ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 47
From जैनकोष
सैतालीसवां पर्व
अथानंतर किष्किंधापुर का स्वामी सुग्रीव स्त्री के विरह से दुःखी हो भ्रमण करता हुआ जहाँ कि खरदूषण तथा लक्ष्मण का युद्ध हुआ था ॥1॥ वहाँ आकर उसने देखा कि कहीं टूटे हुए रथ पड़े हैं, कहीं मरे हुए हाथी पड़े हैं, कहीं जिनके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये हैं, ऐसे घोड़ों के साथ सामंत पड़े हैं ।। 2 ।। कहीं कोई राजा जल रहे हैं, कोई साँसें भर रहे हैं, कहीं स्वामी के पीछे मरण करने वाले स्वामिभक्त सुभट पड़े हैं ॥3॥ किन्हीं की आधी भुजा कट गयी है, किन्हीं की आधी जांघ टूट चुकी है, किन्हीं की आंतों का समूह निकल आया है, किन्हीं के मस्तक फट गये हैं, किन्हीं को शृंगाल घेरे हुए हैं, किन्हीं को पक्षी खा रहे हैं और किन्हीं के मृत शरीर को रोते हुए कुटुंबीजन आच्छादित कर रहे हैं ॥4-5॥ यह क्या है ? इस प्रकार पूछने पर किसी ने उसे बताया कि सीता का हरण हो चुका है और जटायु तथा खरदूषण मारे गये हैं ॥6॥
तदनंतर खरदूषण की मृत्यु से किष्किंधपति सुग्रीव बहुत दुःखी हुआ, वह आकुल होता हुआ इस प्रकार चिंता करने लगा कि हाय मैंने विचार किया था कि मैं उस बलशाली के लिए निवेदन कर स्त्री संबंधी शोक से छूट जाऊंगा इसी बड़ी आशा से मैं यहाँ आया था पर मेरे भाग्यरूपी हाथी ने उस आशारूपी महावृक्ष को कैसे गिरा दिया । हाय अब मुझ पापी को किस प्रकार शांति होगी ॥7-9॥ क्या अब मैं आदर के साथ हनुमान् का आश्रय लूँ जिससे वह मेरे समानरूप का धारण करने वाले मायामयी सुग्रीव का भरण कर सके ॥10॥ उद्योग से रहित मनुष्यों को सुख कैसे प्राप्त हो सकता है, इसलिए मैं दुःख का नाश करने के लिए उत्तम उद्योग का आश्रय लेता हूँ ॥11॥ अथवा हनुमान् को अनेक बार देखा है अतः वह अनादर करेगा क्योंकि नवीन चंद्रमा ही लोगों के द्वारा अनुराग के साथ वंदनीय होता है अन्य समय नहीं ॥12॥ इसलिए महाबलवान्, देदीप्यमान और महाविद्याओं में निपुण रावण की शरण में जाता हूँ वही मुझे शांति प्रदान करेगा ॥13॥ अथवा जिसका मन क्रोध से प्रेरित हो रहा है ऐसा रावण, विशेष को न जानता हुआ कदाचित् हम दोनों को ही मारने की इच्छा करे तो उलटा अनर्थ हो जायेगा ॥14॥ इसके साथ नीति भी यह कहती है कि दुष्ट मित्रों के लिए, मंत्र दोष, असत्कार, दान, पुण्य, अपनी शूर-वीरता, दुष्ट स्वभाव और मन की दाह नहीं बतलानी चाहिए ॥15॥ इसलिए जिसने युद्ध में खरदूषण को मारा है उसी के शरण में जाता हूँ, वही मेरे लिए शांति उत्पन्न करेगा ।। 16 ।। राम को भी स्त्री का विरह हुआ है और मैं भी स्त्री के विरह से दुःखी हूँ इसलिए एक समान दुःख होने से यह समय उनके पास जाने के योग्य है क्योंकि पृथिवी पर समान अवस्था वाले मनुष्य सद्भाव-पारस्परिक प्रीति को प्राप्त होते हैं ।। 17 ।। ऐसा विचार कर जिसे सब ओर से उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई थी ऐसे सुग्रीव ने विराधित को अनुकूल करने के लिए उसके पास अपना दूत भेजा ॥18।। जब दूत ने सुग्रीव के आगमन का समाचार कहा तब विराधित आश्चर्य और संतोष से युक्त होकर मन में यह विचार करने लगा कि आश्चर्य है सुग्रीव तो हमारे द्वारा सेवा करने योग्य है फिर भी वह हमारी सेवा कर रहा है सो ठीक ही है क्योंकि आश्रय को सामर्थ्य से मनुष्यों के क्या नहीं होता है ? ॥19-20॥
तदनंतर मेघ के समान दुन्दुभि का शब्द सुनकर पाताल नगर, ( अलंकारपुर ), भय से व्याकुल हैं महाजन जिसमें ऐसा हो गया ।। 21 ।। तत्पश्चात् लक्ष्मण ने विराधित से पूछा कि कहो कि यह किसकी तुरही का शब्द सुनाई दे रहा है ? ॥22॥ इसके उत्तर में विराधित ने कहा कि हे देव ! यह महाबल से सहित, वानरवंशियों का स्वामी सुग्रीव प्रेम से युक्त हो आपके पास आया है ।। 23 ।। बालि और सुग्रीव ये दोनों भाई किष्किंधा नगरी के स्वामी हैं, राजा सहस्र रश्मि रज के पुत्र हैं तथा पृथिवी पर अत्यंत प्रसिद्ध हैं ॥24॥ इनमें जो बालि नाम से प्रसिद्ध था वह शील, शूर-वीरता आदि गुणों से विख्यात था तथा अभिमान के लिए मानो सुमेरु ही था, उसने रावण को नमस्कार नहीं किया था ॥25॥ अंत में परम प्रबोध को प्राप्त हो तथा राज्यलक्ष्मी सुग्रीव के अधीन कर वह सर्व परिग्रह से रहित तपोवन में प्रविष्ट हो गया ॥26॥ सुग्रीव भी अपनी सुतारा नामक स्त्री में अत्यंत आसक्त हो राज्यलक्ष्मी सहित निष्कंटक राज्य में इस प्रकार क्रीड़ा करता था जिस प्रकार कि इंद्राणी सहित इंद्र क्रीड़ा करता है ॥27॥ उस सुग्रीव का गुणरूपी रत्नों से विभूषित अंगद नाम का ऐसा पुत्र है कि किष्किंधा देश में जिसकी कथा अन्य कथाओं से रहित है अर्थात् अन्य लोगों की कथा छोड़कर संपूर्ण किष्किंधा देश में उसी एक को कथा होती है ॥28॥ इस प्रकार अनन्य चित्त के धारक लक्ष्मण तथा विराधित के बीच जब तक यह वार्ता चल रही थी कि तब तक सुग्रीव राजभवन में आ पहुंचा ॥29॥ राजा के अधिकारी लोगों ने ज्ञात होने पर उसके प्रति बहुत आदर दिखलाया । तदनंतर अनुमति पाकर उसने मंगलाचार का अवलोकन करते हुए राजभवन में प्रवेश किया ॥30॥ हे राजन् ! जिन्हें आश्चर्य प्राप्त हो रहा था तथा जिनके मुखकमल कांति से खिल रहे थे ऐसे लक्ष्मण आदि ने उसका आलिंगन किया।।31 ।। शिष्टाचार के उपरांत सब विधिपूर्वक स्वर्णमय पृथिवी तल पर बैठे और अमृत तुल्य वाणी से परस्पर वार्तालाप करने लगे ॥32॥
तदनंतर वृद्धजनों ने राजा रामचंद्र के लिए परिचय दिया कि हे देव ! यह किष्किंध नगर का राजा सुग्रीव है ॥33॥ यह महाऐश्वर्यशाली, महाबलवान्, भोगी, गुणवान् तथा सज्जनों को अतिशय प्यारा है । परंतु किसी दुष्ट मायावी विद्याधर ने इसे अनर्थ― आपत्ति में डाल दिया है ॥34॥ कोई दुर्बुद्धि विद्याधर इसका रूप धर इसके राज्यभोग, नगर, सेना तथा इसकी प्रिया सुतारा को भी ग्रहण करना चाहता है ॥35।। तदनंतर वृद्धजनों के उक्त वचन पूर्ण होने के बाद राम, सुग्रीव के सम्मुख उसकी ओर देखने लगे । राम ने मन में विचार किया कि अरे ! यह तो मुझसे भी अधिक दुःखी है ॥36॥ यह मेरे समान है अथवा मैं समझता हूँ कि यह मुझसे भी कहीं अधिक हीनता को प्राप्त है क्योंकि इसका शत्रु तो इसके सामने ही बाधा पहुंचा रहा है ॥37॥ इसका यह कार्य अत्यंत कठिन है सो किस प्रकार होगा । इसकी यह बड़ी हानि हो रही है मेरा जैसा व्यक्ति क्या करेगा ? ॥38॥ लक्ष्मण ने सुग्रीव के मन के समान जो जांबूनद नामक धीर-वीर मंत्री था उससे दुःख का समस्त कारण पूछा ॥39।।
तदनंतर मंत्रियों में मुख्य जांबूनद ने बड़ी विनय से मायामय सुग्रीव और वास्तविक सुग्रीव का अंतर बताया ॥40॥ उसने कहा कि हे राजन् ! अतिशय दारुण कामरूपी लता के पाश से विवश तथा सुतारा के रूप से मोहित कोई पापी विद्याधर माया से इसका रूप बनाकर मंत्रीवर्ग तथा समस्त परिजनों के बिना जाने, संतुष्ट हो सुग्रीव के अंतःपुर में प्रविष्ट हुआ ॥41-42॥ उसे प्रवेश करते देख सुतारा नाम की परम सती महादेवी ने भयभीत होकर अपने परिजन से कहा कि जिसकी आत्मा पाप से पूर्ण है, तथा जो उत्तम लक्षणों से रहित है ऐसा यह कोई दुष्ट विद्याधर सुग्रीव का वेष रखकर आता है अतः पहले की तरह तुम लोग इसका सत्कार नहीं करो । यह दुर्नयरूपी सागर किसी उपाय से तिरने योग्य है― पार करने योग्य है ॥43-45 ।। तदनंतर जिसकी आत्मा शंका से रहित थी, जो गंभीर था और लीला से सहित था ऐसा वह मायामय विद्याधर सुग्रीव के समान जाकर उसके सिंहासन पर आ बैठा ॥46॥ इसी बीच में बाली राजा का अनुज वास्तविक सुग्रीव, यथाक्रम से वहाँ आया । आते ही उसने अपने परिजन को दीन देखकर व्यग्र हो उनसे पूछा कि ये हमारे परिजन, अत्यंत म्लान मुख एवं म्लान नेत्र होकर विषाद क्यों धारण कर रहे हैं तथा स्थान-स्थानपर इकट्ठे हो रहे हैं ? ।। 47-48॥ वंदना की अभिलाषा से अंगद सुमेरु पर्वत पर गया था सो क्या आने में विलंब कर रहा है अथवा महादेवी प्रमाद के कारण किसी पर रोष को प्राप्त हुई है ? ।। 49 ।। अथवा जन्म, मृत्यु और जरा से अत्यंत उग्र संसार के नाना दु:खों से भयभीत होकर विभीषण तपोवन को प्राप्त हुआ है ॥50॥ इस प्रकार चिंता करता हुआ सुग्रीव, मणियों के तेज से देदीप्यमान तथा उत्तमोत्तम तोरणों से संयुक्त उन समस्त द्वारों को उल्लंघन कर महल के भीतर प्रविष्ट हुआ कि जो संगीतमय वार्तालाप से रहित थे, सब ओर से संतप्त हुए के समान जान पड़ते थे, जिनके द्वारपाल शंका से युक्त थे तथा जो अन्यरूपता को प्राप्त हुए के समान जान पडते थे ॥51-52॥ जब उसने महल के उत्तम मध्यभाग में अपनी लंबी दृष्टि डाली तो उसने स्त्री जनों के पास बैठे हुए अपनी ही समान आभा वाले एक दुष्ट विद्याधर को देखा ।। 53 ।। जो दिव्य हार और वस्त्रों को धारण कर रहा था, परम शोभा का धारक था, चित्र-विचित्र आभूषणों से युक्त था, तथा कांति से जिसका मुखकमल विकसित हो रहा था ऐसे दुष्ट विद्याधर को सामने देख सुग्रीव, क्रुद्ध होकर संध्या के मेघ समान लाल नेत्रों की कांति को दिशाओं में फैलाता हुआ वर्षा ऋतु के मेध के समान गरजा ॥54-55॥ तदनंतर सुग्रीव के समान रूप को धारण करने वाला विद्याधर भी क्रोध से रक्त मुख हो हाथी के ससान मद से विह्वल होता और कठोर गर्जना करता हुआ उठा ॥56॥
अथानंतर ओठों को डँसते हुए उन दोनों बलवानों को युद्ध के लिए उद्यत देख श्रीचंद्र आदि मंत्रियों ने शांतिपूर्वक शीघ्र ही उन्हें रोक दिया ।।57।। तत्पश्चात् सुतारा ने कहा कि यह कोई दुष्ट विद्याधर है । यद्यपि समस्त शरीर, बल, वचन और कांति से तुल्य दिखता है परंतु प्रासाद, शंख, कलश आदि लक्षणों से जो कि मेरे पति के शरीर में चिरकाल से स्थित हैं तथा जिन्हें मैंने अनेक बार देखा है किंचित् भी मेरे पति के समान नहीं है ॥58-59॥ महापुरुषों के लक्षणों से जिनका शरीर भूषित है ऐसे मेरे पति को तथा इस किसी नीच की तुल्यता घोड़े और गधे की तुल्यता के समान है ।। 60॥
तदनंतर दोनों की सदृशता के कारण जिनके चित्त हरे गये थे ऐसे मंत्रियों ने सुतारा के इन शब्दों को सुनकर भी उनकी उस तरह अवज्ञा कर दी जिस प्रकार कि धनी मनुष्य निर्धन मनुष्य के वचनों की अवज्ञा कर देते हैं ।। 61॥ संदेह ने जिनका मन हर लिया था ऐसे उन बुद्धिशाली मंत्रियों ने एकत्रित हो सलाह कर यह कहा कि मद्यपायी, अत्यंत वृद्ध, वेश्या व्यसनी, बालक और स्त्रियों के वचन विद्वज्जनों को कभी नहीं मानना चाहिए ॥62-63॥ लोक में गोत्र की शुद्धि अत्यंत दुर्लभ है इसलिए उसके बिना बहुत भारी राज्य से भी प्रयोजन नहीं है ॥64 ।। निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणों से विभूषित हुआ जाता है इसलिए इस निर्मल अंतःपुर की यत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिए ॥65॥
जिस तरह से सुग्रीव निंदनीय अपकीर्ति न हो उस तरह इन दोनों का सब विभाग कर अतियत्नपूर्वक काम करना चाहिए ॥66॥ अंग नाम का पुत्र पिता को भ्रांति से कृत्रिम बनावटी सुग्रीव के पास गया और अंगद नाम का पुत्र माता के वचनों के अनुरोध से सत्य सुग्रीव के पास गया ॥67 ।। हम लोग भी अत्यंत सदृशता के कारण अपने स्वामी के विषय में संदेह शील हैं परंतु सुतारा के कहने से इसी को आगे कर स्थित हैं ॥68॥ संशय के वश में पड़ी सात अक्षौहिणी सेनाएँ एक सुग्रीव के आश्रय गयी और उतनी ही दूसरे सुग्रीव के अधीन हुईं ॥69।। नगर के दक्षिणभाग में कृत्रिम सुग्रीव रखा गया और वास्तविक सुग्रीव नगर के उत्तर भाग में विधिपूर्वक स्थापित किया गया ॥70॥
सब ओर से रक्षा करने वाले बालि के पुत्र चंद्ररश्मि ने संशय उपस्थित होने पर इस प्रकार की प्रतिज्ञा की कि इन दोनों में जो भी सुतारा के भवन के द्वार पर जावेगा वह तरुण इंदीवर-नीलकमल के समान सुशोभित मेरी खड̖ग के द्वारा अवश्य ही बध्य होगा― मेरी तलवार के द्वारा मारा जायेगा ॥71-72॥ तदनंतर इस प्रकार रखे हुए दोनों सुग्रीव सुतारा का मुख न देखते हुए व्यसन रूपी सागर में निमग्न हो गये ।।73॥
अथानंतर स्त्री के विरह से आकुल सत्य सुग्रीव, शोक दूर करने के लिए अनेक बार खरदूषण के पास आया ॥74॥ फिर हनुमान् के पास जाकर उसने बार-बार कहा कि हे बांधव ! मैं दुःख से पीडित हूँ अतः मेरी रक्षा करो, प्रसन्न होओ ॥75॥ कोई पाप बुद्धि विद्याधर माया से मेरा रूप रखकर मुझे अत्यंत बाधा पहुँचा रहा है सो जाकर उसे शीघ्र ही मारो ॥76॥ उस प्रकार की अवस्था में पड़े शोक युक्त सुग्रीव के वचन सुनकर हनुमान् क्रोध से बडवानल के समान हो गया ॥77 ।। वह परम उत्साह को धारण करता हुआ मंत्रियों के साथ, अत्यंत कांतिमां, नाना अलंकारों से प्रचुर, स्वर्ग तुल्य अप्रतीघात नामक विमान में सवार हो उस तरह किष्किंध नगर पहुँचा जिस तरह कि पुण्यात्मा मनुष्य स्वर्ग में पहुंचता है ॥78-79॥ हनुमान् को आया सुन वह शीघ्र ही हाथी पर सवार हो प्रसन्नता के साथ सुग्रीव की तरह नगर से बाहर निकला ॥8॥ अत्यंत सादृश्य को प्राप्त हुए उस कपि ध्वज को देखकर हनुमान् भी विस्मित हो संशयरूपी सागर में पड़ गया ॥81॥ वह विचार करने लगा स्पष्ट ही ये दोनों सुग्रीव हैं जब तक कि विशेषता नहीं जान पड़ती है तब तक इन दो में से एक को कैसे मारूँ? ॥82॥ इन दोनों वानर राजाओं का अंतर जाने बिना मैं कदाचित् मित्रों में श्रेष्ठ सुग्रीव को ही न मार बैठूं ॥83॥
इस प्रकार मुहूर्त भर मंत्रियों के साथ विधिपूर्वक विचारकर उदासीन भाव से हनुमान अपने नगर को वापस चला गया ।। 84॥ हनुमान् के वापस लौट जाने पर सुग्रीव बहुत व्याकुल हुआ । और जो इसके समान दूसरा मायावी सुग्रीव था वह आशा लगाये हुए उसी प्रकार स्थित रहा आया ॥85॥
यद्यपि सुग्रीव हजारों प्रकार को माया से स्वयं संपन्न है, महाशक्तिशाली है, महान् अभ्युदय का धारक है, और उल्कारूप अस्त्रों का धारक है तो भी संदेह को प्राप्त हो रहा है यह बड़े कष्ट की बात है ॥86॥ हे देव ! व्यसनरूपी मगरमच्छों से भरे हुए संशयरूपी सागर में निमग्न इस सुग्रीव को कौन तारेगा यह नहीं जान पड़ता ।। 87।।
हे राघव ! स्त्री वियोगरूपी दावानल से प्रदीप्त तथा कृत उपकार को मानने वाले इस कपिध्वज सुग्रीव की सेवा स्वीकृत करो, प्रसन्न होओ ॥88॥ यह आपको आश्रित वत्सल सुनकर आपकी शरण आया है, यथार्थ में आप-जैसे महापुरुष का शरीर पर दुःख का नाश करने वाला है ।। 89॥
तदनंतर उसके वचन सुनकर जिनके हृदय आश्चर्य से व्याप्त हो रहे थे ऐसे राम आदि सभी लोग धिक् ‘‘अहो" हो आदि शब्दों का उच्चारण करने लगे ॥90॥ राम ने विचार किया कि अब यह दुःख के कारण मेरा दूसरा मित्र हुआ है क्योंकि प्रायः कर समान मनुष्यों में ही प्रेम होता है ॥91।। यदि यह मेरा प्रत्युपकार करने में समर्थ नहीं होगा तो मैं निर्ग्रंथ साधु होकर मोक्ष का साधन करूंगा ॥92॥
इस प्रकार ध्यान कर तथा विराधित आदि के साथ क्षण-भर मंत्रणा कर सुग्रीव को बुला राम ने उससे कहा ॥93॥ कि तुम चाहे यथार्थ सुग्रीव होओ और चाहे कृत्रिम सुग्रीव मैं तुम्हें चाहता हूँ और तुम्हारे सदृश जो दूसरा सुग्रीव है उसे मारकर तुम्हारा अपना पद तुम्हें देता हूँ ।। 94॥ तुम पहले की भांति अपना राज्य प्राप्त कर समस्त शत्रुओं को निर्मूल करते हुए प्रसन्न हो सुतारा के साथ समागम को प्राप्त होओ ॥95 ।।
हे भद्र ! मैंने जो निश्चय किया है उसे प्राप्त करने के बाद यदि तुम मेरी प्राणाधि का तथा गुणों से परिपूर्ण सीता का पता चला सके तो उत्तम बात है ॥96।। यह सुनकर सुग्रीव ने कहा कि यदि मैं सात दिन के भीतर आपकी प्रिया का पता न चला हूँ तो अग्नि में प्रवेश करूं ॥97।।
चंद्रमा की किरणों के समान सुग्रीव के इन अक्षरों से राम कुमुद की उपमा धारण करते हुए परम आह्लाद को प्राप्त हुए ।। 98॥ अमृत के प्रवाह से तर हुए के समान उनका मुख-कमल खिल उठा तथा शरीर सब ओर से रोमांचों से व्याप्त हो गया ॥99॥ हम दोनों परस्पर द्रोह से रहित हैं― एक दूसरे के मित्र हैं इस प्रकार आदर के साथ उन दोनों ने उस जिनालय में जिन धर्मानुसार शपथ धारण की ॥100॥
तदनंतर महासामंतों से सेवित राम-लक्ष्मण सुग्रीव के साथ उत्तम रथ पर आरूढ़ हो किष्किंधनगर की ओर चले ॥101॥ नगर के समीप पहुँचकर मुकुट में वानर का चिह्न धारण करने वाले सुग्रीव ने दूत भेजा सो मायावी सुग्रीव के द्वारा तिरस्कृत होकर पुनः वापस आ गया ।। 102 ।। तदनंतर क्रोध से भरा कृत्रिम सुग्रीव तैयार हो रथ पर बैठकर बड़ी सेना से आवृत होता हुआ युद्ध के लिए निकला ॥103॥
अथानंतर जिनके आगे सेना लग रही थी ऐसे उन दोनों में महायुद्ध प्रारंभ हुआ । उनका वह महायुद्ध कपटी योद्धाओं के विस्तार से युक्त था, संकटपूर्ण था तथा तीक्ष्ण शब्दों से सहित था ॥104 ।। जो तीक्ष्ण क्रोध का धारक था, तथा विद्याओं के करने में आसक्त था ऐसा सुग्रीव, अहंकार से ग्रीवा को ऊपर उठाने वाले कृत्रिम सुग्रीव से दृढ़ युद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ।। 105 ।। चिरकाल तक युद्ध करने के बाद भी जिन में थकावट का अंश भी नहीं था ऐसे उन दोनों सुग्रीवों में महान् युद्ध हुआ । उनके उस युद्ध में चक्र, बाण तथा खड̖ग आदि शस्त्रों से आकाश में अंधकार फैल रहा था ।। 106।।
अथानंतर कृत्रिम सुग्रीव, गदा के द्वारा सुग्रीव को चोट पहुंचाकर तथा यह मर गया ऐसा समझकर संतुष्ट होता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ ।। 107 ।। इधर जिसका शरीर निश्चेष्ट पड़ा था ऐसे यथार्थ सुग्रीव को उसके मित्रजन घेरकर अपने शिविर में ले आये ॥108॥ जब सचेत हुआ तब राम से बोला कि नाथ ! हाथ में आया चोर जीवित हो पुनः मेरे नगर में कैसे चला गया ॥109॥
जान पड़ता है कि राघव ! अब मेरे दुःख का अंत नहीं होगा और फिर आपको प्राप्त कर भी । इससे बढ़कर कष्ट और क्या होगा ? ॥110 ।। तत्पश्चात् राम ने कहा कि मैं युद्ध करते हुए तुम दोनों की विशेषता नहीं जान सका था इसीलिए मैंने तुम्हारी सदृशता करनेवाले सुग्रीव को नहीं मारा है ॥111॥ जिनागम का उच्चारण कर तू मेरा प्रिय मित्र हुआ है सो कहीं अज्ञानरूपी दोष से तुझे ही नष्ट नहीं कर दूं इस भय से मैं चुप रहा ॥112॥
अथानंतर उस कृत्रिम सुग्रीव को फिर से ललकारा सो वह बलवान् क्रोधाग्नि से दीप्त होता हुआ पुनः आया तथा राम ने उसका सामना किया ॥113।। जिस प्रकार पर्वत के द्वारा समुद्र क्षोभ को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रूर योद्धारूपी मगरमच्छों के संचार से अतिशय भरा हुआ वह समुद्र तुल्य कृत्रिम सुग्रीव राम के द्वारा क्षोभ को प्राप्त हुआ ।। 114 ।। इधर लक्ष्मण ने वास्तविक सुग्रीव का दृढ़ आलिंगन कर उसे इस अभिप्राय से रोक लिया कि कहीं यह स्त्री के वैर के कारण क्रोध से शत्रु के पास न पहुँच जावे ॥115॥
तदनंतर युद्ध की प्राप्ति से उत्पन्न विशाल तेज से देदीप्यमान राम, कृत्रिम सुग्रीव को ललकारते हुए आगे बढ़े ॥116॥ अथानंतर राम को आया देख सिद्ध करनेवाले से पूछकर वैताली विद्या उसके शरीर से इस प्रकार निकल गयी कि जिस प्रकार उद्धत चेष्टा को धारण करने वाली स्त्री निकल जाती है ।। 117 ।। तत्पश्चात् जो सुग्रीव की आकृति से रहित था, जिसका वानर चिह्न दूर हो चुका, जो इंद्रनील मणि के समान जान पड़ता था, और जो आवरण से निकले हुए के समान अपने स्वाभाविक रूप में स्थित था ऐसे साहसगति को देखकर सब वानरवंशी क्षुभित हो एकरूपता को प्राप्त हो गये ॥118-119 ।। नाना शस्त्रों से सहित, क्रोध भरे बलवान् वानर यह वही है यह वही है देखो-देखो आदि शब्द करते हुए उससे युद्ध करने लगे ॥120॥ सो विशाल शक्ति के धारक उस तेजस्वी ने शत्रुओं की उस सेना को जब आगे कर खदेड़ा तब वह दिशाओं को उस प्रकार प्राप्त हुई जिस प्रकार की पवन से प्रेरित रूई प्राप्त होती है ॥121॥ उस समय उद्धत पराक्रम तथा मेघसमूह की उपमा धारण करने वाला साहसगति, धनुष पर बाण चढ़ाकर राम की ओर दौड़ा ॥122॥ उधर जब वह लगातार बाण समूह की वर्षा कर रहा था तब इधर राम भी बाणों के द्वारा मंडप बनाकर स्थित थे― राम भी घनघोर बाणों की वर्षा कर रहे थे ॥123॥ इस प्रकार राम का साहसगति के साथ परम युद्ध हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जो चिरकाल तक युद्ध करता था वह राम को आनंददायी होता था ॥124॥ तदनंतर अत्यधिक पराक्रम के धारक रामचंद्र ने चिरकाल तक रण क्रीड़ा कर बाणों से उसका कवच छेद दिया ॥125॥ तत्पश्चात् तीक्ष्ण बाणों से जिसका शरीर चलनी के समान सछिद्र हो गया था ऐसे साहसगति ने प्रभा रहित हो पृथिवी का आलिंगन किया अर्थात् प्राणरहित हो पृथिवी पर गिर पडा ॥126॥ कुतूहल से भरे सब विद्याधरों ने आकर उसे देखा तथा निश्चय से जाना कि यह साहसगति ही है ॥127॥
तदनंतर उत्कट हर्ष के धारक सुग्रीव ने भाई-लक्ष्मण सहित राम की पूजा की तथा मनोहर स्तुतियों से स्तुति की ॥128॥ शत्रुरहित नगर में परम शोभा कराने के लिए परम उत्कंठा को धारण करता हुआ वह स्त्री के साथ समागम को प्राप्त हुआ ॥129॥
वह भोगरूपी सागर में ऐसा मग्न हुआ कि रात-दिन का भी उसे ज्ञान नहीं रहा । वह चिरकाल बाद दिखा था अतः सुतारा के लिए ही उसने अपनी समस्त चेतना समर्पित कर दी ॥130॥ महाबल से सहित राम आदि प्रमुख राजाओं ने एक रात्रि नगर से बाहर बिताकर वैभव के साथ किष्किंध नगर में प्रवेश किया ॥131 ।। वहाँ लोकपाल देवों के समान शोभा को धारण करने वाले राम आदि प्रमुख राजा, नंदनवन को शोभा को विडंबित करने वाले आनंद नामक उद्यान में स्वेच्छा से ठहरे ॥132॥
उस उद्यान को सुंदरता का वर्णन नहीं करना ही उसकी सबसे बड़ी सुंदरता थी अन्यथा उसके गुण वर्णन करने में कौन समर्थ है ? ।।133।। उस उद्यान में चंद्रप्रभ भगवान की प्रतिमा से सुशोभित मनोहर दैत्यालय था सो समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाले चंद्रप्रभ भगवान को नमस्कार कर राम-लक्ष्मण वहाँ रहने लगे ॥134॥ चंद्रोदर के पुत्र-विराधित आदि उस चैत्यालय के बाहर अपनी सेनाएँ ठहराकर श्रम से रहित हुए ॥135॥
तदनंतर राम के गुण श्रवण कर अनुराग से भरी सुग्रीव की तेरह पुत्रियां स्वयंवरण की इच्छा से हर्षपूर्वक वहाँ आयीं ॥136।। वे तेरह पुत्रियां इस प्रकार थी― पहली चंद्रमा के समान मुख वाली चंद्रमा, दूसरी हृदयावली, तीसरी हृदय के लिए संकट की उपमा धारण करने वाली हृदयधर्मा, चौथी अनुंधरी, पांचवीं द्वितीय लक्ष्मी के समान श्रीकांता, छठी सर्व प्रकार से सुंदर चित्त सुंदरी, सातवीं देवांगना के समान विभ्रम को धारण करने वाली सुरवती, आठवीं मन के धारण करने में निपुण मनोवाहिनी, नौवीं परमार्थ में उत्तम शोभा को धारण करने वाली चारुश्री, दसवीं मदन के उत्सव स्वरूप मदनोत्सवा, ग्यारहवीं गुणों की माला से विभूषित गुणवती, बारहवीं विकसित कमल के समान मुख को धारण करने वाली पद्मावती और तेरहवीं निरंतर जिन पूजन में तत्पर रहने वाली जिनमती । इन सब कन्याओं को लेकर उनका परिकर राम के पास आया ॥137-142।।
राम को प्रणाम कर उसने कहा कि हे नाथ ! आप इन सब कन्याओं के स्वयं-वृत शरण होओ । हे लोकेश ! इन कन्याओं के उत्तम बंधु आप ही हैं ॥143॥ गोत्र की रक्षा करने वाले आपका नाम सुनकर इन कन्याओं का मन स्वभाव से ही ऐसा हुआ कि हमारा विवाह नीच विद्याधरों के साथ न हो ॥144॥
तदनंतर लज्जा के भार से जिनके मुख नम्र हो रहे थे, जो शोभा से युक्त थीं, जिनकी आभा कमल के समान थी तथा जो नवयौवन से परिपूर्ण थीं ऐसी वे सब कन्याएँ राजा रामचंद्र के पास आयीं ॥145 ।।
बिजली, अग्नि, सुवर्ण तथा कमल के भीतरी दल के समान उनको शरीर की विपुल कांति के विकास से आकाश सुशोभित होने लगा ॥146॥
विनीत, लावण्ययुक्त शरीर की धारक एवं प्रशस्त चेष्टाओं से युक्त वे सब कन्याएं राम के पास आकर बैठ गईं ॥147॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! पुरुषों में सूर्य समान रामचंद्र का भो चित्त किन्हीं में रमण को प्राप्त हुआ सो यह दशा समस्त संसारी जीवों की है ॥148॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में विट सुग्रीव के वध का कथन करने वाला सैंतालीसवाँ पर्व समाप्त हआ ॥47॥