ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 24
From जैनकोष
अथानंतर गौतमस्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक! राजा दशरथ का जो आश्चर्यकारी वृत्तांत हुआ वह मैं तेरे लिए कहता हूँ सो सुन। यहाँ से उत्तर दिशा में पर्वत के समान ऊंचे कोट से सुशोभित कौतुकमंगल नाम का नगर है ।।1-2।। वहाँ सार्थक नाम को धारण करनेवाला शुभमति नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पृधुश्री नाम की स्त्री थी जो कि स्त्रियों के योग्य गुणरूपी अराभूषण से विभूषित थी ।।3।। उन दोनों के कैकया नाम की पुत्री और द्रोणमेघ का नाम का पुत्र, ये दो संतानें हुईं। ये दोनों ही अपने अत्यंत निर्मल गुणों के द्वारा आकाश तथा पृथिवी के अंतराल को व्याप्त कर स्थित थे ।।4।। उनमें जिसके सर्व अंग सुंदर थे, जो उत्तम लक्षणों को धारण करने वाली तथा समस्त कलाओं की पारगामिनी थी, ऐसी कैकया नाम की पुत्री अत्यंत सुशोभित हो रही थी ।।5।। अंगहाराश्रय, अभिनयाश्रय और व्यायामिक के भेद से नृत्य के तीन भेद हैं तथा इनके अन्य अनेक अवांतर भेद हैं सो वह इन सबको जानती थी ।।6।। वह उस संगीत को अच्छी तरह जानती थी जो कंठ, शिर और उरस्थल इन तीन स्थानों से अभिव्यक्त होता था तथा नीचे लिखे सात स्वरों में समवेत रहता था ।।7।। षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर कहलाते हैं ।।8।। जो द्रुत, मध्य और विलंबित इन तीन लयों से सहित था तथा अस्र और चतुरस्र इन ताल की दो योनियों को धारण करता था ।।9।। स्थायी, संचारी, आरोही और अवरोही इन चार प्रकार के वर्णों से सहित होने के कारण जो चार प्रकार के पदों से स्थित था ।।10।।
प्रातिपदिक, तिङंत, उपसर्ग और निपातों में संस्कार को प्राप्त संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी यह तीन प्रकार की भाषा जिसमें स्थित थी ।।11।। धैवती, आषंभी, षड्ज-षड्जा, उदीच्या, निषादिनी, गांधारी, षड्जकैकशी और षड्जमध्यमा ये आठ जातियां हैं अथवा गांधारोदीच्छा, मध्यमपंचमी, गांधारपंचमी रक्तगांधारी आंधी, मध्यमोदीच्या, कमरिवी नंदिनी और कौशिकी ये दश जातियां हैं। सो जो संगीत इन आठ अथवा दश जातियों से युक्त था तथा इन्हीं और आगे कहे जानेवाले तेरह अलंकारों से सहित था ।।12-15।। प्रसन्नादि, प्रसंनांत, मध्यप्रसाद और प्रसन्नाद्यवसान ये चार स्थायी पद के अलंकार हैं ।।16।। निर्वृत्त, प्रस्थित, बिंदु, प्रेखोलित, तार मंद और प्रसन्न ये छह संचारी पद के अलंकार हैं ।।17।। आरोही पद का प्रसन्नादि नाम का एक ही अलंकार है और अवरोही पद के प्रसंनांत तथा कुहर ये दो अलंकार हैं। इस प्रकार तेरह अलंकार हैं सो इन सब लक्षणों से सहित उत्तम संगीत को वह अच्छी तरह जानती थी ।।18-19।। तंत्री अर्थात् वीणा से उत्पन्न होनेवाला तत, मृदंग से उत्पन्न होनेवाला अवनद्ध, बांसुरी से उत्पन्न होने वाला रुधिर और ताल से उत्पन्न होने वाला घन ये चार प्रकार के वाद्य हैं, ये सभी वाद्य नाना भेदों से सहित हैं। वह कैकया इन सबको इस तरह जानती थी कि उसकी समानता करनेवाला दूसरा व्यक्ति विरला ही था ।।20-21।। गीत, नृत्य और वादित्र इन तीनों का एक साथ होना नाट्य कहलाता है। शृंगार, हास्य, करुणा, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शांत ये नौ रस कहे गये हैं। वह बाला कैकया उन्हें अनेक अवांतर भेदों के साथ उत्कृष्टता से जानती थी ।।22-23।।
जो लिपि अपने देश में आमतौर से चलती है उसे अनुवृत्त कहते हैं। लोग अपने-अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं उसे विकृत कहते हैं। प्रत्यंग आदि वर्णों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामयिक कहते हैं और वर्णों के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपि का ज्ञान किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं। इस लिपि के प्राच्य, मध्यम, यौधेय, समाद्र आदि देशों की अपेक्षा अनेक अवांतर भेद होते हैं, सो कैकया उन सबको अच्छी तरह जानती थी ।।24-26।। जिसके स्थान आदि के अपेक्षा अनेक भेद हैं ऐसी उक्ति कौशल नाम की कला है। स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्याभिहित, समानार्थत्व और भाषा ये जातियाँ कही गयी हैं ।।27-28।। इनमें से उरस्थल कंठ और मूर्द्धा के भेद से स्थान तीन प्रकार का माना गया है। स्वर के षड्ज आदि सात भेद पहले कह ही आये हैं ।।29।। लक्षण और उद्देश्य अथवा लक्षणा और अभिधा की अपेक्षा संस्कार दो प्रकार का कहा गया है। पदवाक्य, महावाक्य आदि के विभाग सहित जो कथन है वह विन्यास कहलाता है ।।30।। सापेक्षा और निरपेक्षा की अपेक्षा काकु दो भेदों से सहित है। गद्य, पद्य और मिश्र अर्थात् चंपू की अपेक्षा समुदाय तीन प्रकार का कहा गया है ।।31।। किसी विषय का संक्षेप से उल्लेख करना विराम कहलाता है। एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना सामान्याभिहित कहा गया है ।।32।। एक शब्द के द्वारा बहुत अर्थ का प्रतिपादन करना समानार्थता है। आर्य, लक्षण और म्लेच्छ के नियम से भाषा तीन प्रकार की कही गयी है ।।33।। इनके सिवाय जिसका पद्य रूप व्यवहार होता है उसे लेख कहते हैं, ये सब जातियां कहलाती हैं। व्यक्तवाक्, लोकवाक् और मार्गव्यवहार ये मातृकाएँ कहलाती हैं। इन शब्दों के भी अनेक भेद हैं जिन्हें विद्वज्जन जानते हैं। इन सबसे सहित जो भाषण-चातुर्य है उसे उक्ति कौशल कहते हैं। कैकया इस उक्ति-कौशल को अच्छी तरह जानती थी ।।34-35।।
नाना शुष्क और वर्जित के भेद से शुष्क चित्र दो प्रकार का कहा गया है तथा चंदनादि के द्रव से उत्पन्न होने वाला आर्द्र चित्र अनेक प्रकार का है ।।36।। कृत्रिम और अकृत्रिम रंगों के द्वारा पृथ्वी, जल तथा वस्त्र आदि के ऊपर इसकी रचना होती है। यह अनेक रंगों के संबंध से संयुक्त होता है। शुभ लक्षणों वाली कैकया इस समस्त चित्रकला को जानती थी ।।37।। क्षय, उपचय और संक्रम के भेद से पुस्तकर्म तीन प्रकार का कहा गया है। लकड़ी आदि को छील-छालकर जो खिलौना आदि बनाये जाते हैं उसे क्षय जन्य पुस्तकर्म कहते हैं। ऊपर से मिट्टी आदि लगाकर जो खिलौना आदि बनाये जाते हैं उसे उपचय जन्य पुस्तकर्म कहते हैं तथा जो प्रतिबिंब अर्थात् साँचे आदि गढ़ाकर बनाये जाते हैं उसे संक्रम जन्य पुस्तकर्म कहते हैं ।।38-39।। यह पुस्तकर्म, यंत्र, निर्यंत्र, सच्छिद्र तथा निश्छिद्र आदि के भेदों से सहित है अर्थात् कोई खिलौना यंत्र चालित होते हैं और कोई बिना यंत्र के होते हैं, कोई छिद्र सहित होते हैं, कोई छिद्ररहित। वह कैकया पुस्तकर्म को ऐसा जानती थी जैसा दूसरों के लिए दुर्लभ था ।।40।।
पत्रच्छेद के तीन भेद हैं- बुष्किम, छिन्न और अच्छिन्न। सुई अथवा दंत आदि के द्वारा जो बनाया जाता है उसे बुष्किम कहते हैं। जो कैंची से काटकर बनाया जाता है तथा जो अन्य अवयवों के संबंध से युक्त होता है उसे छिन्न कहते हैं। जो कैंची आदि से काटकर बनाया जाता है तथा अन्य अवयवों के संबंध से रहित होता है उसे अच्छिन्न कहते हैं ।।41-42।। यह पत्रच्छेद क्रिया पत्र, वस्त्र तथा सुवर्णादि के ऊपर की जाती है तथा स्थिर और चंचल दोनों प्रकार की होती है। सुंदरी कैकया ने इस कला का अच्छी तरह निर्णय किया था ।।43।। आद्र, शुष्क, तदुन्मुक्त और मिश्र के भेद से माला निर्माण की कला चार प्रकार की है। इनमें से गीले अर्थात् ताजे पुष्पादि से जो माला बनायी जाती है उसे आद्र कहते हैं, सूखे पत्र आदि से जो बनायी जाती है शुष्क कहते हैं। चावलों के सीथ अथवा जवा आदि से जो बनायी जाती है उसे तदुज्झित कहते हैं और जो उक्त तीनों चीजों के मेल से बनायी जाती है उसे मिश्र कहते हैं ।।44-45।। यह माल्यकर्म रणप्रबोधन, व्यूहसंयोग आदि भेदों से सहित होता है वह बुद्धिमती कैकया इस समस्त कार्य को करना अच्छी तरह जानती थी ।।46।। योनि द्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना, परिकर्म, गुण-दोष विज्ञान तथा कौशल ये गंधयोजना अर्थात् सुगंधित पदार्थ निर्माण रूप कला के अंग हैं। जिनसे सुगंधित पदार्थों का निर्माण होता है ऐसे टगर आदि योनि द्रव्य हैं, जो धूपबत्ती आदि का आश्रय है उसे अधिष्ठान कहते हैं, कषायला, मधुर, चिरपरा, कडुआ और खट्टा यह पांच प्रकार का रस कहा गया है, जिसका सुगंधित द्रव्य में खासकर निश्चय करना पड़ता है ।।47-49।। पदार्थों की जो शीतता अथवा उष्णता है वह दो प्रकार का वीर्य है। अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों का मिलाना कल्पना है ।।50।। तेल आदि पदार्थों का शोधना तथा धोना आदि परिकर्म कहलाता है, गुण अथवा दोष का जानना सो गुण-दोष विज्ञान है और परकीय तथा स्वकीय वस्तु की विशिष्टता जानना कौशल है ।।51।। यह गंध योजना की कला स्वतंत्र और अनुगत के भेद से सहित है। कैकया इस सबको अच्छी तरह जानती थी ।।52।।
भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चूष्य के भेद से भोजन संबंधी पदार्थों के पाँच भेद हैं। इनमें से जो स्वाद के लिए खाया जाता है उसे भक्ष्य कहते हैं। यह कृत्रिम तथा अकृत्रिम के भेद से दो प्रकार का है ।।53।। जो क्षुधा-निवृत्ति के लिए खाया जाता है उसे भोज्य कहते हैं, इसके भी मुख्य और साधक की अपेक्षा दो भेद हैं? ओदन, रोटी आदि मुख्य भोज्य हैं और लापसी, दाल, शाक आदि साधक भोज्य हैं ।।54।। शीतयोग (शर्बत), जल और मद्य के भेद से पेय तीन प्रकार का कहा गया है ।।55।। इन सबका ज्ञान होना आस्वाद्यविज्ञान है। यह आस्वाद्यविज्ञान पाचन, छेदन, उष्णत्वकरण तथा शीतत्वकरण आदि से सहित है, कैकया को इस सबका सुंदर ज्ञान था ।।56।।
वह वज्र अर्थात् हीरा, मोती, वैडूर्य (नीलम), सुवर्ण, रजतायुध तथा वस्त्र-शंखादि रत्नों को उनके लक्षण आदि से अच्छी तरह जानती थी ।।57।। वहाँ पर धागे से कढ़ाई का काम करना तथा वस्त्र को अनेक रंगों में रंगना इन कार्यों को वह बड़ी सुंदरता और उत्कृष्टता के साथ जानती थी ।।58।। वह लोहा, दंत, लाख, क्षार, पत्थर तथा सूत आदि से बनने वाले नाना उपकरणों को बनाना बहुत अच्छी तरह जानती थी ।।51।। मेय, देश, तुला और काल के भेद से मान चार प्रकार का है। इसमें से प्रस्थ आदि के भेद से जिसके अनेक भेद हैं उसे मेय कहते हैं ।।60।। वितस्ति हाथ देश मान कहलाता है, पल, छटाक, सेर आदि तुलामान कहलाता है और समय, घड़ी, घंटा आदि कालमान कहा गया है ।।61।। यह मान आरोह, परिणाह, तिर्यग्गौरव और क्रिया से उत्पन्न होता है। इस सबको वह अच्छी तरह जानती थी ।।62।। भूतिकर्म अर्थात् बेलबूटा खींचने का ज्ञान, निधि ज्ञान अर्थात् गड़े हुए धन का ज्ञान, रूप ज्ञान, वणिग्विधि अर्थात् व्यापार कला तथा जीवविज्ञान अर्थात् जंतुविज्ञान इन सबको वह विशेष रूप से जानती थी ।।63।। वह मनुष्य, हाथी, गौ तथा घोड़ा आदि की चिकित्सा को निदान आदि के साथ अच्छी तरह जानती थी ।।64।। विमोहन अर्थात् मूर्च्छा के तीन भेद हैं- मायाकृत, पीड़ा अथवा इंद्रजाल कृत और मंत्र तथा औषधि आदि द्वारा कृत, सो इस सबको वह अच्छी तरह जानती थी ।।65।। पाखंडीजनों के द्वारा कल्पित सांख्य आदि मतों को वह उनमें वर्णित चारित्र तथा नाना प्रकार के पदार्थो के साथ अच्छी तरह जानती थी ।।66।।
चेष्टा, उपकरण, वाणी और कला व्यासंग के भेद से क्रीड़ा चार प्रकार की कही गयी है। उसमें शरीर से उत्पन्न होने वाली क्रीड़ा को चेष्टा कहा है ।।67।। गेंद आदि खेलना उपकरण है, नाना प्रकार के सुभाषित आदि कहना वाणी-क्रीड़ा है और जुआ आदि खेलना कलाव्यासंग नामक क्रीड़ा है, इस प्रकार वह अनेक भेद वाली क्रीड़ा में अत्यंत निपुण थी ।।68-69।। आश्रित और आश्रय के भेद से लोक दो प्रकार का कहा गया है। इनमें से जीव और अजीव तो आश्रित हैं तथा पृथ्वी आदि उनके आश्रय हैं ।।70।। इसी लोक में जीव की नाना पर्यायों में उत्पत्ति हुई है, उसी में यह स्थिर रहा है तथा उसी में इसका नाश होता है यह सब जानना लोकज्ञता है। यह लोकज्ञता प्राप्त होना अत्यंत कठिन है ।।71।। पूर्वापर पर्वत, पृथ्वी, द्वीप, देश आदि भेदों में यह लोक स्वभाव से ही अवस्थित है। कैकया को इसका उत्तम ज्ञान था ।।72।।
संवाहन कला दो प्रकार की है- उनमें से एक कर्म संश्रया है और दूसरी शय्योपचारिका। त्वचा, मांस, अस्थि और मन इन चार को सुख पहुँचाने के कारण कर्म संश्रया के चार भेद हैं अर्थात् किसी संवाहन से केवल त्वचा को सुख मिलता है, किसी से त्वचा और मांस को सुख मिलता है, किसी से त्वचा, मांस और हड्डी को सुख मिलता है और किसी से त्वचा, मांस, हड्डी एवं मन इन चारों को सुख प्राप्त होता है। इसलिए इसके संपुष्ट, गृहीत, भुक्तित, चलित, आहत, भगित, विद्ध, पीडित और भिन्न पीडित ये भेद भी हैं। ये ही नहीं मृदु, मध्य और प्रकृट के भेद से तीन भेद और भी होते हैं ।।73-75।। जिस संवाहन से केवल त्वचा को सुख होता है, मृदु अथवा सुकुमार कहलाता है। जो त्वचा और मांस को सुख पहुँचाता है वह मध्यम कहा जाता है और जो त्वचा, मांस तथा हड्डी को सुख देता है वह प्रकृत कहलाता है। इसके साथ जब कोमल संगीत और होता है तब वह मनः सुख संवाहन कहलाने लगता है ।।76।। इस संवाहन कला के निम्नलिखित दोष भी हैं- शरीर के रोमों को उलटा उद्वर्तन करना, जिस स्थान में मांस नहीं है वहाँ अधिक दबाना, केशाकर्षण, अद्भुत, भ्रष्टप्राप्त, अमार्गप्रयात, अतिभुग्नक, अदेशाहत, अत्यर्थ और अवसुप्तप्रतीपक, जो इन दोषों से रहित है, योग्य देश में प्रयुक्त है तथा अभिप्राय को जान कर किया गया है ऐसा सुकुमार संवाहन अत्यंत शोभास्पद होता है ।।77-79।। जो संवाहन क्रिया अनेक कारण अर्थात् आसनों से की जाती है वह चित्त को सुख देने वाली शथ्योपचारिका नाम की क्रिया जाननी चाहिए ।।80।। अंग-प्रत्यंग से संबंध रखने वाली इस संवाहन कला को जिस प्रकार वह कन्या जानती थी उस प्रकार अन्य स्त्री नहीं जानती थी ।।81।। स्नान करना, शिर के बाल गूँथना तथा उन्हें सुगंधित आदि करना यह शरीर संस्कार वेष कौशल नाम की कला है सो वह कन्या इसे भी अच्छी तरह जानती थीं ।।82।। इस तरह सुंदर शील की धारक तथा विनय रूपी उत्तम आभूषण से सुशोभित वह कन्या इन्हें आदि लेकर लोगों के मन को हरण करने वाली समस्त कलाओं को धारण कर रही थी ।।83।।
कला गुण के अनुरूप उत्पन्न तथा लोगों के मन को आकृष्ट करने वाली उसकी कीर्ति तीनों लोकों में अद्वितीय अर्थात् अनुपम सुशोभित हो रही थी ।।84।। हे राजन्! अधिक कहने से क्या? संक्षेप में इतना ही सुनो कि उसके रूप का वर्णन सौ वर्षों में भी होना संभव नहीं है ।।85।। पिता ने विचार किया कि इसके योग्य वर कौन हो सकता है। अच्छा हो कि यह स्वयं ही अपनी इच्छानुसार वर को ग्रहण करे ।।86।। ऐसा निश्चय कर उसने स्वयंवर के लिए पृथ्वी पर के हरिवाहन आदि समस्त राजा एकत्रित किये। वे राजा स्वयंवर के पूर्व ही नाना प्रकार के विभ्रमों अर्थात् हाव—भावों से सुशोभित हो रहे थे ।।87।। राजा जनक के साथ घूमते हुए राजा दशरथ वहाँ जा पहुँचे। राजा दशरथ यद्यपि साधारण वेषभूषा में थे तो भी वे अपनी शोभा से उपस्थित अन्य राजाओं को आच्छादित कर वहाँ विराजमान थे ।।88।। सुसज्जित मंचों के ऊपर बैठे हुए उदार राजाओं का परिचय प्रतिहारी दे रही थी और मनुष्यों के लक्षण जानने में पंडित वह साध्वी कन्या घूमती हुई प्रत्येक राजा को देखती जाती थी। अंत में उसने अपनी दृष्टिरूपी नीलकमल की माला दशरथ के कंठ में डाली ।।89-90।। जिस प्रकार बगलों के बीच में स्थित राजहंस के पास हंसी पहुंच जाती है उसी प्रकार सुंदर हाव-भाव को धारण करने वाली वह कन्या राज समूह के बीच में स्थित राजा दशरथ के पास जा पहुँची ।।91।। उसने दशरथ को भावमाला से तो पहले ही ग्रहण कर लिया था फिर लोकाचार के अनुसार जो द्रव्यमाला डाली थी वह पुनरुक्तता को प्राप्त हुई थी ।।92।। उस मंडप में प्रसन्नचित्त के धारक कितने ही राजा जोर-जोर से कह रहे थे कि अहो! इस उत्तम कन्या ने योग्य तथा अनुपम पुरुष वरा है ।।92।। और कितने ही राजा अत्यंत धृष्टता के कारण कुपित हो अत्यधिक कोलाहल करने लगे ।।94।। वे कहने लगे कि अरे! प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न तथा महा भोगों से संपन्न हम लोगों को छोड़कर इस दुष्ट कन्या ने जिसके कुल और शील का पता नहीं ऐसे परदेशी किसी मनुष्य को वरा है सो इसका अभिप्राय दुष्ट है। इसके केश पकड़कर खींचो और इसे जबरदस्ती पकड़ लो ।।95-97।। ऐसा कहकर वे राजा बड़े-बड़े शस्त्र उठाते हुए युद्ध के लिए तैयार हो गये तथा क्रुद्ध चित्त होकर राजा दशरथ की ओर चल पड़े ।।98।।
तदनंतर कन्या के पिता शुभमति ने घबराकर दशरथ से कहा कि हे भद्र! जब तक मैं इन क्षुभित राजाओं को रोकता हूँ तब तक तुम कन्या को रथ पर चढ़ाकर कहीं अंतर्हित हो जाओ- छिप जाओ क्योंकि समय का ज्ञान होना सब नयों के शिर पर स्थित है अर्थात् सब नीतियों में श्रेष्ठ नीति है ।।99-100।। इस प्रकार कहने पर अत्यंत धीर-वीर बुद्धि के धारक राजा दशरथ ने मुस्कराकर कहा कि हे तात्! निश्चिंत रहो और अभी इन सबको भय से भागता हुआ देखो ।।101।। इतना कहकर वे प्रौढ़ घोड़ों से जूते रथ पर सवार हो शरदऋतु के मध्याह्न काल संबंधी सूर्य के समान अत्यंत भयंकर हो गये ।।102।। कैकया ने रथ के चालक सारथी को तो उतार दिया और स्वयं शीघ्र ही साहस के साथ चाबुक तथा घोड़ों की रास सँभालकर युद्ध के मैदान में जा खड़ी हुई ।।103।। और बोली कि हे नाथ! आज्ञा दीजिए, किसके ऊपर रथ चलाऊँ? आज मृत्यु किसके साथ अधिक स्नेह कर रही है? ।।104।। दशरथ ने कहा कि यहाँ अन्य क्षुद्र राजाओं के मारने से क्या लाभ है? अत: इस सेना के मस्तक स्वरूप प्रधान पुरुष को ही गिराता हूँ। हे चतुर वल्लभे! जिसके ऊपर यह चंद्रमा के समान सफेद छत्र सुशोभित हो रहा है इसी के सन्मुख रथ ले चलो ।।105-106।। ऐसा कहते ही उस धीर वीरा ने जिस पर सफेद छत्र लग रहा था तथा बड़ी भारी ध्वजा फहरा रही थी ऐसा रथ आगे बढ़ा दिया ।।107।। जिसमें पताका की कांतिरूपी बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ उठ रही थीं तथा दंपती ही जिसमें देवता थे ऐसे रथ रूपी अग्नि में हजारों योधारूपी पतंगे नष्ट होते हुए दिखने लगे ।।108।। दशरथ के द्वारा छोड़े बाणों से पीड़ित राजा एक दूसरे को लाँघते हुए क्षण-भर में पराङ्मुख हो गये ।।109।।
तदनंतर पराजित होने से लज्जित हुए राजाओं को हेमप्रभ ने ललकारा, जिससे वे लौटकर पुन: दशरथ के रथ को नष्ट करने का प्रयल करने लगे ।।110।। जो घोड़ों रथों हाथियों तथा पैदल सैनिकों से घिरे थे, सिंहनाद कर रहे थे तथा बहुत बड़े समूह के साथ वर्तमान थे ऐसे अनेक राजा अकेले राजा दशरथ को लक्ष्य कर तोमर, बाण, पाश, चक्र और कनक आदि शस्त्र बड़ी तत्परता से चला रहे थे ।।111-112।। बड़े आश्चर्य की बात थी कि राजा दशरथ एक रथ होकर भी दशरथ थे और उस समय तो अपने पराक्रम से शतरथ अथवा असंख्य रथ हो रहे थे ।।113।। चक्राकार धनुष के धारक राजा दशरथ ने जिनके खींचने और रखने का पता नहीं चलता था ऐसे बाणों से एक साथ शत्रुओं के शस्त्र छेद डाले ।।114।। जिसकी ध्वजा और छत्र कटकर नीचे गिर गये थे तथा जिसका वाहन थककर अत्यंत व्याकुल हो गया था ऐसे राजा हेमप्रभ दशरथ ने क्षणभर में रथरहित कर दिया ।।115।। तदनंतर जिसका मन भय से व्याप्त था ऐसा हेमप्रभ दूसरे रथ पर सवार हो अपने यश को मलिन करता हुआ शीघ्र ही भाग गया ।।116।। राजा दशरथ ने शत्रुओं तथा शस्त्रों को छेद डाला और अपनी तथा स्त्री की रक्षा की। उस समय एक दशरथ ने जो काम किया था वह अनंतरथ के योग्य था ।।117।। जो बाण रूपी जटाओं को हिला रहा था ऐसे दशरथ रूपी सिंह को देखकर योद्धारूपी हरिण आठों दिशाएँ पकड़कर भाग गये ।।118।। उस समय अपनी तथा शत्रु की सेना में यही जोरदार शब्द उठ रहा था कि अहो! इस मनुष्य की कैसी अद्भुत शक्ति है? और इस कन्या ने कैसा कमाल किया? ।।119।। उन्नत प्रताप को धारण करने वाले राजा दशरथ को लोग पहचान सके थे तो वंदीजनों के द्वारा घोषित जयनाद अथवा उनकी अनुपम शक्ति से ही पहचान सके थे ।।120।।
तदनंतर अन्य लोगों ने जहाँ कौतुक एवं मंगलाचार किये थे ऐसे कौतुकमंगल नामा नगर में राजा दशरथ ने कन्या का पाणिग्रहण किया ।।121।। तत्पश्चात् बड़े भारी वैभव से जिनका विवाहोत्सव संपन्न हुआ था ऐसे राजा दशरथ अयोध्या गये और राजा जनक मिथिलापुरी गये ।।122।। वहाँ हर्ष से भरे परिजनों ने बड़े वैभव से साथ राजा दशरथ का पुनर्जन्मोत्सव और पुनर्राज्याभिषेक किया ।।123।। जो सब प्रकार के भय से रहित थे तथा जिनकी आज्ञा को सब शिरोधार्य करते थे ऐसे पुण्यवान् राजा दशरथ स्वर्ग में इंद्र की तरह अयोध्या में क्रीड़ा करते थे ।।124।। वहाँ राजा दशरथ ने अन्य सपत्नियों तथा राजाओं के समक्ष पास बैठी हुई कैकया से कहा कि हे पूर्ण चंद्रमुखि प्रिये! जो वस्तु तुम्हें इष्ट हो वह कहो, मैं उसे पूर्ण कर दूँ। आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ ।।125-126।। यदि तुम उस समय बड़ी चतुराई से उस प्रकार रथ नहीं चलाती तो मैं एक साथ उठे हुए कुपित शत्रुओं के समूह को किस प्रकार जीतता? ।।127।। यदि अरुण सारथी नहीं होता तो समस्त जगत् में व्याप्त होकर स्थित अंधकार को सूर्य किस प्रकार नष्ट कर सकता? तदनंतर गुणग्रहण से उत्पन्न लज्जा के भार से जिसका मुख नीचा हो रहा था ऐसी कैकया ने बार बार प्रेरित होने पर भी किसी प्रकार यह उत्तर दिया कि हे नाथ! मेरी इच्छित वस्तु की याचना आपके पास धरोहर के रूप में रहे। जब मैं मांगुगी तब आप बिना कुछ कहे दे देंगे ।।128-130।। कैकया के इतना कहते ही पूर्णचंद्रमा के समान मुख को धारण करने वाले राजा दशरथ ने कहा कि हे प्रिये! हे स्थूलनितंबे! हे सौम्यवर्णे! तीन रंग के अत्यंत सुंदर, स्वच्छ एवं विशाल नेत्रों को धारण करने वाली! ऐसा ही हो ।।131।। राजा दशरथ ने अन्य लोगों से कहा कि अहो! महाकुल में उत्पन्न, कलाओं की पारगामिनी तथा महा भोगों से सहित इस कैकया की बुद्धि अत्यधिक नीति से संपन्न है कि जो इसने अपने वर की याचना धरोहर रूप कर दी ।।132।। यह पुण्य शालिनी धीरे धीरे विचारकर किसी अभिलषित उत्तम अर्थ को मांग लेगी ऐसा विचारकर उसके सभी इष्ट परिजन उस समय अत्यधिक परम आनंद को प्राप्त हुए थे ।।133।। गौतमस्वामी श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! मैंने बुद्धि के अनुसार तेरे लिए यह राजा दशरथ का सुवृत्तांत कहा है। अब इससे अपने उदार वंश को प्रकाशित करने वाले महा मानवों की उत्पत्ति का वर्णन सुन ।।134।। तीन लोक का वृत्तांत जानने के लिए विस्तार की आवश्यकता नहीं। अत: मैं संक्षेप से ही तेरे लिए यह कहता हूँ कि दुराचारी मनुष्य अत्यंत दुःख प्राप्त करते हैं और सूर्य के समान दीप्ति को धारण करने वाले सदाचारी मनुष्य सुख प्राप्त करते हैं ।।135।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में कैकया के वरदान का वर्णन करनेवाला चौबीससवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।24।।