ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 45
From जैनकोष
पैतालीसवां पर्व
अथानंतर इसी बीच में जिसका पहले उल्लेख किया गया था ऐसा खरदूषण का शत्रु विराधित, मंत्रियों और शूर-वीरों से सहित अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हो वहाँ आया ॥1॥ उसने महातेज से देदीप्यमान लक्ष्मण को अकेला युद्ध करते देख महापुरुष समझा और यह निश्चय किया कि इससे हमारे स्वार्थ की सिद्धि होगी ।। 2 ।। पृथिवीतल पर घुटने टेककर तथा मस्तक पर दोनों हाथ लगाकर परम विनय को धारण करने वाले विराधित ने नम्र होकर इस प्रकार कहा कि हे नाथ! मैं आपका भक्त हूँ । मुझे आप से कुछ निवेदन करना है सो सुनिए क्योंकि आप-जैसे महापुरुषों की संगति दुःखक्षय का कारण है ॥3-4॥ विराधित आधी बात ही कह पाया था कि लक्ष्मण ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहा कि हमारे पीछे खड़े हो जाओ ॥5॥
तदनंतर जो महा आश्चर्य से युक्त था और जिसे तत्काल महातेज उत्पन्न हुआ था ऐसा विराधित पुनः प्रणाम कर प्रिय वचन बोला कि इस महाशक्तिशाली एक शत्रु-खरदूषण को तो आप निवारण करो और युद्ध के आँगन में जो अन्य योद्धा हैं मैं उन सबको मृत्यु प्राप्त कराता हूँ ॥6-7 ।। इतना कहकर उसने शीघ्र ही खरदूषण की सेना को नष्ट करना प्रारंभ कर दिया । वह सेना के साथ लहलहाते शस्त्रों के समूह से युक्त हो खरदूषण की सेना की ओर दौड़ा ॥8॥ उसने जाकर कहा कि मैं राजा चंद्रोदर का पुत्र विराधित युद्ध में आतिथ्य पाने के लिए उत्सुक हुआ चिरकाल बाद आया हूँ ॥9॥ अब कहां जाइएगा ? जो युद्ध में शूर-वीर हैं वे अच्छी तरह खड़े हो जावें । आज मैं आप लोगों को वह फल दूंगा जो कि अत्यंत दारुण― कठोर यमराज देता है ॥10॥ इतना कहते ही दोनों ओर के योद्धाओं में वैर भरा तथा मनुष्यों का सहारा करने वाला बहुत भारी शस्त्रों का संपात होने लगा― दोनों ओर से शस्त्रों की वर्षा होने लगी ॥11 ।। पैदल पैदलों से, घुड़सवार घुड़सवारों से, गज सवार गज सवारों से और रथ सवार रथ सवारों के साथ भिड़ गये ॥12॥ तदनंतर जो परस्पर एक दूसरे को बला रहे थे जो अत्यंत हर्षित हो रहे थे, जो अत्यंत संकुल-व्यग्र थे और जिन्होंने एक दूसरे के बड़े-बड़े शस्त्र काट दिये थे ऐसे योद्धाओं के द्वारा उधर महायुद्ध हो रहा था इधर रण के मैदान में नवीन-नवीन परम तेज को धारण करने वाला लक्ष्मण, दिव्य धनुष उठाकर बाणों से दिशाओं और आकाश को व्याप्त करता हुआ खर के साथ उस तरह अत्यंत भयंकर युद्ध कर रहा था जिस तरह कि इंद्र दैत्येंद्र के साथ करता था ॥13-15॥ तदनंतर क्रोध से व्याप्त एवं चंचल और लाल-लाल नेत्रों को धारण करने वाले खरदूषण ने कठोर शब्दों में लक्ष्मण से कहा कि हे अतिशय चपल पापी ! मेरे निर्वैर पुत्र को मारकर तथा मेरी स्त्री के स्तनों का स्पर्श कर अब तू कहाँ जाता है ? ॥16-17॥ आज तीक्ष्ण बाणों से तेरा जीवन नष्ट करता हूँ । तूने जैसा कम किया है वैसा फल भोग ।। 18 ।। हे अत्यंत क्षुद्र ! निर्लज्ज ! परस्त्री संग का लोलप ! अब मेरे सम्मुख आकर परलोक को प्राप्त हो ॥19॥
तदनंतर उन कठोर वचनों से जिनका मन प्रदीप्त हो रहा था ऐसे लक्ष्मण ने समस्त आकाश को गुंजाते हुए निम्नांकित वचन कहे । उन्होंने कहा कि रे क्षुद्र विद्याधर ! तू कुत्ते के समान व्यर्थ ही क्यों गरज रहा है ? मैं जहाँ तेरा पुत्र गया है वहीं तुझे पहुंचाता हूँ ॥20-21।। इतना कहकर लक्ष्मण ने आकाश में स्थित खरदूषण को रथरहित कर दिया, उसका धनुष और पता का काट डाली तथा उसे निष्प्रभ कर दिया ॥22॥ तदनंतर जिस प्रकार पुण्य के क्षीण होने पर चंचल शरीर को धारण करने वाला ग्रह पृथिवी पर आ पड़ता है उसी प्रकार क्रोध से लाल-लाल दिखने वाला खरदूषण आकाश से पृथिवी पर नीचे आ पड़ा ॥23॥ खड̖ग की किरणों से जिसका शरीर व्याप्त हो रहा था ऐसा खरदूषण लक्ष्मण की ओर दौड़ा और लक्ष्मण भी सूर्यहास खड̖ग खींचकर उसके सामने जा डटे ꠰꠰24꠰꠰ इस प्रकार उन दोनों में निकट से नाना प्रकार का भयंकर युद्ध हुआ तथा स्वर्ग में स्थित देवों ने साधु-साधु धन्य-धन्य शब्दों के साथ उनपर पुष्पों की वर्षा की ॥25 ।। उसी समय अखंडित शरीर के धारक लक्ष्मण ने कुपित हो खरदूषण के सिर पर यथार्थ नाम वाला सूर्यहास खड̖ग गिराया ॥26॥
जिससे वह निर्जीव होकर चित्रलिखित सूर्य के समान उस तरह पृथिवी पर आ पडा जिस तरह कि स्वर्ग से च्युत हुआ कोई देव पृथिवी पर आ पड़ता है ।। 27।। पृथिवी पर पडा निर्जीव खरदूषण ऐसा जान पड़ता था मानो निश्चेष्ट शरीर का धारक कामदेव ही हो अथवा दिग्गज के द्वारा गिराया हुआ रत्न गिरि का एक खंड ही हो ॥28॥
तदनंतर खरदूषण का दूषण नामक सेनापति चंद्रोदर राजा के पुत्र विराधित को रथरहित करने के लिए उद्यत हुआ॥29॥ उसी समय लक्ष्मण ने उसके मर्मस्थल में बाण से इतनी गहरी चोट पहुँचायी कि बेचारा घूमता हुआ पृथिवी पर आ गिरा और तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥30॥ तदनंतर खरदूषण की वह समस्त सेना विराधित के लिए देकर प्रीति से भरे लक्ष्मण उस स्थानपर गये जहाँ श्रीराम विराजमान थे ।। 31 ।। जाते ही लक्ष्मण ने सीता रहित राम को पृथिवी पर सोते हुए देखा । देखकर लक्ष्मण ने कहा कि हे नाथ ! उठो और कहो कि सीता कहाँ गयी हैं ? ॥32॥ राम सहसा उठ बैठे और लक्ष्मण को घाव रहित शरीर का धारक देख कुछ हर्षित हो उनका आलिंगन करने लगे ॥33 ।। उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि हे भद्र ! मैं नहीं जानता हूँ कि देवी को क्या किसी ने हर लिया है या सिंह ने खा लिया है । मैंने इस वन में बहुत खोजा पर दिखी नहीं ॥34॥ उसे कोई पाताल में ले गया है या आकाश के शिखर में पहुँचा दी गयी है अथवा वह सुकुमारांगी भय के कारण विलीन हो गयी है ।। 35 ।। तदनंतर जिनका शरीर क्रोध से व्याप्त था ऐसे लक्ष्मण ने विषाद युक्त होकर कहा कि है देव ! उद्वेग की परंपरा बढ़ाने से कुछ प्रयोजन नहीं है ॥36 ।। जान पड़ता है कि जान की किसी दैत्य के द्वारा हरी गयी है सो कोई भी क्यों नहीं इसे धारण किये हो मैं अवश्य ही प्राप्त करूँगा इसमें संशय नहीं करना चाहिए ॥37॥ इस प्रकार कानों को प्रिय लगने वाले विविध प्रकार के वचनों से सांत्वना देकर बुद्धिमान् लक्ष्मण ने निर्मल जल से राम का मुख धुलाया ॥38॥ तदनंतर उस समय अतिशय उच्च शब्द सुन कुछ-कुछ संभ्रम को धारण करने वाले रामने ऊपर की ओर मुख कर लक्ष्मण से पूछा कि क्या यह पृथिवी शब्द कर रही है या आकाश से यह शब्द आ रहा है ? क्या तुमने पहले मेरे द्वारा छोड़े हुए शत्रु को शेष रहने दिया है ? ।।39-40॥
तदनंतर लक्ष्मण ने कहा कि हे नाथ ! इस महायुद्ध में विद्याधर ने समय पर मेरा बड़ा उपकार किया है । वह विद्याधर राजा चंद्रोदर का पुत्र विराधित है जो हितकारी दैव के द्वारा ही मानो अवसर पर मेरे समीप भेजा गया था ।। 41-42॥ उत्तम हृदय को धारण करने वाला वह विद्याधर चार प्रकार की बड़ी भारी सेना के साथ आपके पास आ रहा है सो यह महान् शब्द उसी का सुनाई दे रहा है ॥43 ।। इधर विश्वस्त चित्त के धारक राम-लक्ष्मण के बीच जब तक यह कथा चलती है तब तक बड़ी भारी सेना के साथ विराधित वहाँ आ पहुँचा ॥44॥ तदनंतर विद्याधरों के राजा विराधित ने नम्रीभूत मंत्रियों के साथ-साथ हाथ जोड़कर तथा जय-जय शब्द का उच्चारण कर कहा कि आप मनुष्यों में उत्तम उत्कृष्ट स्वामी चिरकाल बाद प्राप्त हुए हो सो करने योग्य कार्य के विषय में मुझे आज्ञा दीजिए ॥45-46 ।। इस प्रकार कहने पर लक्ष्मण ने कहा कि हे सज्जन ! सुनो, किसी दुराचारी ने मेरे अग्रज― राम की पत्नी हर ली है सो उससे रहित राम, शोक के वशीभूत हो यदि प्राण छोड़ते हैं तो मैं निश्चय हो अग्नि में प्रवेश करूंगा ।। 47-48 ।। क्योंकि हे भद्र ! तुम यह निश्चित जानो कि मेरे प्राण इन्हीं के प्राणों के साथ मजबूत बंधे हुए हैं इसलिए इस विषय में कुछ उत्तम उपाय करना चाहिए ॥49॥ तब विद्याधरों का राजा विराधित नीचा मुख कर कुछ विचार करने लगा कि अहो! इतना श्रम करने पर भी मेरी आशा पूर्ण नहीं हुई ॥50 ।। मैं पहले सुख से इच्छानुसार निवास करता था फिर स्थानभ्रष्ट हो नाना वनों में भ्रमण करता रहा । अब मैंने अपने आपको इनको शरण में सौंपा सो देखो ये स्वयं कष्टकारी संशय के गर्त में पड़ रहे हैं ॥51॥ दुःखरूपी सागर के तट को प्राप्त हुआ मैं जिस-जिस लता को पकड़ता हूँ सो दैव के द्वारा वही-वही लता उखाड़ दी जाती है, वास्तव में समस्त संसार कर्मों के अधीन है ॥52 ।। यद्यपि ये अपने कर्म के अनुसार हमारा भला या बुरा कुछ भी करें तो भी मैं उत्साह धारण कर इनके इस उपस्थित कार्य को अवश्य करूंगा ॥53॥ इस प्रकार अंतरंग में विचारकर उत्साह को धारण करते हुए धीर वीर विराधित ने तेजपूर्ण वचनों में मंत्रियों से कहा कि इन महामानव की पत्नी महीतल, आकाश, पर्वत, जल, स्थल, वन अथवा नगर में कहीं भी ले जायी गयी हो यत्नपूर्वक समस्त दिशाओं में सब ओर से उसकी खोज करो । हे महायोद्धाओ ! खोज करने पर तुम लोग जो चाहोगे वह प्रदान करूँगा ॥54-56॥ इस प्रकार कहने पर हर्ष से युक्त, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, परमतेज के धारक, नाना प्रकार की वेष-भूषा से सुशोभित और यश के इच्छुक विद्याधर दशों दिशाओं में गये ॥57।।
अथानंतर अर्कजटी के पुत्र रत्नजटी नामक खड̖गधारी विद्याधर ने दूर से शीघ्र ही रोने का शब्द सुना ॥58॥ जिस दिशा से रोने का शब्द आ रहा था उसी दिशा में जाकर उसने समुद्र के ऊपर आकाश में हा राम ! हा कुमार लक्ष्मण ! इस प्रकार का शब्द सुना ॥59॥ विलाप के साथ आते हुए उस अत्यंत स्पष्ट शब्द को सुनकर जब वह उस स्थान की ओर उड़ा तब उसने एक विमान देखा ॥60 ।। उस विमान के ऊपर विलाप करती हुई अतिशय विह्वल सीता को देखकर वह क्रोध युक्त हो बोला कि अरे ठहर-ठहर, महापापी दुष्ट नीच विद्याधर ! ऐसा अपराध कर अब तू कहाँ जाता है ? ॥61-62॥ हे दुर्बुद्धे ! यदि तुझे जीवन इष्ट है तो रामदेव को स्त्री और भामंडल की बहन को शीघ्र ही छोड़ ॥63॥ तदनंतर कर्कश शब्द कहने वाले रत्नजटी के प्रति कर्कश शब्दों का उच्चारण कर क्रोध से भरा तथा विह्वल चित्त का धारक रावण युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥64 । फिर उसने विचार किया कि युद्ध होनेपर मैं इस विह्वल सीता को देख नहीं सकूँगा और उस दशा में संभव है कि यह कदाचित् मृत्यु को प्राप्त हो जाये और यदि इस घबड़ायी हुई सीता की रक्षा भी करता रहूँगा तो अत्यंत व्याकुल चित्त होने के कारण, यद्यपि यह विद्याधर क्षुद्र है तो भी मेरे द्वारा मारा नहीं जा सकेगा॥65-66 ।। इस प्रकार विचारकर हड़बड़ाहट के कारण जिसके मुकुट और उत्तरीय वस्त्र शिथिल हो गये थे ऐसे बलवान् रावण ने आकाश में स्थित रत्नजटी विद्याधर को विद्या हर ली ॥67॥
अथानंतर भयभीत रत्नजटी किसी मंत्र के प्रभाव से उल्का के समान धीरे-धीरे पृथ्वी पर आ पडा ॥68॥ जिसका जहाज डूब गया है ऐसे वणिक् के समान वह आयु का अस्तित्व शेष रहने के कारण समुद्र जल के मध्य में स्थित कंबु नामक द्वीप में पहुँचा ॥69।। वहाँ वह क्षण-भर निश्चल बैठा फिर बार-बार लंबी सांस लेकर वह कंबु पर्वत पर चढ़कर दिशाओं को ओर देखने लगा ॥7॥ तदनंतर समुद्र की शीतल वायु से जिसका परिश्रम और पसीना दूर हो गया था ऐसा दुःखी रत्नजटी कुछ संतुष्ट हुआ ॥71 ।। जो अन्य विद्याधर सीता की खोज करने के लिए गये थे वे शक्ति-भर खोज कर राम के समीप वापस पहुंचे । उस समय प्रयोजन की सिद्धि नहीं होने से उनके मुख का तेज नष्ट हो गया था ॥72॥ जिनके नेत्र पृथ्वी पर लग रहे थे ऐसे उन विद्याधरों का मन शून्य जानकर म्लान नेत्रों के धारक राम ने लंबी और गरम सांस भरकर कहा कि हे धन्य विद्याधरो ! आप लोगों ने अपनी शक्ति न छोड़ते हुए हमारे कार्य में प्रयत्न किया है पर मेरा भाग्य ही विपरीत है ॥73-74 ।। अब आप लोग अपनी इच्छानुसार बैठिए अथवा अपने-अपने घर जाइए । जो रत्न हाथ से छुटकर बडवानल में जा गिरता है वह क्या फिर दिखाई देता है ? ॥75॥ निश्चय ही जो कल कर्म मैंने किया है उसका फल प्राप्त करने योग्य है उसे न आप लोग अन्यथा कर सकते हैं और न मैं भी अन्यथा कर सकता हूँ॥76 ।। मैंने भाई-बंधुओं से रहित, कष्टकारी दूरवर्ती वन का आश्रय लिया सो वहाँ भी भाग्यरूपी शत्रु ने मुझ पर दया नहीं की ॥77॥ जान पड़ता है कि यह उत्कट दुर्दैव मेरे पीछे लग गया है सो इससे अधिक दुःख और क्या करेगा? ॥78 ।। इस प्रकार कहकर राम विलाप करने लगे तब सांत्वना देने में निपुण विराधित ने बड़ी धीरता से कहा कि हे देव ! आप इस तरह अनुपम विषाद क्यों करते हैं ? आप थोड़े ही दिनों में निष्पाप शरीर की धारक प्रिया को देखेंगे ॥79-80॥ यथार्थ में यह शोक कोई बड़ा भारी विष का भेद है जो आश्रित शरीर को नष्ट कर देता है अन्य वस्तुओं की तो चर्चा ही क्या है ? ॥81॥ इसलिए महापुरुषों के द्वारा सेवित धैर्य का अवलंबन कीजिए । आप-जैसे उत्तम-पुरुष विवेक की उत्पत्ति के उत्तम क्षेत्र है ।। 82॥ धीरवीर मनुष्य यदि जीवित रहता है तो बहुत समय बाद भी कल्याण को देख लेता है और जो तुच्छ बुद्धि का धारी अधीर मनुष्य है वह कष्ट भोगकर भी कल्याण को नहीं देख पाता है ।। 83॥ यह विषाद करने का समय नहीं है कार्य करने में मन दीजिए क्योंकि उदासीनता बड़ा अनर्थ करने वाली है ॥84॥ विद्याधरों के राजा खरदूषण के मारे जाने पर दूसरी बात हो गयी है और जिसका फल अच्छा नहीं होगा ऐसा आप समझ लीजिए ॥85॥ किष्किंधापुरी का राजा सुग्रीव, इंद्रजित, भानुकर्ण, त्रिशिरा, क्षोभण, भीम, क्रूरकर्मा और महोदर आदि बड़े-बड़े योद्धा जो नाना विद्याओं के धारक तथा महा तेजस्वी हैं इस समय अपने मित्र―खरदूषण के कुटुंबी जनों के दुःख से क्षोभ को प्राप्त होंगे॥86-87॥ इन सब योद्धाओं ने नाना प्रकार के हजारों युद्धों में सुयश प्राप्त किया है तथा विजयार्ध पर्वत पर रहने वाला विद्याधरों का राजा भी इन्हें वश नहीं कर सकता ॥88॥ पवनंजय का पुत्र हनुमान् अतिशय प्रसिद्ध है जिसकी वानर चिह्नित ध्वजा देखकर शत्रुओं के झुंड दूर से ही भाग जाते हैं ॥89॥ दैवयोग से देव भी उसका सामना कर विजय की अभिलाषा छोड़ देते हैं यथार्थ में वह कोई अद्भत महायशस्वी पुरुष है ॥90 । इसलिए उठिए , अलंकारपुर नामक सुरक्षित स्थान का आश्रय लें वहीं निश्चिंतता से रहकर भामंडल की बहन का समाचार प्राप्त करें ॥91॥ वह अलंकारपुर पृथिवी के नीचे है और हम लोगों की वंश-परंपरा से चला आया है उसी दुर्गम स्थान में स्थित रहकर हम लोग यथायोग्य कार्य को चिंता करेंगे ॥92॥ इस प्रकार कहने पर चार चतुर घोड़ों से जुते हुए उत्तम देदीप्यमान रथ पर सवार होकर राम-लक्ष्मण ने प्रस्थान किया ॥93 ।। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित ज्ञान और चारित्र सुशोभित नहीं होते हैं उसी प्रकार उस समय सीता से रहित राम और लक्ष्मण सुशोभित नहीं हो रहे थे ।। 94॥ चार प्रकार को महासेनारूपी सागर से घिरा विराधित शीघ्रता करता हुआ उनके आगे स्थित था ॥95॥ जब तक वह पहुँचा तब तक चंद्रनखा का पुत्र नगर के द्वार से निकलकर युद्ध करने लगा सो उसे पराजित कर वह परम सुंदर नगर के भीतर प्रविष्ट हुआ ॥96॥ वह नगर देवों के निवास स्थान के समान रत्नों से देदीप्यमान था । वहाँ जाकर विराधित तथा राम-लक्ष्मण खरदूषण के भवन में यथायोग्य निवास करने लगे ॥97 ।। यद्यपि वह भवन देवभवन के समान था तो भी राम सीता के चले जाने से वहाँ रंच मात्र भी धैर्य को प्राप्त नहीं होते थे― वहाँ उन्हें सीता के बिना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था ॥98॥ स्त्री के समागम में वन भी रमणीयता को प्राप्त होता है और स्त्री के वियोग से जलते हुए मनुष्य को सब कुछ विंध्य वन के समान जान पड़ता है ॥99 ।।
अथानंतर वृक्षों के समूह से सुशोभित, उस भवन के एकांत स्थान में अनुपम मंदिर देखकर राम वहाँ गये ॥100 ।। उस मंदिर में रत्न तथा पुष्पों से जिसकी पूजा को गयी थी ऐसी जिनेंद्र प्रतिमा के दर्शन कर वे क्षण-भर सब संताप भूलकर परम धैर्य को प्राप्त हुए ॥101॥ उस मंदिर में इधर-उधर जो और भी प्रतिमाएँ थीं उनके दर्शन करते तथा नमस्कार करते हुए राम वहाँ रहने लगे । जिनेंद्र प्रतिमाओं के दर्शन करने से उनके दुःख की लहरें कुछ शांत हो गयी थीं ।। 102॥ पिता और भाई के मरने से जिसे शोक हो रहा था ऐसा सुंद, अपनी सेना से सुरक्षित होता हुआ माता चंद्रनखा के साथ लंका में चला गया ॥103 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि इस प्रकार जो नाना प्रकार के दुःखदायी उपायों से प्राप्त करने योग्य हैं तथा अनेक प्रकार के दुर्निवार से युक्त हैं ऐसे इन परिग्रहों को नश्वर जानकर हे भव्यजनो ! उनमें अभिलाषा मत करो ॥104॥ यद्यपि पूर्व कर्मोदय से प्राणियों के परिग्रह संचित करने की आशा होती है तो भी मुनि-समूह के उपदेश से ज्ञान प्राप्त कर वह आशा उस तरह नष्ट हो जाती है जिस तरह कि सूर्य से प्रकाश पाकर रात्रि नष्ट हो जाती है ॥105॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मचरित में सीता के वियोग जन्य
दाह का वर्णन करने वाला पैतालीसवां पर्व समाप्त हुआ ॥45॥