ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 40
From जैनकोष
चालीसवां पर्व
अथानंतर केवली भगवान् के मुख से राम को चरम शरीरी जानकर समस्त राजाओं ने जयध्वनि के साथ स्तुति कर उन्हें नमस्कार किया ॥1॥ और उदार चित्त के धारक वंश स्थलपुर नगर के राजा सुरप्रभ ने लक्ष्मण तथा सीता सहित राम की भक्ति की ॥2॥ जो महलों के शिखरों की कांति से आकाश को धवल कर रहा था ऐसे नगर में चलने के लिए राजा ने राम से बहुत याचना की परंतु उन्होंने स्वीकृत नहीं किया ॥3॥ तब जो अतिशय रमणीय था, हिमगिरि के शिखर के समान था, जहाँ एक समान लंबे-चौड़े अच्छे रंग के मनोहर शिलातल थे, जो नाना वृक्षों और लताओं से व्याप्त था, नाना पक्षी जहाँ शब्द कर रहे थे, जो सुगंधित वायु से पूर्ण था, नाना प्रकार के पुष्पों और फलों से युक्त था, कमल और उत्पल के वनों से युक्त वापिकाओं से जो अत्यंत शोभित था, तथा सब ऋतुओं के साथ आकर वसंतऋतु जिसकी सेवा कर रही थी, ऐसे वंशधर पर्वत के शिखर पर शुद्ध दर्पणतल के समान उत्कृष्ट भूमि तैयार की गयी । उस भूमि पर पाँच वर्ण की धूलि से अनेक चित्राम बनाये गये थे ॥4-7॥ अनेक प्रकार के भावों से रमणीय चेष्टाओं को धारण करने वाली स्त्रियों ने वहाँ उसी पंचवर्ण की पराग से कुंद, अतिमुक्तकलता, मौलश्री, कमल, जुही, मालती, नागकेशर और सुंदर पल्लवों से युक्त अशोकवृक्ष, तथा इनके सिवाय सुंदर कांति और सुगंधि को धारण करने वाले बहुत से अन्य वृक्ष बनाये ॥8-9॥ चतुर, उत्तम चेष्टाओं के धारक, मंगलमय वार्तालाप में तत्पर और स्वामीभक्ति में निपुण मनुष्यों ने बड़ी तैयारी के साथ नाना चित्रों को धारण करने वाले बादली रंग के वस्त्र फैलाये, सैकड़ों सघन पताकाएँ फहरायीं ॥10-11॥ छोटी-छोटी घंटियों से युक्त सैकड़ों मोतियों की मालाएँ, चित्र-विचित्र चमर, मणिमय फानूस, दर्पण, तथा जिन पर सूर्य को किरणें प्रकाशमान हो रही थीं ऐसे अनेक छोटे-छोटे गोले ये सब ऊँचे-ऊंचे तोरणों तथा ध्वजाओं में लगाये ॥12-13॥ पृथिवी पर जहां-तहां विधिपूर्वक पूर्ण कलश रखे गये थे जो कमलिनी के वन में बैठे हुए हंसों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥14।। श्रीराम जहां-जहां चरण रखते थे वहाँ-वहाँं पृथिवीतल पर बड़े-बड़े कमल रख दिये गये थे ॥15॥ जहां-तहां मणियों और सुवर्ण से चित्रित तथा अतिशय सुखदायक स्पर्श को धारण करने वाले आसन और सोने के स्थान बनाये गये थे ॥16॥ लवंग आदि से सहित तांबूल, उत्तम वस्त्र, महा सुगंधित गंध और देदीप्यमान आभूषण जहां-तहां रखे गये थे ॥17॥ जो सब ओर से नाना प्रकार की भोजन- सामग्री से युक्त थीं तथा जिनमें रसोई घर अलग से बनाया गया था ऐसी सैकड़ों भोजन शालाएँ वहाँ निर्मित की गयी थीं ॥18॥ वहाँ की भूमि कहीं गुड़, घी और दही से पंकिल (कीच से युक्त) होकर सुशोभित हो रही थी तो कहीं कर्तव्य पालन करने में तत्पर आदर से युक्त मनुष्यों से सहित थी ।। 19 ।। कहीं मधुर आहार से तृप्त हुए पथिक अपनी इच्छा से बैठे थे तो कहीं निश्चिंतता के साथ गोष्ठी बनाकर एक दूसरे को प्रसन्न कर रहे थे ॥20॥ कहीं से हरे को धारण करने वाला और मदिरा के नशा में झूमते हुए नेत्रों से युक्त मनुष्य दिखाई देता था तो कहीं मौलश्री की सुगंधि को धारण करने वाली नशा से भरी स्त्री दृष्टिगत होती थी ॥21॥ कहीं नाट्य हो रहा था, कहीं संगीत हो रहा था, कहीं पुण्य चर्चा हो रही थी, और कहीं सुंदर विलासों से सहित स्त्रियां पतियों के साथ क्रीड़ा कर रही थीं ॥22॥ कहीं मुसकराते तथा लीला से सहित विट पुरुष जिन्हें धक्का दे रहे थे, ऐसी देव नर्तकियों के समान वेश्याएं सुशोभित हो रही थीं ॥23।। इस प्रकार सीता सहित राम-लक्ष्मण के जो क्रीड़ास्थल बनाये गये थे उनका वर्णन करने के लिए कौन मनुष्य समर्थ है ? ॥24॥ जिनके शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से सहित थे, जो उत्तमोत्तम मालाएँ और वस्त्र धारण करते थे, जो इच्छानुसार क्रीड़ा करते थे ॥25॥ और अखंड सौभाग्य को धारण करने वाली तथा पाप के समागम से रहित सीता वहाँ शास्त्र निरूपित चेष्टाओं से उज्ज्वल क्रीड़ा करती थी ॥26॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उस वंश गिरि पर जगत् के चंद्रस्वरूप राम ने जिनेंद्र भगवान् की हजारों प्रतिमाएं बनवायीं थीं ॥27॥ तथा जिनमें महा मजबूत खंभे लगवाये गये थे, जिनकी चौड़ाई तथा ऊँचाई योग्य थी, जो झरोखे, महलों तथा छपरी आदि की रचना से शोभित थे, जिनके बड़े-बड़े द्वार तोरणों से युक्त थे, जिनमें अनेक शालाएँ निर्मित थीं, जो परिखा से सहित थे, सफ़ेद और सुंदर पताकाओं से युक्त थे, बड़े-बड़े घंटाओं के शब्द से व्याप्त थे, जिन में मृदंग, बांसुरी और मुरज का संगीतमय उत्तम शब्द फैल रहा । था, जो झांझों, नगाड़ों, शंखों और भेरियों के शब्द से अत्यंत शब्दायमान थे और जिन में सदा ऐसे राम के बनवाये जिनमंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं ।।28-31॥ उन मंदिरों में सब लोगों के द्वारा नमस्कृत तथा सब प्रकार के लक्षणों से युक्त पंचवर्ण को जितप्रतिमाएं सुशोभित थीं ॥32॥
अथानंतर एक दिन कमललोचन राजा रामचंद्र ने लक्ष्मण से कहा कि अब आगे क्या करना है ? ॥33।। इस उत्तम पर्वत पर समय सुख से व्यतीत किया तथा जिनमंदिरों के निर्माण से उत्पन्न उज्ज्वल कीर्ति स्थापित की ॥34॥ इस राजा की सैकड़ों प्रकार की उत्तमोत्तम सेवाओं के वशीभूत होकर यदि यहीं रहते हैं तो संकल्पित कार्य नष्ट होता है ॥35॥ यद्यपि मैं सोचता हूँ कि मुझे इन भोगों से प्रयोजन नहीं है तो भी यह उत्तम भोगों को संतति क्षणभर के लिए भी नहीं छोड़ती है ॥36॥
जो कर्म इस लोक में किया जाता है उसका उपभोग पर लोक में होता है और पूर्वभव में किये हुए पुण्य कर्मों का फल इस भव में प्राप्त होता है ॥37॥ यहाँ रहते तथा सुख-संपदा को धारण करते हुए हमारे जो ये दिन बीत रहे हैं उनका फिर से आगमन नहीं हो सकता ॥38॥ हे लक्ष्मण ! तीव्र वेग से बहने वाली नदियों, आयु के दिन और यौवन का जो अंश चला गया वह चला ही गया फिर लौटकर नहीं आता ॥39।। कर्णरवा नदी के उस पार रोमांच उत्पन्न करने वाला तथा भूमि गोचरियों का जहाँ पहुंचना कठिन है ऐसा दंडकवन सुना जाता है ॥40॥ देशों से रहित उस वन में भरत की आज्ञा का प्रवेश नहीं है इसलिए वहाँ समुद्र का किनारा प्राप्त कर घर बनावेंगे ।।41।। जो आज्ञा हो इस प्रकार लक्ष्मण के कहने पर राम-लक्ष्मण और सीता तीनों ही इंद्र सदृश भोग छोड़कर वहाँ से निकल गये ॥42॥ वंशस्थविलपुर का राजा सुरप्रभ अपनी सेना के साथ बहुत दूर तक उन्हें पहुंचाने के लिए गया । राम-लक्ष्मण उसे बड़ी कठिनाई से लौटा सके । तदनंतर शोक को धारण करता हुआ वह अपने नगर में वापस आया ॥43।।
इधर जिसकी मेखलाएँ शोभा से संपन्न थीं, तथा जिसके शिखर अनेक धातुओं से युक्त थे ऐसा यह ऊँचा उत्तम पर्वत दिशाओं के समूह को लिप्त करने वाली जिनमंदिरों की पंक्ति से अतिशय सुशोभित होता था ॥44॥ चूंकि उस पर्वत पर रामचंद्र ने जिनेंद्र भगवान् के उत्तमोत्तम मंदिर बनवाये थे इसलिए उसका वंशाद्रि नाम नष्ट हो गया और सूर्य के समान प्रभा को धारण करने वाला वह पर्वत ‘रामगिरि’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ॥45॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य विरचित पद्मचरित में रामगिरि का
वर्णन करने वाला चालीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥40॥