। सोऽंतरात्माष्टकर्मांतर्वर्तित्वादभिलप्यते।107। ज्ञ: स्याज्ज्ञागुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स:। पर्यायशब्दैरेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधै:।=दश प्राण विद्यमान रहने से यह जीव प्राणी कहलाता है, बार-बार जन्म धारण करने से जंतु कहलाता है। इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं, उस क्षेत्र को जानने से यह क्षेत्रज्ञ कहलाता है।105। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भोगों में शयन करने से अर्थात् प्रवृत्ति करने से यह पुरुष कहा जाता है, और अपने आत्मा को पवित्र करने से पुमान् कहा जाता है।106। नर नारकादि पर्यायों में ‘अतति’ अर्थात् निरंतर गमन करते रहने से आत्मा कहा जाता है। और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अंतर्वर्ती होने से अंतरात्मा कहा जाता है।107। ज्ञान गुण सहित होने से ‘ज्ञ’ और ज्ञानी कहा जाता है। इसी प्रकार यह जीव अन्य भी अनेक शब्दों से जानने योग्य है।108।
जीव को क्षेत्रज्ञ कहने की विवक्षा (देखें जीव - 1.2, जीव - 1.3)
पुराणकोष से
(1) जीव के स्वरूप का ज्ञाता । महापुराण 24.105(2) सत्ताईस सूत्रपदों में एक सूत्र― इसमें शुद्धात्मा के स्वरूप का वर्णन है । महापुराण 39.165,188
(3) सौधर्मेंद्र द्वारा मृत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.121