गुप्ति
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
मन, वचन व काय की प्रवृत्ति का निरोध करके मात्र ज्ञाता, दृष्टा भाव से निश्चयसमाधि धारना पूर्णगुप्ति है, और कुछ शुभराग मिश्रित विकल्पों व प्रवृत्तियों सहित यथा शक्ति स्वरूप में निमग्न रहने का नाम आंशिकगुप्ति है। पूर्णगुप्ति ही पूर्णनिवृत्ति रूप होने के कारण निश्चयगुप्ति है और आंशिकगुप्ति प्रवृत्ति अंश के वर्तने के कारण व्यवहारगुप्ति है।
- गुप्ति के भेद, लक्षण व तद्गत शंका
- गुप्ति सामान्य का निश्चय लक्षण
- गुप्ति सामान्य का व्यवहार लक्षण
- गुप्ति के भेद
- मन वचन काय गुप्ति के निश्चय लक्षण
- मन वचन कायगुप्ति के व्यवहार लक्षण
- मनोगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
- वचनगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
- कायगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
- गुप्ति निर्देश
- मन वचन कायगुप्ति के अतिचार
- सम्यग्गुप्ति ही गुप्ति है
- प्रवृत्ति के निग्रह के अर्थ ही गुप्ति का ग्रहण है
- वास्तव में आत्मसमाधि का नाम ही गुप्ति है
- मनोगुप्ति व शौच धर्म में अंतर
- गुप्ति समिति व दशधर्म में अंतर
- गुप्ति व ईर्याभाषा समिति में अंतर
- गुप्ति पालने का आदेश
- अन्य संबंधित विषय
- गुप्ति के भेद, लक्षण व तद्गत शंका
- गुप्ति सामान्य का निश्चय लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/7 यत: संसारकारणादात्मनो गोपनं सा गुप्ति:।=जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है। ( राजवार्तिक/9/2/1/591/27 ) ( भगवती आराधना/ विजयोदया टीका/115/266/17)।
द्रव्यसंग्रह टीका 35/101/5 निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयादात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झंपनं प्रवेशणं रक्षणं गुप्ति:।=निश्चय से सहज-शुद्ध-आत्म-भावनारूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत रागादि के भय से अपने आत्मा का जो छिपाना, प्रच्छादन, झंपन, प्रवेशन, या रक्षण है सो गुप्ति है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/333/12 त्रिगुप्त: निश्चयेन स्वरूपे गुप्त: परिणत:।=निश्चय से स्वरूप में गुप्त या परिणत होना ही त्रिगुप्तिगुप्त होना है।
समयसार/ तात्पर्यवृत्ति/307 ज्ञानिजीवाश्रितमप्रतिक्रमणं तु शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानलक्षणं त्रिगुप्तिरूपं।=ज्ञानीजनों के आश्रित जो अप्रतिक्रमण होता है वह शुद्धात्मा के सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुष्ठान ही है लक्षण जिसका, ऐसी त्रिगुप्तिरूप होता है।
- गुप्ति सामान्य का व्यवहार लक्षण
मूलाचार/331 मणवचकायपवुत्ती भिक्खू सावज्जकज्जसंजुत्ता। खिप्पं णिवारयंतो तीहिं दु गुत्तो हवदि एसो।331।=मन वचन व काय को सावद्य क्रियाओं से रोकना गुप्ति है। ( भगवती आराधना/ विजयोदया टीका/16/61/30)।
तत्त्वार्थसूत्र/9/4 सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति:।=(मन वचन काय इन तीनों) योगों का सम्यक् प्रकार निग्रह करना गुप्ति है।
सर्वार्थसिद्धि/9/4/411/3 योगो व्याख्यात: ‘कायवाङ्मन:कर्म योग:’ इत्यत्र। तस्य स्वेच्छाप्रवृत्तिनिवर्तनम् निग्रह: विषयसुखाभिलाषार्थ प्रवृत्तिनिषेधार्थं सम्यग्विशेषणम् । तस्मात्सम्यग्विशेषणविशिष्टात् संक्लेशाप्रादुर्भावपरात् कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नास्रवतीति।=मन वचन काय ये तीन योग पहिले कहे गये हैं। उसकी स्वच्छंद प्रवृत्ति को रोकना निग्रह है। विषय सुख की अभिलाषा के लिए की जानेवाली प्रवृत्ति का निषेध करने के लिए ‘सम्यक्’ विशेषण दिया है। इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेश को नहीं उत्पन्न होने देने रूप योगनिग्रह से कायादि योगों का निरोध होने पर तन्निमित्तक कर्म का आस्रव नहीं होता है। ( राजवार्तिक/9/4/2-4/593/13 ), ( गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/547/714/4 )।
राजवार्तिक/9/5/9/594/32 परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्ति:।=परिमित कालपर्यंत सर्व योगों का निग्रह करना गुप्ति है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/240/333/12 व्यवहारेण मनोवचनकाययोगत्रयेण गुप्त: त्रिगुप्त:।=व्यवहार से मन वचन काय इन तीनों योगों से गुप्त होना सो त्रिगुप्त है।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/101/6 व्यवहारेण बहिरंगसाधनार्थं मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्ति:।=व्यवहार नय से बहिरंग साधन (अर्थात् धर्मानुष्ठानों) के अर्थ जो मन वचन काय की क्रिया को (अशुभ प्रवृत्ति से) रोकना सो गुप्ति है।
अनगार धर्मामृत/4/154 गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षत:। पापयोगान्निगृहीयाल्लोकपंक्त्यादिनिस्पृह:।154। =मिथ्यादर्शन आदि जो आत्मा के प्रतिपक्षी, उनसे रत्नत्रयस्वरूप अपनी आत्मा को सुरक्षित रखने के लिए ख्याति लाभ आदि विषयों में स्पृहा न रखना गुप्ति है।
- गुप्ति के भेद
सर्वार्थसिद्धि/9/4/411/6 सा त्रितयी कायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति।=वह गुप्ति तीन प्रकार की है—काय गुप्ति, वचन गुप्ति और मनोगुप्ति। ( राजवार्तिक/9/4/4/593/21 )।
- मन वचन काय गुप्ति के निश्चय लक्षण
नियमसार/69-70 जो रायादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती। अलियादिणियत्ती वा मणं वा होइ वदिगुत्ती।69। नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/69-70 निश्चयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम् ।69। निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । कायकिरियाणियत्तो काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती। हिंसाइणियत्तो वा सरीरगुत्तीत्ति णिद्दिट्ठा।70।=रागद्वेष से मन परावृत्त होना यह मनोगुप्ति का लक्षण है। असत्यभाषणादि से निवृत्ति होना अथवा मौन धारण करना यह वचनगुप्ति का लक्षण है। औदारिकादि शरीर की जो क्रिया होती रहती है उससे निवृत्त होना यह कायगुप्ति का लक्षण है, अथवा हिंसा चोरी वगैरह पापक्रिया से परावृत्त होना कायगुप्ति है। (ये तीनों निश्चय मन वचन कायगुप्ति के लक्षण हैं। (मूलाचार/232-233) ( भगवती आराधना/1187-1188/1177 )।
धवला 1/1,1,2/116/9 व्यलीकनिवृत्तिर्वाचां संयमत्वं वा वाग्गुप्ति:।=असत्य नहीं बोलने का अथवा वचनसंयम अर्थात् मौन के धारण करने को वचनगुप्ति कहते हैं।
ज्ञानार्णव/18/15-18 विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलंबितान् । स्वाधीनं कुरुते चेत: समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।15। सिद्धांतसूत्रविंयासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा। भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिण:।16। साधुसंवृत्तवाग्वृत्तैमौनारूढस्य वा मुने:। संज्ञादिपरिहारेण वाग्गुप्ति: स्यान्महामुने:।17। स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यंकसंस्थितस्य वा। परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुने:।18।=रागद्वेष से अवलंबित समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समता भाव में स्थिर करता है, तथा सिद्धांत के सूत्र की रचना में निरंतर प्रेरणारूप करता है, उस बुद्धिमान मुनि के संपूर्ण मनोगुप्ति होती है।15-16। भले प्रकार वश करी है वचनों की प्रवृत्ति जिसने ऐसे मुनि के तथा संज्ञादि का त्याग कर मौनारूढ होने वाले महामुनि के वचनगुप्ति होती है।17। स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परिषह आ जाने पर भी अपने पर्यंकासन से ही स्थिर रहे, किंतु डिगे नहीं, उस मुनि के ही कायगुप्ति मानी गयी है।18। ( अनगारधर्मामृत/4/156/484 )
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/69-70 सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्ति:। हे शिष्य त्वं तावन्न चलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि। निखिलावृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च। ...इति निश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् ।69। सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वय: क्रिया विद्यंते, तासां निवृत्ति: कायोत्सर्ग:, स एव गुप्तिर्भवति। पंचस्थावराणां त्रसानां हिंसानिवृत्ति: कायगुप्तिर्वा। परमसंयमधर: परमजिनयोगोश्वर: य: स्वकीयं वपु: स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति।70।=सकल मोह रागद्वेष के अभाव के कारण अखंड अद्वैत परमचिद्रूप में सम्यक् रूप से अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। हे शिष्य ! तू उसे अचलित मनोगुप्ति जान। समस्त असत्य भाषा का परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है। इस प्रकार निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा है।69। सर्वजनों को काय संबंधी बहुत क्रियाएँ होती हैं, उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है। वही (काय) गुप्ति है। अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसों की हिंसानिवृत्ति सो कायगुप्ति है। जो परमसंयमधर परमजिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीर में अपने (चैतन्यरूप) शरीर से प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंद मूर्ति ही निश्चय कायगुप्ति है।70। (और भी देखो व्युत्सर्ग 1 )।
- मन वचन कायगुप्ति के व्यवहार लक्षण
नियमसार/66-68 कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं। परिहारी मणुगुत्तो ववहारणयेण परिकहियं।66। थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स। परिहारो वचगुत्तो अलोयादिणियत्तिवयणं वा।67। बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया कायकिरियाणियत्ती णिद्दिठ्ठा कायगुत्तित्ति।68। =कलुषता, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को व्यवहार नय से मनोगुप्ति कहा है।66। पाप के हेतुभूत ऐसे स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादि रूप वचनों का परिहार अथवा असत्यादिक की निवृत्ति वाले वचन, वह वचनगुप्ति है।67। बंधन, छेदन, मारण, आकुंचन (संकोचना) तथा प्रसारणा (फैलाना) इत्यादि कायक्रियाओं की निवृत्ति को कायगुप्ति कहा है।68।
- मनोगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1177/14 मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते किं प्रवृत्तस्य मनसो गुप्तिरथाप्रवृत्तस्य। प्रवृत्तं चेदं शुभं मन: तस्य का रक्षा। अप्रवृत्तं तथापि असत: का रक्षा।–किंच मन:शब्देन किमुच्यते द्रव्य-मन उत भावमन:। द्रव्यवर्गणामनश्चेत् तस्य कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् ।....अथ नोइंद्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमसंजातं ज्ञानं मन इति गृह्यते तस्य अपाय: क:। यदि विनाश: स न परिहर्तुं शक्यते।...ज्ञानानीह वोचय इवानारतमुत्पद्यंते न चास्ति तदविनाशोपाय:। अपि च इंद्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिष्टैव किमुच्यते ‘रागादिणियत्तीमणस्स’ इति। अत्र प्रतिविधीयतेनोइंद्रियमतिरिह मन:शब्देनोच्यते। सा रागादिपरिणामै: सह एककालं आत्मनि प्रवर्तते।...तेन मनस्तत्त्वावग्राहिणो रागादिभिरसहचारिता या सा मनोगुप्ति:।...अथवा मन:शब्देन मनुते य आत्मा स एव भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृत्ति: रागद्वेषरूपेण या अपरिणति: सा मनोगुप्तिरित्युच्यते। अथैवं व्रूषे सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति: दृष्टफलमनपेक्ष्य योगस्य वीर्यपरिणामस्य निग्रहो रागादिकार्यकरणनिरोधो मनोगुप्ति:।=प्रश्न—मन की जो यह गुप्ति कही गयी है, तहाँ प्रवृत्त हुए मन की गुप्ति होती है अथवा राग द्वेष में अप्रवृत्त मन की होती है ? यदि मन शुभ कार्य में प्रवृत्त हुआ है तो उसके रक्षण करने की आवश्यकता ही क्या ? और यदि किसी कार्य में भी वह प्रवृत्त ही नहीं है तो वह असद्रूप है। तब उसकी रक्षा ही क्या ? और भी हम यह पूछते हैं कि मन शब्द का आप क्या अर्थ करते हैं—द्रव्यमन या भावमन ? यदि द्रव्य वर्गणा को मन कहते हों तो उसका अपाय क्या चीज है, जिससे तुम उसको बचाना चाहते हो ? और यदि भावमन को अर्थात् मनोमति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न ज्ञान को मन कहते हो तो उसका अपाय ही क्या ? यदि उसके नाश को उसका अपाय कहते हो तो उसका परिहार शक्य नहीं है, क्योंकि, समुद्र की तरंगोंवत् सदा ही आत्मा में अनेकों ज्ञान उत्पन्न होते रहते हैं, उनके अविनाश होने का अर्थात् स्थिर रहने का जगत् में कोई उपाय ही नहीं है? और यदि रागादिकों से व्यावृत्त होना मनोगुप्ति का लक्षण कहते हो तो वह भी योग्य नहीं है क्योंकि इंद्रियजंय ज्ञान रागादिकों से युक्त ही रहता है ? (तब वह मनोगुप्ति क्या चीज है?) उत्तर—मनोमति ज्ञान रूप भावमन को हम मन कहते हैं, वह रागादि परिणामों के साथ एक काल में ही आत्मा में रहते हैं। जब वस्तु के यथार्थ स्वरूप का मन विचार करता है तब उसके साथ रागद्वेष नहीं रहते हैं, तब मनोगुप्ति आत्मा में है ऐसा समझा जाता है। अथवा जो आत्मा विचार करता है, उसको मन कहना चाहिए, ऐसा आत्मा जब रागद्वेष परिणाम से परिणत नहीं होता है तब उसको मनोगुप्ति कहते हैं। अथवा यदि आप यह कहो कि सम्यक् प्रकार योगों का निरोध करना गुप्ति कहा गया है, तो तहाँ ख्याति लाभादि दृष्ट फल की अपेक्षा के बिना वीर्य परिणामरूप जो योग उसका निरोध करना, अर्थात् रागादिकार्यों के कारणभूत योग का निरोध करना मनोगुप्ति है, ऐसा समझना चाहिए।
- वचनगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1178/5 ननु च वाच: पुद्गलत्वात् ....न चासौ सवरणे हेतुरनात्मपरिणामत्वात् । ....यां वाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या वाच इह ग्रहणं, वाग्गुप्तिस्तेन वाग्विशेषस्यानुत्पादकता वाच: परिहारो वाग्गुप्ति:। मौनं वा सकलाया वाचो या परिहृति: सा वाग्गुप्ति:। =प्रश्न—वचन पुद्गलमय हैं, वे आत्मा के परिणाम (धर्म) नहीं हैं अत: कर्म का संवर करने को वे समर्थ नहीं हैं ? उत्तर—जिससे परप्राणियों को उपद्रव होता है, ऐसे भाषण से आत्मा का परावृत्त होना सो वाग्गुप्ति है, अथवा जिस भाषण में प्रवृत्ति करने वाला आत्मा अशुभ कर्म का विस्तार करता है ऐसे भाषण से परावृत्त होना वाग्गुप्ति है। अथवा संपूर्ण प्रकार के वचनों का त्याग करना या मौन धारण करना सो वाग्गुप्ति है। और भी दे.—‘मौन’।
- कायगुप्ति के लक्षण संबंधी विशेष विचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1188/1182/2 आसनस्थानशयनादीनां क्रियात्वात् सा चात्मन: प्रवर्तकत्वात् कथमात्मना कार्या क्रियाभ्यो व्यावृत्ति:। अथ मतं कायस्य पर्याय: क्रिया, कायाच्चार्थांंतरात्मा ततो द्रव्यांतरपर्यायात् द्रव्यांतरं तत्परिणामशून्यं तथापरिणतं व्यावृत्तं भवतीति कायक्रियानिवृत्तिरात्मनो भण्यते। सर्वेषामात्मनामित्थं कायगुप्ति: स्यात् न चेष्टेति। अत्रोच्यते-कायस्य संबंधिनो क्रिया कायशब्देनोच्यते। तस्या: कारणभूतात्मन: क्रिया कायक्रिया तस्या निवृत्ति:। काउस्सग्गो कायोत्सर्ग....तद्गतममतापरिहार: कायगुप्ति:। अन्यथा शरीरमायु: शृंखलाववद्धं त्यक्तुं न शक्यते इत्यसंभव: कायोत्सर्गस्य।...गुप्तिर्निवृत्तिवचन इहेति सूत्रकाराभिप्रायो।...कायोत्सर्गग्रहणे निश्चलता भण्यते। यद्येवं ‘कायकिरियाणिवत्ती’ इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्ग: कायगुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत् न कायविषयं ममेदंभावरहितत्वमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्ते:। धावनगमनलंघनादिक्रियासु प्रवृत्तस्यापि कायगुप्ति: स्यान्न चेष्यते। अथ कायक्रियानिवृत्तिरित्येतावदुच्यते मूर्च्छापरिगतस्यापि अपरिस्पंदता विद्यते इति कायगुप्ति: स्यात् । तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृत्तये। कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्ति: कायगोचरममतात्यागपरा वा कायगुप्तिरिति सूत्रार्थ:।=प्रश्न—आसन स्थान शयन आदि क्रियाओं का प्रवर्तक होने से आत्मा इनसे कैसे परावृत्त हो सकता है ? यदि आप कहो कि ये क्रियाएँ तो शरीर की पर्यायें हैं और आत्मा शरीर से भिन्न है। और द्रव्यांतर से द्रव्यांतर में परिणाम हो नहीं सकता। और इस प्रकार काय की निवृत्ति हो जाने से आत्मा को कायगुप्ति हो जाती है, परंतु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने से तो संपूर्ण आत्माओं में कायगुप्ति माननी पड़ेगी (क्योंकि सभी में शरीर की परिणति होनी संभव नहीं है) उत्तर—यहाँ शरीर संबंधी जो क्रिया होती है उसको ‘काय’ कहना चाहिए। (शरीर को नहीं)। इस क्रिया को कारणभूत जो आत्मा की क्रिया (या परिस्पंदन या चेष्टा) होती है उसको कायक्रिया कहनी चाहिए ऐसी क्रिया से निवृत्ति होना यह कायगुप्ति है। प्रश्न—कायोत्सर्ग को कायगुप्ति कहा गया है? उत्तर—तहाँ शरीरगत ममता का परिहार कायगुप्ति है। शरीर का त्याग नहीं, क्योंकि आयु की शृंखला से जकड़े हुए शरीर का त्याग करना शक्य न होने से इस प्रकार कायोत्सर्ग ही असंभव है। यहाँ गुप्ति शब्द का ‘निवृत्ति’ ऐसा अर्थ सूत्रकार को इष्ट है। प्रश्न—कायोत्सर्ग में शरीर की जो निश्चलता होती है उसे कायगुप्ति कहें तो ? उत्तर—तो गाथा में "काय की क्रिया से निवृत्ति" ऐसा कहना निष्फल हो जायेगा। प्रश्न—कायोत्सर्ग ही कायगुप्ति है ऐसा कहें तो? उत्तर—नहीं, क्योंकि, शरीर विषयक ममत्व रहितपना की अपेक्षा से कायोत्सर्ग (शब्द) की प्रवृत्ति होती है। यदि इतना (मात्र ममतारहितपना) ही अर्थ कायगुप्ति का माना जायगा तो भागना, जाना, कूदना आदि क्रियाओं में प्राणी को भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी (क्योंकि उन क्रियाओं को करते समय काय के प्रति ममत्व नहीं होता है)। प्रश्न—तब ‘शरीर की क्रिया का त्याग करना कायगुप्ति है’ ऐसा मान लें ? उत्तर—नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने से मूर्च्छित व अचेत व्यक्ति को भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी। प्रश्न—(तब कायगुप्ति किसे कहें?) उत्तर—व्यभिचार निवृत्ति के लिए दोनों रूप ही कायगुप्ति मानना चाहिए—कर्मादान की निमित्तभूत सकलकाय की क्रिया से निवृत्ति को तथा साथ-साथ कायगत ममता के त्याग को भी।
- गुप्ति सामान्य का निश्चय लक्षण
- गुप्ति निर्देश
- मन वचन कायगुप्ति के अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/16/62/10 असमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्ति: कायगुप्तेरविचार:। एकपादादिस्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्ठस्य वा निश्चलता। आप्ताभासप्रतिबिंबाभिमुखता वा तदाराधनाव्यापृत इवावस्थानं । सचित्तभूमौ संपतत्सु समंतत: अशेषेषु महति वा वाते हरितेषु रोषाद्वा दर्पात्तूर्ष्णीं अवस्थानं निश्चला स्थिति: कायोत्सर्ग:। कायगुप्तिरित्यस्मिन्पक्षे शरीरममताया अपरित्याग: कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचार:। रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिर्मनोगुप्तेरतिचार:।=मन की एकाग्रता के बिना शरीर की चेष्टाएँ बंद करना कायगुप्ति का अतिचार है। जहाँ लोक भ्रमण करते हैं ऐसे स्थान में एक पाँव ऊपर कर खड़े रहना, एक हाथ ऊपर कर खड़े रहना, मन में अशुभ संकल्प करते हुए अनिश्चल रहना, आप्ताभास हरिहरादिक की प्रतिमा के सामने मानो उसकी आराधना ही कर रहे हों इस ढंग से खड़े रहना या बैठना। सचित्त जमीन पर जहाँ कि बीज अंकुरादिक पड़े हैं ऐसे स्थल पर रोष से, वा दर्प से निश्चल बैठना अथवा खड़े रहना, ये कायगुप्ति के अतिचार है। कायोत्सर्ग को भी गुप्ति कहते हैं, अत: शरीरममता का त्याग न करना, किंवा कायोत्सर्ग के दोषों को (देखें व्युत्सर्ग - 1) न त्यागना ये भी कायगुप्ति के अतिचार है। ( अनगारधर्मामृत/4/161 )
रागादिक विकार सहित स्वाध्याय में प्रवृत्त होना, मनोगुप्ति के अतिचार हैं।
अनगार धर्मामृत/4/159-160 रागाद्यनुवृत्तिर्वा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्यं वा। दुष्प्रणिधानं वा स्यान्मलो यथास्वं मनोगुप्ते:।159। कर्कश्यादिगरोद्गारो गिर: सविकथादर:। हंकारादिक्रिया वा स्याद्वाग्गुप्तेस्तद्वदत्यय:।160। =(मनोगुप्ति का स्वरूप पहिले तीन प्रकार से बताया जा चुका है–रागादिक के त्यागरूप, समय या शास्त्र के अभ्यासरूप, और तीसरा समीचीन ध्यानरूप। इन्हीं तीन प्रकारों को ध्यान में रखकर यहाँ मनोगुप्ति के क्रम से तीन प्रकार के अतिचार बताये गये हैं।)– रागद्वेषादिरूप कषाय व मोह रूप परिणामों में वर्तन, शब्दार्थ ज्ञान की विपरीतता, आर्तरौद्र ध्यान।159।
(पहिले वचनगुप्ति के दो लक्षण बताये गये हैं–दुर्वचन का त्याग व मौन धारण। यहाँ उन्हीं की अपेक्षा वचनगुप्ति के दो प्रकार से अतिचार बताये गये हैं)–भाषासमिति के प्रकरण में बताये गये कर्कशादि वचनों का उच्चारण अथवा विकथा करना यह पहिला अतिचार है। और मुख से हुंकारादि के द्वारा अथवा खकार करके यद्वा हाथ और भुकुटिचालन क्रियाओं के द्वारा इंगित करना दूसरा अतिचार है।160।
- व्यवहार व निश्चय गुप्ति में आस्रव व संवर के अंश–देखें संवर - 2।
- सम्यग्गुप्ति ही गुप्ति है
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/202 सम्यग्दंडो वपुष: सम्यग्दंडस्तथा च वचनस्य। मनस: सम्यग्दंडो गुप्तीनां त्रितयमेव गम्यम् ।=शरीर का भले प्रकार—पाप कार्यों से वश करना तथा वचन का भले प्रकार अवरोध करना, और मन का सम्यक्तया निरोध करना, इन तीनों गुप्तियों को जानना चाहिए। अर्थात् ख्याति लाभ पूजादि की वांछा के बिना मनवचनकाय की स्वेच्छाओं का निरोध करना ही व्यवहार गुप्ति कहलाती है। ( भगवती आराधना/ विजयोदया टीका/115/266/20)
- प्रवृत्ति के निग्रह के अर्थ ही गुप्ति का ग्रहण है
सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/2 किमर्थ मिदमुच्यते। आद्यं प्रवृत्तिनिग्रहार्थम् । =प्रश्न–यह किसलिए कहा है? उत्तर–संवर का प्रथम कारण (गुप्ति) प्रवृत्ति का निग्रह करने के लिए कहा है। ( राजवार्तिक/9/6/1/595/18 )
- वास्तव में आत्मसमाधि का नाम ही गुप्ति है
परमात्मप्रकाश/ मूल/2/38 अच्छइ जित्तउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु। संवर णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प विहीणु।38।
प्र.प./टी./1/95/ निश्चयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तपरमसमाधिकाले स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति।=- मुनिराज जब तक शुद्धात्मस्वरूप में लीन हुआ रहता है उस समय हे शिष्य ! तू समस्त विकल्प समूहों से रहित उस मुनि को संवर निर्जरा स्वरूप जान।38।
- निश्चयनयकर परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्प त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधिकाल में निज शुद्धात्मस्वभाव ही देव है।
- मनोगुप्ति व शौच धर्म में अंतर
राजवार्तिक/9/6/595/30 स्यादेतत्-मनोगुप्तौ शौचमंतर्भवतीति पृथगस्य ग्रहणमनर्थकमिति; तन्न; किं कारणम् । तत्र मानसपरिस्पंदप्रतिषेधात् ।...तत्रासमर्थेषु परकीयेषु वस्तुषु अनिष्टप्रणिधानोपरमार्थमिदमुच्यते।=प्रश्न—मनोगुप्ति में ही शौच धर्म का अंतर्भाव हो जाता है, अत: इसका पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है। उत्तर—नहीं, क्योंकि, मनोगुप्ति में मन के व्यापार का सर्वथा निरोध किया जाता है। जो पूर्ण मनोनिग्रह में असमर्थ है। पर-वस्तुओं संबंधी अनिष्ट विचारों की शांति के लिए शौच धर्म का उपदेश है। - गुप्ति समिति व दशधर्म में अंतर
सर्वार्थसिद्धि/9/6/412/2 किमर्थमिदमुच्यते। आद्य (गुप्तादि) प्रवृतिनिग्रहार्थम् । तत्रासमर्थानां प्रवृत्त्युपायप्रदर्शनार्थं द्वितीयम् (एषणादि) इदं पुनर्दशविधधर्माख्यानं समितिषु प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहारार्थं वेदितव्यम् ।=प्रश्न–यह (दशधर्मविषयक सूत्र) किसलिए कहा है? उत्तर–संवर का प्रथम कारण गुप्ति आदि प्रवृत्ति का निग्रह करने के लिए कहा गया है जो वैसा करने में असमर्थ हैं उन्हें प्रवृत्ति का उपाय दिखलाने के लिए दूसरा करण (ऐषणा आदि समिति) कहा गया है। किंतु यह दश प्रकार के धर्म का कथन समिमियों में प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद का परिहार करने के लिए कहा गया है। ( राजवार्तिक/9/6/1/595/18 )
- गुप्ति व ईर्याभाषा समिति में अंतर
राजवार्तिक/9/5/9/594/30 स्यान्मतम् ईर्यासमित्यादिलक्षणावृत्ति: वाक्कायगुप्तिरेव, गोपनं गुप्ति: रक्षणं प्राणिपीडापरिहार इत्यनर्थांतरमिति। तन्न; किं कारणम् । तत्र कालविशेषे सर्वनिग्रहोपपत्ते:। परिमितकालविषयो हि सर्वयोगनिग्रहो गुप्ति:। तत्रासमर्थस्य कुशलेषु वृत्ति: समिति:। =प्रश्न–ईर्या समिति आदि लक्षणवाली वृत्ति ही वचन व काय गुप्ति है, क्योंकि गोपन करना, गुप्ति, रक्षण, प्राणीपीडा परिहार इन सबका एक अर्थ है ? उत्तर–नहीं; क्योंकि; वहाँ कालविशेष में सर्व निग्रह की उपपत्ति है अर्थात् परिमित कालपर्यंत सर्व योगों का निग्रह करना गुप्ति है। और वहाँ असमर्थ हो जाने वालों के लिए कुशल कर्मों में प्रवृत्ति करना समिति है।
भगवती आराधना/ विजयोदया टीका/1187/1178/9 अयोग्यवचनेऽप्रवृत्ति: प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा न वा। भाषासमितिस्तु योग्यवचस: कर्तृ ता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्यो:। मौनं वाग्गुप्तिरत्र स्फुटतरो वचोभेद:। योग्यस्य वचस: प्रवर्तकता। वाच: कस्याश्चित्तदनुत्पादकतेति।=(वचन गुप्ति के दो प्रकार लक्षण किये गये हैं–कर्कशादि वचनों का त्याग करना व मौन धारना) तहाँ–1.जो आत्मा अयोग्य वचन में प्रवृत्ति नहीं करता परंतु विचार पूर्वक योग्य भाषण बोलता है अथवा नहीं भी बोलता है यह उसकी वाग्गुप्ति है। परंतु योग्य भाषण बोलना यह भाषा समिति है। इस प्रकार गुप्ति और समिति में अंतर है। 2. मौन धारण करना यह वचन गुप्ति है। यहाँ–योग्य भाषण में प्रवृत्ति करना समिति है। और किसी भाषा को उत्पन्न न करना यह गुप्ति है। ऐसा इन दोनों में स्पष्ट भेद है। - गुप्ति पालने का आदेश
मूलाचार/334-335 खेत्तस्स वई णयरस्स खाइया अहव होइ पायारो। तह पापस्स णिरोहो ताओ गुत्तीओ साहुस्स।334। तम्हा तिविहेण तुमं णिच्चं मण्वयणकायजोगेहिं। होहिसु समाहिदमई णिरंतरं झाणसज्झाए।335।=जैसे खेत की रक्षा के लिए बाड़ होती है, अथवा नगर की रक्षारूप खाई तथा कोट होता है, उसी तरह पाप के रोकने के लिए संयमी साधु के ये गुप्तियाँ होती हैं।334। इस कारण हे साधु ! तू कृत कारित अनुमोदना सहित मन वचन काय के योगों से हमेशा ध्यान और स्वाध्याय में सावधानी से चित्त को लगा।335। ( भगवती आराधना/ मूल/1189-1190/1184) - अन्य संबंधित विषय
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- मन वचन कायगुप्ति के अतिचार
पुराणकोष से
वचन, मन और कायिक प्रवृत्ति का निग्रह । यह मुनि का एक धर्म है । इसके तीन भेद हैं― वचनगुप्ति, मनोगुप्ति और कायगुप्ति । इनमें वचन न बोलना वचनगुप्ति है, चिंतन-स्मरण आदि न करना मनोगुप्ति और कायिक प्रवृत्ति का न करना कामगुप्ति है । महापुराण 2. 77,11. 65, 36.38, पद्मपुराण - 4.48,पद्मपुराण - 4.14.109, हरिवंशपुराण - 2.127 पाँच समितियां और तीन गुप्तियाँ ये आठ प्रवचन मातृकाएं कहलाती है । मुनि इनका पालन करते हैं । महापुराण 11.65