ग्रन्थ:चारित्रपाहुड़ गाथा 1-2
From जैनकोष
सव्वण्हु सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी ।
वंदित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ॥१॥
णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं ।
मोक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ॥२॥युग्मम् ।
सर्वज्ञान सर्वदर्शिन: निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिन: ।
वन्दित्वा त्रिजगद्वन्दितान् अर्हत: भव्यजीवै: ॥१॥
ज्ञानं दर्शनं सम्यक् चारित्रं शुद्धिकारणं तेषाम् ।
मोक्षाराधनहेतुं चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥२॥युग्मम् ॥
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं अरहंत पमरेष्ठी को नमस्कार करके चारित्रपाहुड़ को कहूंगा । अरहंत परमेष्ठी कैसे हैं ? अरहंत ऐसे प्राकृत अक्षर की अपेक्षा तो ऐसा अर्थ है - अकार आदि अक्षर से तो ‘अरि’ अर्थात् मोहकर्म, रकार आदि अक्षर की अपेक्षा रज अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म, उसे ही रकार से रहस्य अर्थात् अंतराय कर्म इसप्रकार से चार घातिया कर्मों का हनन घातना जिनके हुआ वे अरहन्त हैं । संस्कृत की अपेक्षा ‘अर्ह’ ऐसा पूजा अर्थ में धातु है, उससे ‘अर्हन्’ ऐसा निष्पन्न हो तब पूजायोग्य हो उसको अर्हत् कहते हैं, वह भव्यजीवों से पूज्य है । परमेष्ठी कहने से परम इष्ट अर्थात् उत्कृष्ट पूज्य हो उसे परमेष्ठी कहते हैं अथवा परम जो उत्कृष्टपद में तिष्ठे वह परमेष्ठी है । इसप्रकार इन्द्रादिक से पूज्य अरहन्त परमेष्ठी हैं ।
सर्वज्ञ है, सब लोकालोकस्वरूप चराचर पदार्थों को प्रत्यक्ष जाने वह सर्वज्ञ है । सर्वदर्शी अर्थात् सब पदार्थों को देखनेवाले हैं । निर्मोह हैं, मोहनीय नाम के कर्म की प्रधान प्रकृति मिथ्यात्व है उससे रहित हैं । वीतराग हैं, जिसके विशेषरूप से राग दूर हो गया हो सो वीतराग है उनके चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से (उदयवश) हो ऐसा रागद्वेष भी नहीं है । त्रिजगद्वंद्य हैं, तीन जगत के प्राणी तथा उनके स्वामी इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्तियों से वंदने योग्य हैं । इसप्रकार से अरहन्त पद को विशेष्य करके और अन्य पदों को विशेषण करके अर्थ किया है । सर्वज्ञ पद को विशेष्य करके और अन्य पदों को विशेषण करने पर इसप्रकार भी अर्थ होता है, परन्तु वहाँ अरहन्त भव्यजीवों से पूज्य हैं, इसप्रकार विशेषण होता है ।
चारित्र कैसा है ? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीन आत्मा के परिणाम हैं, उनके शुद्धता का कारण है, चारित्र अंगीकार करने पर सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होता है । चारित्र मोक्ष के आराधन का कारण है, इसप्रकार चारित्र के पाहुड (प्राभृत) ग्रंथ को कहूँगा, इसप्रकार आचार्य ने मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा की है ॥१-२ ॥