ग्रन्थ:चारित्रपाहुड़ गाथा 15
From जैनकोष
अण्णाणं मिच्छत्तं वज्जह णाणे विसुद्धसम्मत्ते ।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१५॥
अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्ज्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे ।
अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मे अहिंसायाम् ॥१५॥
आगे अज्ञान मिथ्यात्व कुचारित्र के त्याग का उपदेश करते हैं -
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे भव्य ! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञान का त्याग कर, विशुद्ध सम्यक्त्व के होने पर मिथ्यात्व का त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर आरंभसहित मोह को छोड़ ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होने पर फिर मिथ्यादर्शन ‘ज्ञान, चारित्र में मत प्रवर्तो, इसप्रकार उपदेश है ॥१५॥