ग्रन्थ:चारित्रपाहुड़ गाथा 24
From जैनकोष
थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्तथूले१ य ।
परिहारो परमहिला परिग्गहाररंभपरिमाणं ॥२४॥
स्थूले त्रसकायवधे स्थूलायां मृषायां अदत्तस्थूले च ।
परिहार: परमहिलायां परिग्रहारम्भपरिमाणम् ॥२४॥
आगे पाँच अणुव्रतों का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - थूल त्रसकाय का घात, थूलमृषा अर्थात् असत्य, थूल अदत्त अर्थात् पर का बिना दिया धन, परमहिला अर्थात् परस्त्री इनका तो परिहार अर्थात् त्याग और परिग्रह तथा आरंभ का परिमाण - इसप्रकार पाँच अणुव्रत हैं ।
भावार्थ - यहाँ थूल कहने का ऐसा अर्थ जानना कि जिसमें अपना मरण हो, पर का मरण हो, अपना घर बिगड़े, पर का घर बिगड़े, राजा के दण्ड योग्य हो, पंचों के दण्ड योग्य हो इसप्रकार मोटे अन्यायरूप पापकार्य जानने । इसप्रकार स्थूल पाप राजादिक के भय से न करे वह व्रत नहीं है, इनको तीव्र कषाय के निमित्त से तीव्रकर्मबंध के निमित्त जानकर स्वयमेव न करने के भावरूप त्याग हो वह व्रत है । इसके ग्यारह स्थानक कहे, इनमें ऊपर-ऊपर त्याग बढता जाता है सो इसकी उत्कृष्टता तक ऐसा है कि जिन कार्यों में त्रस जीवों को बाधा हो इसप्रकार के सब ही कार्य छूट जाते हैं इसलिए सामान्य ऐसा नाम कहा है कि त्रसहिंसा का त्यागी देशव्रती होता है । इसका विशेष कथन अन्य ग्रन्थों से जानना ॥२४॥