ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 5
From जैनकोष
अथानंतर, गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! इस संसार में चार महावंश प्रसिद्ध हैं और इन महावंशो के अनेक अवांतर भेद कहे गये हैं। ये सभी भेद अनेक प्रकार के रहस्यों से युक्त हैं ।।1।। उन चार महावंशो में पहला इक्ष्वाकुवंश है जो अत्यंत उत्कृष्ट तथा लोक का आभूषण स्वरूप है। दूसरा ऋषिवंश अथवा चंद्रवंश है जो चंद्रमा की किरणों के समान निर्मल है ।।2।। तीसरा विद्याधरों का वंश है जो अत्यंत मनोहर है और चौथा हरिवंश है जो संसार में प्रसिद्ध कहा गया है ।।3।। इक्ष्वाकुवंश में भगवान् ऋषभदेव उत्पन्न हुए, उनके भरत हुए और उनके अकंकीर्ति महा प्रतापी पुत्र हुए। अर्क नाम सूर्य का है इसलिए इनका वंश सूर्यवंश कहलाने लगा। अर्ककीर्ति के सितयशा नामा पुत्र हुए, उनके बलांक, बलांक के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिबल, अतिबल के अमृत, अमृत के सुभद्र, सुभद्र के सागर, सागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशी, शशी के प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के प्रतापी तपन, तपन के अतिवीर्य, अतिवीर्य के सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेंद्रविक्रम, महेंद्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इंद्रद्युम्न, इंद्रद्युम्न के महेंद्रजित्, महेंद्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभु, विभु के अविध्वंस, अविध्वंस के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, वृषभध्वज के गरुडांक और गरुडांक के मृगांक पुत्र हुए। इस प्रकार इस वंश में अन्य अनेक राजा हुए। ये सभी संसार से भयभीत थे अत: पुत्रों के लिए राज्य सौंपकर शरीर से भी निस्पृह हो निर्ग्रंथ व्रत को प्राप्त हुए ।।4-9।। हे राजन्! मैंने क्रम से तुझे सूर्यवंश का निरूपण किया है अब सोमवंश अथवा चंद्रवंश की उत्पत्ति कही जाती ।।10।। भगवान् ऋषभदेव की दूसरी रानी से बाहुबली नाम का पुत्र हुआ था, उसके सोमयश नाम का सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ था। सोम नाम चंद्रमा का है सो उसी सोमयश से सोमवंश अथवा चंद्रवंश की परंपरा चली है। सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और सुबल के भुजबलि इस प्रकार इन्हें आदि लेकर अनेक राजा इस वंश में क्रम से उत्पन्न हुए हैं। ये सभी राजा निर्मल चेष्टाओं के धारक थे तथा मुनिपद को धारण कर ही परमपद (मोक्ष) को प्राप्त हुए ।।11-13।। कितने ही अल्पकर्म अवशिष्ट रह जाने के कारण तप का फल भोगते हुए स्वर्ग में देव हुए तथा वहाँ से आकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेंगे ।।14।। हे राजन्! यह मैंने तुझे सोमवंश कहा अब आगे संक्षेप से विद्याधरों के वंश का वर्णन करता हूँ ।।15।।
विद्याधरों का राजा जो नीम था उसके रत्नमाली नाम का पुत्र हुआ। रत्नमाली के रत्नवज्र, रत्नवज्र के रत्नरथ, रत्नरथ के रत्नचित्र, रत्नचित्र के चंद्ररथ, चंद्ररथ के वज्रजंघ, वज्रजंघ के वज्रसेन, वज्रसेन के वज्रद्रंष्ट, वज्रदंष्ट्र के वज्रध्वज, वज्रध्वज के वज्रायुध, वज्रायुध के वज्र, वज्र के सुवज्र, सुवज्र के वज्रभृत्, वज्रभृत् के वज्राभ, वज्राभ के वज्रबाहु, वज्रबाहु के वज्रसंज्ञ, वज्रसंज्ञ के वज्रास्य, वज्रास्य के वज्रपाणि, वज्रपाणि के वज्रजातु, वज्रजातु के वज्रवान्, वज्रवान् के विद्युन्मुख, विद्युन्मुख के सुवक्त्र, सुवक्त्र के विद्युद्दंष्ट्र, विद्युद्दंष्ट्र के विद्युत्वान्, विद्युत्वान् के विद्युदाभ, विद्युदाभ के विद्युद्वेग और विद्युद्वेग के वैद्युत नामक पुत्र हुए। ये ही नहीं, इन्हें आदि लेकर अनेक शूरवीर विद्याधरों के राजा हुए। ये सभी दीर्घ काल तक राज्य कर अपनी-अपनी चेष्टाओं के अनुसार स्थानों को प्राप्त हुए ।।16-21।। इनमें से कितने ही राजाओं ने पुत्रों के लिए राज्य सौंपकर जिन दीक्षा धारण की और राग-द्वेष छोड़कर सिद्ध पद प्राप्त किया ।।22।। कितने ही राजा समस्त कर्म बंधन को नष्ट नहीं कर सके इसलिए संकल्प मात्र से उपस्थित होनेवाले देवों के सुख का उपभोग करने लगे ।।23।। कितने ही लोग स्नेह के कारण गुरुतर कर्मरूपी पाश से बँधे रहे और जाल में बँधे हरिणों के समान उसी कर्मरूपी पाश में बँधे हुए मृत्यु को प्राप्त हुए ।।24।।
अथानंतर इसी विद्याधरों के वंश में एक विद्युद्दृढ़ नाम का राजा हुआ जो दोनों श्रेणियों का स्वामी था, विद्याबल में अत्यंत उद्धत और विपुल पराक्रम का धारी था ।।25।। किसी एक समय वह विमान में बैठकर विदेह क्षेत्र गया था वहां उसने आकाश से ही निर्ग्रंथ मुद्रा के धारी संजयंत मुनि को देखा, उस समय वे ध्यान में आरूढ़ थे और उनका शरीर पर्वत के समान निश्चल था ।।26।। विद्युद्दृढ विद्याधर ने उन मुनिराज को लाकर पंचगिरि नामक पर्वत पर रख दिया और इनका वध करो इस प्रकार विद्याधरों को प्रेरित किया ।।27।। राजा की प्रेरणा पाकर विद्याधरों ने उन्हें पत्थर तथा अन्य साधनों से मारना शुरू किया परंतु वे तो सम चित्त के धारी थे अत: उन्हें थोड़ा भी संक्लेश उत्पन्न नहीं हुआ ।।28।। तदनंतर दु:सह उपसर्ग को सहन करते हुए उन संजयंत मुनिराज को समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ।।29।। उसी समय मुनिराज का पूर्व भव का भाई धरणेंद्र आया। उसने विद्युद्दृढ की सब विद्याएँ हर लीं जिससे वह विद्यारहित होकर अत्यंत शांत भाव को प्राप्त हुआ ।।30।। विद्याओं के अभाव में बहुत दुखी होकर उसने हाथ जोड़कर नम्र भाव से धरणेंद्र से पूछा कि अब हमें किसी तरह विद्याएँ सिद्ध हो सकती हैं या नहीं? तब धरणेंद्र ने कहा कि तुम्हें इन्हीं संजयंत मुनिराज के चरणों में तपश्चरण संबंधी क्लेश उठाने से फिर भी विद्याएँ सिद्ध हो सकती हैं परंतु खोटा कार्य करने से वे विद्याएँ सिद्ध होने पर भी पुन: नष्ट हो जायेंगी। जिन प्रतिमा से युक्त मंदिर और मुनियों का उल्लंघन कर प्रमादवश यदि ऊपर गमन करोगे तो तुम्हारी विद्याएँ तत्काल नष्ट हो जायेंगी। धरणेंद्र के द्वारा बतायी हुई व्यवस्था के अनुसार विद्युद्दृढ़ ने संजयंत मुनिराज के पादमूल में तपश्चरण कर फिर से विद्या प्राप्त कर ली ।।31-33।।
यह सब होने के बाद धरणेंद्र ने कुतूहल वश संजयंत मुनिराज से पूछा कि हे भगवत्! विद्युद्दृढ़ ने आपके प्रति ऐसी चेष्टा क्यों की है? वह किस कारण आपको हर कर लाया और किस कारण विद्याधरों से उसने उपसर्ग कराया ।।34।। धरणेंद्र का प्रश्न सुनकर भगवान् संजयंत केवली इस प्रकार कहने लगे- इस चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करता हुआ मैं एक बार शकट नामक गाँव में हितकर नामक वैश्य हुआ था। मैं अत्यंत मधुरभाषी, दयालु, स्वभाव संबंधी सरलता से युक्त तथा साधुओं की सेवा में तत्पर रहता था ।।35-36।। तदनंतर मैं कुमुदावती नाम की नगरी में मर्यादा के पालन करने में उद्यत श्रीवर्द्धन नाम का राजा हुआ ।।37।। उसी ग्राम में एक ब्राह्मण रहता था जो खोटा तप कर कुदेव हुआ था और वहाँ से च्युत होकर मुझ श्रीवर्द्धन राजा का वह्निशिख नाम का पुरोहित हुआ था। वह पुरोहित यद्यपि सत्यवादी रूप से प्रसिद्ध था परंतु अत्यंत दुष्ट परिणामी था और छिपकर खोटे कार्य करता था ।।38-39।। उस पुरोहित ने एक बार नियमदत्त नामक वणिक् का धन छिपा लिया तब रानी ने उसके साथ जुआ खेलकर उसकी अँगूठी जीत ली ।।40।। रानी की दासी अँगूठी लेकर पुरोहित के घर गयी और वहाँ उसकी स्त्री को दिखाकर उससे रत्न ले आयी। रानी ने वे रत्न नियमदत्त वणिक् को जो कि अत्यंत दुःखी था वापस दे दिये। तदनंतर मैंने उस दुष्ट ब्राह्मण का सब धन छीन लिया तथा उसे तिरस्कृत कर नगर से बाहर निकाल दिया। उस दीन-हीन ब्राह्मण को सुबुद्धि उत्पन्न हुई जिससे उसने उत्कृष्ट तपश्चरण किया ।।41-42।। अंत में मरकर वह माहेंद्र स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से स्तुत होकर यह विद्युद्दृढ़ नामक विद्याधरों का राजा हुआ है ।।43।। मेरा जीव श्रीवर्द्धन भी तपश्चरण कर मरा और स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर मैं विदेह क्षेत्र में संजयंत हुआ हूँ ।।44।। उस पूर्वोक्त दोष के संस्कार से ही यह विद्याधर मुझे देखकर क्रोध से एकदम मूर्च्छित हो गया और कर्मो के वशीभूत होकर उसी संस्कार से इसने यह उपसर्ग किया है ।।45।। और जो वह नियमदत्त नामक वणिक् था वह तपश्चरण कर उसके फलस्वरूप उज्ज्वल हृदय का धारी तू नागकुमारों का राजा धरणेंद्र हुआ है ।।46।।
अथानंतर- विद्युद्दृढ़ के दृढ़रथ नामक पुत्र हुआ सो विद्युद्दृढ़ उसके लिए राज्य सौंपकर तथा तपश्चरण कर स्वर्ग गया ।।47।। इधर दृढ़रथ के अश्वधर्मा, अश्वधर्मा के अश्वायु, अश्वायु के अश्वध्वज, अश्वध्वज के पद्मनिभ, पद्मनिभ के पद्ममाली, पद्ममाली के पद्मरथ, पद्मरथ के सिंहयान, सिंहयान के मृगोद्धर्मा, मृगोद्धर्मा के सिंहसप्रभु, सिंहसप्रभु के सिंहकेतु, सिंहकेतु के शशांकमुख, शशांकमुख के चंद्र, चंद्र के चंद्रशेखर, चंद्रशेखर के इंद्र, इंद्र के चंद्ररथ, चंद्ररथ के चक्रधर्मा, चक्रधर्मा के चक्रायुध, चक्रायुध के चक्रध्वज, चक्रध्वज के मणिग्रीव, मणिग्रीव के मण्यंक, मण्यंक के मणिभासुर, मणिभासुर के मणिस्यंदन, मणिस्यंदन के मण्यास्य, मण्यास्य के बिंबोष्ठ, बिंबोष्ठ के लंबिताधर, लंबिताधर के रक्तोष्ठ, रक्तोष्ठ के हरिचंद्र, हरिचंद्र के पूश्चंद्र, पूश्चंद्र के पूर्णचंद्र, पूर्णचंद्र के बालेंदु, बालेंदु के चंद्रचूड, चंद्रचूड के व्योमेंदु, व्योमेंदु के उडुपालन, उडुपालन के एकचूड, एकचूड के द्विचूड, द्विचूड के त्रिचूड, त्रिचूड के वज्रचूड, वज्रचूड के भूरिचूड, भूरिचूड के अर्कचूड, अर्कचूड के वह्निजटी, वह्निजटी के वह्नितेज नाम का पुत्र हुआ। इसी प्रकार और भी बहुत से पुत्र हुए जो कालक्रम से मृत्यु को प्राप्त होते गये ।।48-54।। इनमें से कितने ही विद्याधर राजा लक्ष्मी का पालन कर तथा अंत में पुत्रों को राज्य सौंपकर कर्मो का क्षय करते हुए सिद्ध भूमि को प्राप्त हुए ।।55।।
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन्! इस प्रकार यह विद्याधरों का वंश कहा। अब द्वितीय युग का अवतार कहा जाता है सो सुन ।।56।। भगवान् ऋषभदेव का युग समाप्त होने पर इस पृथिवी पर जो प्राचीन उत्तम भाव थे वे हीन हो गये, लोगों की परलोक संबंधी क्रियाओं में प्रीति शिथिल होने लगी तथा काम और अर्थ पुरुषार्थ में ही उनकी प्रवर बुद्धि प्रवृत्त होने लगी ।।57-58।। अथानंतर इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए राजा जब कालक्रम से अतीत हो गये तब अयोध्या नगरी में एक धरणीधर नामक राजा उत्पन्न हुए। उनकी श्रीदेवी नामक रानी से प्रसिद्ध लक्ष्मी का धारक त्रिदशंजय नाम का पुत्र हुआ। इसकी स्त्री का नाम इंदुरेखा था, उन दोनों के जितशत्रु नाम का पुत्र हुआ ।।59-60।। पोदनपुर नगर में व्यानंद नामक राजा रहते थे, उनकी अंभोजमाला नामक रानी से विजया नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी। राजा त्रिदशंजय ने जितशत्रु का विवाह विजया के साथ कराकर दीक्षा धारण कर ली और तपश्चरण कर कैलास पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया ।।61-62।। अथानंतर राजा जितशत्रु और रानी विजया के अजितनाथ भगवान का जन्म हुआ। इंद्रादिक देवों ने भगवान् ऋषभदेव का जैसा अभिषेक आदि किया था वैसा ही भगवान् ऋषभदेव का किया ।।63।। चूँकि उनका जन्म होते ही पिता ने समस्त शत्रु जीत लिये थे इसलिए पृथिवी तल पर उनका अजित नाम प्रसिद्ध हुआ ।।64।। भगवान् अजितनाथ की सुनयना, नंदा आदि अनेक रानियाँ थीं। वे सब रानियाँ इतनी सुंदर थीं कि इंद्राणी भी अपने रूप से उनकी समानता नहीं कर सकती थी ।।65।।
अथानंतर- भगवान् अजितनाथ एक दिन अपने अंतःपुर के साथ सुंदर उपवन में गये। वहाँ उन्होंने प्रातःकाल के समय फूला हुआ कमलों का एक विशाल वन देखा ।।66।। उसी वन को उन्होंने जब सूर्य अस्त होने को हुआ तब संकुचित होता देखा। इस घटना से वे लक्ष्मी को अनित्य मानकर परम वैराग्य को प्राप्त हो गये ।।67।। तदनंतर- पिता, माता और भाइयों से पूछकर उन्होंने पूर्व विधि के अनुसार दीक्षा धारण कर ली ।।68।। इनके साथ अन्य दस हजार क्षत्रियों ने भी राज्य, भाई-बंधु तथा सब परिग्रह का त्याग कर दीक्षा धारण की थी ।।69।। भगवान ने तेला का उपवास धारण किया था सो तीन दिन बाद अयोध्या निवासी ब्रह्मदत्त राजा ने उन्हें भक्ति पूर्वक पारणा करायी थी- आहार दिया था ।।70।। चौदह वर्ष होने पर उन्हें केवलज्ञान तथा समस्त संसार के द्वारा पूजनीय अर्हंतपद प्राप्त हुआ ।।71।। जिस प्रकार भगवान् ऋषभदेव के चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे उसी प्रकार इनके भी प्रकट हुए ।।72।। इनके पाद―मूल में रहनेवाले नब्बे गणधर थे तथा सूर्य के समान कांति को धारण करने वाले एक लाख साधु थे ।।73।। जितशत्रु के छोटे भाई विजय सागर थे, उनकी स्त्री का नाम सुमंगला था, सो उन दोनों के सगर नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ।।74।। यह सगर शुभ आकार का धारक दूसरा चक्रवर्ती हुआ और पृथ्वीतल पर नौ निधियों के कारण परम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था ।।75।। हे श्रेणिक! इसके समय जो वृत्तांत हुआ उसे तू सुन। भरतक्षेत्र के विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी में एक चक्रवाल नाम का नगर है ।।76।। उसमें पूर्णघन नाम का विद्याधरों का राजा राज्य करता था। वह महा प्रभाव से युक्त तथा विद्याओं के बल से उन्नत था। उसने विहायस्तिलक नगर के राजा सुलोचन से उसकी कन्या की याचना की पर सुलोचन ने अपनी कन्या पूर्णघन को न देकर निमित्तज्ञानी की आज्ञानुसार सगर चक्रवर्ती के लिए दी ।।77-78।। इधर राजा सुलोचन और पूर्णघन के बीच जब तक भयंकर युद्ध होता है तब तक सुलोचन का पुत्र सहस्रनयन अपनी बहन को लेकर अन्यत्र चला गया ।।79।। पूर्णघन ने सुलोचन को मारकर नगर में प्रवेश किया परंतु जब कन्या नहीं देखी तो अपने नगर को वापस लौट आया ।।80।। तदनंतर पिता का वध सुनकर सहस्रनयन पूर्णमेघ पर बहुत ही कुपित हुआ परंतु निर्बल होने से कुछ कर नहीं सका। वह अष्टापद आदि हिंसक जंतुओं से भरे वन में रहता था और सदा पूर्णमेघ के छिद्र देखता रहता था ।।81।। तदनंतर एक मायामयी अश्व सगर चक्रवर्ती को हर ले गया सो वह उसी वन में आया जिसमें कि सहस्रनयन रहता था। सौभाग्य से सहस्रनयन की बहन उत्पलमती ने चक्रवर्ती को देखकर भाई से यह समाचार कहा ।।82।। सहस्रनयन यह समाचार सुनकर बहुत ही संतुष्ट हुआ और उसने उत्पलमती, सगर चक्रवर्ती के लिए प्रदान कर दी। चक्रवर्ती ने भी पूर्णघन को विद्याधरों का राजा बना दिया ।।83।। जो छह खंड का अधिपति था तथा समस्त राजा जिसका शासन मानते थे ऐसा चक्रवर्ती सगर उस स्त्री को पाकर बहुत भारी संतोष को प्राप्त हुआ ।।84।। विद्याधरों का आधिपत्य पाकर सहस्रनयन ने पूर्णघन के नगर को चारों ओर से कोट के समान घेर लिया ।।85।। तदनंतर दोनों के बीच मनुष्यों का संहार करनेवाला बहुत भारी युद्ध हुआ जिसमें सहस्रनयन ने पूर्णमेघ को मार डाला ।।86।। तदनंतर पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन को शत्रुओं ने चक्रवाल नगर से निर्वासित कर दिया सो वह आकाशरूपी आंगन में भ्रमण करने लगा ।।87।। उसे देखकर बहुत से कुपित विद्याधरों ने उसका पीछा किया सो वह अत्यंत दुःखी होकर तीन लोक के जीवों को सुख उत्पन्न करने वाले भगवान् अजितनाथ की शरण में पहुँचा ।।88।। वहाँ इंद्र ने उससे भय का कारण पूछा। तब मेघवाहन ने कहा कि हमारे पिता पूर्णघन और सहस्रनयन के पिता सुलोचन में अनेक जीवों का विनाश करने वाला वैर-भाव चला आ रहा था सो उसी संस्कार के दोष से अत्यंत क्रूर चित्त के धारक सहस्रनयन ने सगर चक्रवर्ती का बल पाकर मेरे बंधुजनों का क्षय किया है। इस शत्रु ने मुझे भी बहुत भारी त्रास पहुँचाया है सो मैं महल से हंसों के साथ उड़कर शीघ्र ही यहाँ आया हूँ ।।89-91।। तदनंतर जो राजा मेघवाहन का पीछा कर रहे थे उन्होंने सहस्रनयन से कहा कि वह इस समय भगवान् अजितनाथ के समीप है अत: हम उसे पकड़ नहीं सकते। यह सुनकर सहस्रनयन रोष वश स्वयं ही चला और मन ही मन सोचने लगा कि देखें मुझ से अधिक बलवान् दूसरा कौन है जो इसकी रक्षा कर सके। ऐसा सोचता हुआ वह भगवान के समवसरण में आया ।।92-93।। सहस्रनयन ने ज्यों ही दूर से भगवान का प्रभा मंडल देखा त्यों ही उसका समस्त अहंकार चूर-चूर हो गया। उसने भगवान अजितनाथ को प्रणाम किया। सहस्रनयन और मेघवाहन दोनों ही परस्पर का बैर―भाव छोड़कर भगवान के चरणों के समीप जा बैठे। तदनंतर गणधर ने भगवान से उन दोनों के पिता का चरित्र पूछा सो भगवान निम्न प्रकार कहने लगे ।।94-95।।
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में सदृतु नाम का नगर था। उसमें भावन नाम का एक वणिक् रहता था। उसकी आतकी नामक स्त्री और हरिदास नामक पुत्र था। वह भावन यद्यपि चार करोड द्रव्य का स्वामी था तो भी धन कमाने की इच्छा से देशांतर की यात्रा के लिए उद्यत हुआ ।।96-97।। उसने अपना सब धन धरोहर के रूप में पुत्र के लिए सौंपते हुए, जुआ आदि व्यसनों के छोड़ने की उत्कृष्ट शिक्षा दी। उसने कहा कि हे पुत्र! ये जुआ आदि व्यसन समस्त दोषों के कारण हैं इसलिए इनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है। ऐसा उपदेश देकर वह भावन नाम का वणिक धन की तृष्णा से जहाज में बैठकर देशांतर को चला गया ।।98-99।। पिता के चले जाने पर हरिदास ने वेश्या-सेवन, जुआ की आसक्ति तथा मदिरा के अहंकारवश चारों करोड़ द्रव्य नष्ट कर दिया ।।100।। इस प्रकार जब वह जुआ में सब कुछ हार गया और अन्य जुवाड़ियो का देनदार हो गया तब वह दुराचारी धन के लिए सुरंग लगाकर राजा के घर में घुसा तथा वहाँ से धन लाकर अपने सब व्यसनों की पूर्ति करने लगा। अथानंतर कुछ समय बाद जब उसका पिता भावन देशांतर से घर लौटा तब उसने पुत्र को नहीं देखकर अपनी स्त्री से पूछा कि हरिदास कहां गया है? स्त्री ने उत्तर दिया कि वह इस सुरंग से चोरी करने के लिए गया है ।।101-103।। तदनंतर भावन को शंका हुई कि कहीं इस कार्य में इसका भरण न हो जावे इस शंका से वह चोरी छुड़ाने के लिए घर के भीतर दी हुई सुरंग से चला ।।104।। उधर से उसका पुत्र हरिदास वापस लौट रहा था, सो उसने समझा कि यह कोई मेरा वैरी आ रहा है ऐसा समझकर उस पापी ने बेचारे भावन को तलवार से मार डाला ।।105।। पीछे जब नख, दाढ़ी, मूँछ तथा जटा आदि के स्पर्श से उसे विदित हुआ कि अरे! यह तो मेरा पिता है, तब वह दु:सह दुःख को प्राप्त हुआ ।।106।। पिता की हत्या कर वह भय से भागा और अनेक देशों में दु:खपूर्वक भ्रमण करता हुआ मरा ।।107।। पिता पुत्र दोनों श्वान हुए, फिर शृगाल हुए, फिर मार्जार हुए, फिर बैल हुए, फिर नेवला हुए, फिर भैंसा हुए और फिर बैल हुए। ये दोनों ही परस्पर में एक दूसरे का घात कर मरे और संसाररूपी वन में भटकते रहे। अंत में विदेह क्षेत्र की पुष्कलावती नगरी में मनुष्य हुए ।।108-109।। फिर उग्र तपश्चरण कर शतार नामक ग्यारहवें स्वर्ग में उत्तर और अनुत्तर नामक देव हुए। वहाँ से आकर जो भावन नाम का पिता था वह पूर्णमेघ विद्याधर हुआ और जो उसका पुत्र था वह सुलोचन नाम का विद्याधर हुआ। इसी वैर के कारण पूर्णमेघ ने सुलोचन को मारा है ।।110-111।। गणधर देव ने सहस्रनयन और मेघवाहन को समझाया कि तुम दोनों इस तरह अपने पिताओं के सांसारिक दु:खमय परिभ्रमण को जानकर संसार का कारणभूत वैरभाव छोड़कर साम्यभाव का सेवन करो ।।112।।
तदनंतर सगर चक्रवर्ती ने पूछा कि हे भगवन! मेघवाहन और सहस्रनयन का पूर्व जन्म में वैर क्यों हुआ? तब धर्मचक्र के अधिपति भगवान ने उन के वैर का कारण निम्न प्रकार समझाया ।।113।। उन्होंने कहा कि जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र संबंधी पद्मक नामक नगर में गणित शास्त्र का पाठी महाधनवान् रंभ नाम का एक प्रसिद्ध पुरुष रहता था ।।114।। उसके दो शिष्य थे- एक चंद्र और दूसरा आवलि। ये दोनों ही परस्पर मैत्री भाव से सहित थे। अत्यंत प्रसिद्ध धनवान और गुणो से युक्त थे ।।115।। नीतिशास्त्र में निपुण रंभ ने यह विचारकर कि यदि ये दोनों परस्पर में मिले रहेंगे तो हमारा पद भंग कर देंगे, दोनों में फूट डाल दी ।।117।। एक दिन चंद्र गाय खरीदना चाहता था सो गोपाल के साथ सलाह कर मूल्य लेने के लिए वह सहज ही अपने घर आया था कि भाग्यवश आवलि उसी गाय को खरीदकर अपने गांव की ओर आ रहा था। बीच में चंद्र ने क्रोधवश उसे मार डाला। आवलि मरकर म्लेच्छ हुआ ।।117-118।। और चंद्र मरकर बैल हुआ सो म्लेच्छ ने पूर्व वैर के कारण उसे मारकर खा लिया ।।119।। म्लेच्छ तिर्यंच तथा नरक योनि में भ्रमण कर चूहा हुआ और चंद्र का जीव बैल मरकर बिलाव हुआ सो बिलाव ने चूहे को मारकर भक्षण किया ।।120।। पाप कर्म के कारण दोनों ही मरकर नरक में उत्पन्न हुए सो ठीक ही है क्योंकि प्राणी संसाररूपी सागर में बहुत भारी दुख पाते ही हैं ।।121।। नरक से निकलकर दोनों ही बनारस में संभ्रमदेव की दासी के कूट और कापंटिक नाम के पुत्र हुए। ये दोनों ही भाई दास थे- दास वृत्ति का काम करते थे सो संभ्रमदेव ने उन्हें जिनमंदिर मे नियुक्त कर दिया। अंत में मरकर दोनों ही पुण्य के प्रभाव से रूपानंद और सुरूप नामक व्यंतर देव हुए ।।122-123।। रूपानंद चंद्र का जीव था और सुरूप आवलिका जीव था सो रूपानंद चय कर रजोवली नगरी में कुलंधर नाम का कुल पुत्रक हुआ और सुरूप, पुरोहित का पुत्र पुष्पभूति हुआ ।।124।। यद्यपि कुलंधर और पुष्पभूति दोनों ही मित्र थे तथापि एक हलवाहक के निमित्त से उन दोनों में शत्रुता हो गयी। फलस्वरूप कुलंधर पुष्पभूति को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ ।।125।। मार्ग में उसे एक वृक्ष के नीचे विराजमान मुनिराज मिले सो उनसे धर्म श्रवण कर वह शांत हो गया। राजा ने उसकी परीक्षा ली और पुण्य के प्रभाव से उसे मंडलेश्वर बना दिया ।।126।। पुष्पभूति ने देखा कि धर्म के प्रभाव से ही कुलंधर वैभव को प्राप्त हुआ है इसलिए वह भी जैनी हो गया और मरकर तीसरे स्वर्ग में देव हुआ ।।127।। कुलंधर भी उसी तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। दोनों ही च्युत होकर घातकी खंडद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में अरिंजय पिता और जयवंती माता के पुत्र हुए। एक का नाम क्रूरामर, दूसरे का नाम धनश्रुति था। ये दोनों भाई अत्यंत शूरवीर एवं सहस्र शीर्ष राजा के विश्वासपात्र प्रसिद्ध सेवक हुए।।128-129।। किसी एक दिन राजा सहस्र शीर्ष इन दोनों सेवकों के साथ हाथी पकड़ने के लिए वन में गया। वहाँ उसने जन्म से ही विरोध रखनेवाले सिंह मृगादि जीवों को परस्पर प्रेम करते हुए देखा ।।130।। ये हिंसक प्राणी शांत क्यों हैं? इस प्रकार आश्चर्य को प्राप्त हुए राजा सहस्र शीर्ष ने ज्यों ही महावन में प्रवेश किया त्यों ही उसकी दृष्टि महामुनि केवली भगवान के ऊपर पड़ी ।।131।।
तदनंतर राजा सहस्र शीर्ष ने दोनों सेवकों के साथ केवली भगवान के पास दीक्षा धारण कर ली। फलस्वरूप राजा तो मोक्ष को प्राप्त हुआ और क्रूरामर तथा धनश्रुति शतार स्वर्ग गये ।।132।। इनमें चंद्र का जीव क्रूरामर तो स्वर्ग से चयकर मेघवाहन हुआ है और आवलि का जीव धनश्रुति सहस्रनयन हुआ है। इस प्रकार पूर्वभव के कारण इन दोनों में वैरभाव है ।।133।।
तदनंतर सगर चक्रवर्ती ने भगवान से पूछा कि हे प्रभो! सहस्रनयन में मेरी अधिक प्रीति है सो इसका क्या कारण है? उत्तर में भगवान ने कहा कि जो रंभ नामा गणित शास्त्र का पाठी था वह मुनियों को आहारदान देने के कारण देव कुल में आर्य हुआ, फिर सौधर्म स्वर्ग गया, वहाँ से च्युत होकर चंद्रपुर नगर में राजा हरि और धरा नाम को रानी के व्रत कीर्तन नाम का प्यारा पुत्र हुआ। वह मुनिपद धारण कर स्वर्ग गया, वहाँ से च्युत होकर पश्चिम विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नगर में राजा महाघोष और चंद्रिणी नाम की रानी के पयोबल नाम का पुत्र हुआ। वह मुनि होकर प्राणत नामक चौदहवें स्वर्ग में देव हुआ ।।134-137।। वहाँ से च्युत होकर भरत क्षेत्र के पृथिवीपुर नगर में राजा यशोधर और जया नाम की रानी के जयकीर्तन नाम का पुत्र हुआ ।।138।। वह पिता के निकट जिन दीक्षा ले विजय विमान में उत्पन्न हुआ और वहाँ से चय कर तू सगर चक्रवर्ती हुआ है ।।139।। जब तू रंभ था तब आवलि के साथ तेरा बहुत स्नेह था। अब आवलि ही सहस्रनयन हुआ है। इसलिए पूर्व संस्कार के कारण अब भी तेरा उसके साथ गाढ़ स्नेह है ।।140।। इस प्रकार जिनेंद्र भगवान के मुख से अपने तथा पिता के भवांतर जानकर मेघवाहन और सहस्रनयन दोनों को धर्म में बहुत भारी रुचि उत्पन्न हुई ।।141।। उस धार्मिक रुचि के कारण दोनों को जाति―स्मरण भी हो गया।
तदनंतर श्रद्धा से भरे मेघवाहन और सहस्रनयन अजितनाथ भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे ।।142।। हे भगवन्! जो बुद्धि से रहित हैं तथा जिनका कोई नाथ― रक्षक नहीं है ऐसे संसारी प्राणियों का आप बिना कारण ही उपकार करते हैं इससे अधिक आश्चर्य और क्या हो सकता है ।।143।। आपका रूप उपमा से रहित है तथा आप अतुल्य वीर्य के धारक हैं। हे नाथ! इन तीनों लोकों में ऐसा कौन पुरुष है जो आपके दर्शन से संतृप्त हुआ हो ।।144।। हे भगवन्! यद्यपि आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थ प्राप्त कर चुके हैं, कृतकृत्य हैं, सर्वदर्शी हैं, सुखस्वरूप हैं, अचिंत्य हैं और जानने योग्य समस्त पदार्थों को जान चुके हैं तथापि जगत् का हित करने के लिए उद्यत हैं ।।145।। हे जिनराज! संसाररूपी अंधकूप में पड़ते हुए जीवों को आप श्रेष्ठ धर्मोपदेशरूपी हस्तावलंबन प्रदान करते हैं ।।146।। इस प्रकार जिनकी वाणी गद्गद हो रही थी और नेत्र आँसुओं से भर रहे थे ऐसे परम हर्ष को प्राप्त हुए मेघवाहन और सहस्रनयन विधिपूर्वक स्तुति और नमस्कार कर यथास्थान बैठ गये ।।147।। सिंहवीर्य आदि मुनि, इंद्र आदि देव और सगर आदि राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ।।148।।
अथानंतर- जिनेंद्र भगवान के समवसरण में राक्षसों के इंद्र भीम और सुभीम प्रसन्न होकर मेघवाहन से कहने लगे कि हे विद्याधर के बालक! तू धन्य है जो सर्वज्ञ अजित जिनेंद्र की शरण में आया है, हम दोनों तुझ पर संतुष्ट हुए हैं अत: जिससे तेरी सर्वप्रकार से स्वस्थता हो सकेगी वह बात हम तुझ से इस समय कहते हैं सो तू ध्यान से सुन, तू हम दोनों की रक्षा का पात्र है ।।149-151।। बहुत भारी मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अत्यंत दुर्गम्य तथा अतिशय सुंदर हजारों महाद्वीप हैं ।।152।। उन महाद्वीपों में कहीं गंधर्व, कहीं किन्नरों के समूह, कहीं यक्षों के झुंड और कहीं किंपुरुष देव क्रीड़ा करते हैं ।।153।। उन द्वीपों के बीच एक ऐसा द्वीप है जो राक्षसों की शुभ क्रीड़ा का स्थान होने से राक्षस द्वीप कहलाता है और सात सौ योजन लंबा तथा उतना ही चौड़ा है ।।154।। उस राक्षस द्वीप के मध्य में मेरु पर्वत के समान त्रिकूटाचल नामक विशाल पर्वत है। वह पर्वत अत्यंत दु:प्रवेश है और उत्तमोत्तम गुहारूपी गृहों से सबको शरण देने वाला है ।।155।। उसकी शिखर सुमेरु पर्वत की चूलिका के समान महामनोहर है, वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है ।।156।। उसके सुवर्णमय किनारे नाना प्रकार के रत्नों की कांति के समूह से सदा आच्छादित रहते हैं तथा नाना प्रकार की लताओं से आलिंगित कल्पवृक्ष वहाँ संकीर्णता करते रहते हैं ।।157।। उस त्रिकूटाचल के नीचे तीस योजन विस्तार वाली लंका नगरी है, उसमें राक्षस वंशियों का निवास है और उसके महल नाना प्रकार के रत्नों एवं सुवर्ण से निर्मित हैं ।।158।। मन को हरण करने वाले बागबगीचों, कमलों से सुशोभित सरोवरों और बड़े-बड़े जिन-मंदिरों से वह नगरी इंद्रपुरी के समान जान पड़ती है ।।159।। वह लंका नगरी दक्षिण दिशा की मानो आभूषण ही है। हे विद्याधर! तू अपने बंधुवर्ग के साथ उस नगरी में जा और सुखी हो ।।160।। ऐसा कहकर राक्षसों के इंद्र भीम ने उसे देवाधिष्टित एक हार दिया। वह हार अपनी करोड़ों किरणों से चांदनी उत्पन्न कर रहा था ।।161।। जंमांतर संबंधी पुत्र की प्रीति के कारण उसने वह हार दिया था और कहा था कि हे विद्याधर! तू चरमशरीरी तथा युग का श्रेष्ठ पुरुष है इसलिए तुझे यह हार दिया है ।।162।। उस हार के सिवाय उसने पृथ्वी के भीतर छिपा हुआ एक ऐसा प्राकृतिक नगर भी दिया जो छह योजन गहरा तथा एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कला प्रमाण चौड़ा था ।।163।। उस नगर में शत्रुओं का शरीर द्वारा प्रवेश करना तो दूर रहा मन से भी प्रवेश करना अशक्य था। उसमें बड़े-बड़े महल थे, अलंकारोदय उसका नाम था और शोभा से वह स्वर्ग के समान जान पड़ता था ।।164।। यदि तुझ पर कदाचित् परचक्र का आक्रमण हो तो इस नगर में खड्ग का आश्रय ले सुख से रहना। यह तेरी वंश परंपरा के लिए रहस्य- सुरक्षित स्थान है ।।165।। इस प्रकार राक्षसों के इंद्र भीम और सुभीम ने पूर्णघन के पुत्र मेघवाहन से कहा जिसे सुनकर वह परम हर्ष को प्राप्त हुआ। वह अजितनाथ भगवान को नमस्कार कर उठा ।।166।। राक्षसों के इंद्र भीम ने उसे राक्षसी विद्या दी। उसे लेकर इच्छानुसार चलने वाले कामग नामक विमान पर आरूढ़ हो वह लंकापुरी की ओर चला ।।167।। राक्षसों के इंद्र ने इसे वरदान स्वरूप लंका नगरी दी है यह जानकर मेघवाहन के समस्त भाई बांधव इस प्रकार हर्ष को प्राप्त हुए जिस प्रकार कि प्रातःकाल के समय कमलों के समूह विकास भाव को प्राप्त होते हैं ।।168।। विमल, अमल, कांत आदि अनेक विद्याधर परम प्रसन्न वैभव के साथ शीघ्र ही उसके समीप आये और अनेक प्रकार के मीठे मीठे शब्दों से उसका अभिनंदन करने लगे ।।169।। संतोष से भरे भाई-बंधुओं से वेष्टित होकर मेघवाहन ने लंका की ओर प्रस्थान किया। उस समय कितने ही विद्याधर उसकी बगल में चल रहे थे, कितने ही पीछे चल रहे थे, कितने ही आगे जा रहे थे, कितने ही हाथियों की पीठ पर सवार होकर चल रहे थे, कितने ही घोड़ों पर आरूढ़ होकर चल रहे थे, कितने ही जय-जय शब्द कर रहे थे, कितने ही दुंदुभियों―का मधुर शब्द कर रहे थे, कितने ही लोगों पर सफेद छत्रों से छाया हो रही थी तथा कितने ही ध्वजाओं और मालाओं से सुशोभित थे। पूर्वोक्त विद्याधरों में कोई तो मेघवाहन को आशीर्वाद दे रहे थे और कोई नमस्कार कर रहे थे। उन सबके साथ आकाश में चलते हुए मेघवाहन ने लवणसमुद्र देखा ।।170-172।। वह लवणसमुद्र आकाश के समान विस्तृत था, पाताल के समान गहरा था, तमालवन के समान श्याम था और लहरों के समूह से व्याप्त था ।।173।। मेघवाहन के समीप चलने वाले लोग कह रहे थे कि देखो यह जल के बीच पर्वत दीख रहा है, यह बड़ा भारी मकर छलांग भर रहा है और इधर यह बृहदाकार मच्छ चल रहा है ।।174।। इस प्रकार समुद्र की शोभा देखते हुए मेघवाहन ने त्रिकूटाचल के शिखर के नीचे स्थित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह लंका बहुत भारी प्रकार और गोपुरों से सुशोभित थी, अपनी लाल-कांति के द्वारा संध्या के समान आकाश को लिप्त कर रही थी, कुंद के समान सफेद, ऊँचे पताकाओं से सुशोभित, कोट और तोरणों से युक्त जिनमंदिरों से मंडित थी। लंकानगरी में प्रविष्ट हो सर्वप्रथम उसने जिनमदिंर में जाकर जिनेंद्रदेव की वंदना की और तदनंतर मंगलोपकरणों से युक्त अपने योग्य महल में निवास किया ।।175-177।। रत्नों की शोभा से जिनके नेत्र और नेत्रों के पंक्तियाँ आकर्षित हो रही थीं ऐसे अन्य भाई-बंधु भी यथायोग्य महलों में ठहर गये ।।178।।
अथानंतर ―किन्नरगीत नामा नगर में राजा रतिमयूख और अनुमति नामक रानी के सुप्रभा नामक कन्या थी। वह कन्या नेत्र और मन को चुराने वाली थी, काम की वसतिका थी, लक्ष्मीरूपी कुमुदिनी को विकसित करने के लिए चाँदनी के समान थी, लावण्य रूपी जल की वापिका थी और समस्त इंद्रियों को हर्ष उत्पन्न करने वाली थी। राजा मेघवाहन ने बड़े वैभव से उसके साथ विवाह किया ।।179-181।। तदनंतर समस्त विद्याधर लोग जिसकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे ऐसा मेघवाहन लंकापुरी में चिरकाल तक इस प्रकार रहता रहा जिस प्रकार कि इंद्र स्वर्ग में रहता है ।।182।। कुछ समय बाद पुत्रजन्म की इच्छा करने वाले राजा मेघवाहन के पुत्र उत्पन्न हुआ। कुल परंपरा के अनुसार महारक्ष इस नाम को प्राप्त हुआ ।।183।। किसी एक दिन राजा मेघवाहन वंदना के लिए अजितनाथ भगवान् के समवसरण में गया। वहाँ वंदना कर बड़ी विनय से अपने योग्य स्थान पर बैठ गया ।।184।। वहाँ जब चलती हुई अन्य कथा पूर्ण हो चुकी तब सगर चक्रवर्ती ने हाथ मस्तक से लगा नमस्कार कर अजितनाथ जिनेंद्र से पूछा ।।185।। कि हे भगवन्! इस अवसर्पिणी काल में आगे चलकर आपके समान धर्मचक्र के स्वामी अन्य कितने तीर्थंकर होंगे ।।186।। और तीनों जगत के जीवों को सुख देने वाले कितने तीर्थंकर पहले हो चुके हैं? यथार्थ में आप जैसे मनुष्यों की उत्पत्ति तीनों लोकों में आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है ।।187।। चौदह रत्न और सुदर्शन चक्र से चिह्नित लक्ष्मी के धारक चक्रवर्ती कितने होंगे? इसी तरह बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण भी कितने होंगे ।।188।। इस प्रकार सगर चक्रवर्ती के पूछने पर भगवान् अजितनाथ निम्नांकित वचन बोले। उसके वे वचन देव-दुंदुभि के गंभीर शब्द का तिरस्कार कर रहे थे तथा कानों के लिए परम आनंद उत्पन्न करने वाले थे ।।189।। भगवान् की भाषा अर्धमागधी भाषा थी और बोलते समय उनके ओठों को चंचल नहीं कर रही थी। यह बड़े आश्चर्य की बात थी ।।190।। उन्होंने कहा कि हे सगर! प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले चौबीस-चौबीस तीर्थंकर होते हैं ।।191।। जिस समय यह समस्त संसार मोह रूपी गाढ़ अंधकार से व्याप्त था, समस्त धर्म की चेतना से शून्य था, पाखंडों का घर और राजा से रहित था, उस समय राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव नामक प्रथम तीर्थंकर हुए थे। हे राजन! सर्वप्रथम उन्हीं के द्वारा इस कृतयुग की स्थापना हुई थी ।।192-193।। उन्होंने क्रियाओं में भेद होने से क्षत्रिय, बैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की कल्पना की थी। उनके समय में मेघों के जल से धान्यों की उत्पत्ति हुई थी ।।194।। उन्हीं के समय उनके समय तेज के धारक भरत पुत्र ने यज्ञोपवीत को धारण करने वाले ब्राह्मणों की भी रचना की थी ।।195।। सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार के आश्रम भी उन्हीं के समय उत्पन्न हुए थे। समस्त विज्ञान और कलाओं के उपदेश भी उन्हीं भगवान ऋषभदेव द्वारा दिए गए थे ।।196।। दीक्षा लेकर भगवान् ऋषभदेव ने अपना कार्य किया और जन्म संबंधी दु:खाग्नि से पीड़ित अन्य भव्य जीवों को शांतिरूप जल के द्वारा सुख प्राप्त कराया ।।197।। तीन लोक के जीव मिलकर इकट्ठे हो जावें तो भी आत्मतेज के सुशोभित भगवान् ऋषभदेव के अनुपम गुणों का अंत प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते ।।198।। शरीर त्याग करने के लिए भगवान् ऋषभदेव जब कैलास पर्वत पर आरूढ़ हुए थे तब आश्चर्य से भरे सुर और असुरों ने उन्हें सुवर्णमय शिखर के समान देखा था ।।199।। उनकी शरण में जाकर महाव्रत धारण करने वाले कितने ही भरत आदि मुनि निर्वाण धाम को प्राप्त हुए हैं ।।200।। कितने ही पुण्य उपार्जन कर स्वर्ग सुख को प्राप्त हैं और स्वभाव से ही सरलता को धारण करने वाले कितने ही लोग उत्कृष्ट मनुष्य पद को प्राप्त हुए हैं ।।201।। यद्यपि उनका मत अत्यंत उज्ज्वल था तो भी मिथ्यादर्शनरूपी राग से युक्त मनुष्य उसे उस तरह नहीं देख सके थे जिस तरह कि उल्लू सूर्य को नहीं देख सकते है ।।202।। ऐसे मिथ्यादृष्टि लोग कुधर्म की श्रद्धा कर नीचे देवों में उत्पन्न होते हैं। फिर तिर्यंचों में दुष्ट चेष्टाएँ कर नरकों में भ्रमण करते हैं ।।203।। तदनंतर बहुत काल व्यतीत हो जाने पर समुद्र के समान गंभीर ऋषभदेव का युग―तीर्थ विच्छिन्न हो गया और धार्मिक उत्सव नष्ट हो गया तब सर्वाथसिद्धि से चयकर फिर से कृतयुग की व्यवस्था करने के लिए जगत् का हित करने वाला मैं दूसरा अजितनाथ तीर्थंकर उत्पन्न हुआ हूँ ।।204-205।। जब आचार के विघात और मिथ्यादृष्टियों के वैभव से समीचीन धर्म ग्लानि को प्राप्त हो जाता है― प्रभावहीन होने लगता है तब तीर्थंकर उत्पन्न होकर उसका उद्योत करते हैं ।।206।। संसार के प्राणी उत्कृष्ट बंधुस्वरूप समीचीन धर्म को पुन: प्राप्त कर मोक्षमार्ग को प्राप्त होते हैं और मोक्ष स्थान की ओर गमन करने लगते हैं अर्थात् विच्छिन्न मोक्षमार्ग फिर से चालू हो जाता है ।।207।। तदनंतर जब मैं मोक्ष चला जाऊंगा तब क्रम से तीनों लोगों का उद्योत करने वाले बाईस तीर्थंकर और उत्पन्न होंगें ।।208।।
वे सभी तीर्थंकर मेरे ही समान कांति, वीर्य आदि से विभूषित होंगे, मेरे ही समान तीन लोक के जीवों से पूजा को प्राप्त होंगे, मेरे ही समान ज्ञान दर्शन के धारक होंगे ।।209।। उन तीर्थंकरों में तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती की लक्ष्मी का उपयोग कर अनंत सुख का कारण (अर, कुंथू, शांति) ज्ञान का साम्राज्य प्राप्त करेंगे ।। 210।। अब मैं उन सभी महापुरुषों के नाम कहता हूं। उनके ये नाम तीनों जगत में मंगल रूप है तथा हे राजन सगर! तेरे मन की शुद्धता करने वाले हैं ।।211।। पुरुषों में श्रेष्ठ ऋषभनाथ प्रथम तीर्थंकर हैं, जो हो चुके हैं, मैं अजितनाथ वर्तमान तीर्थंकर हूँ और बाकी बाईस तीर्थंकर भविष्यवत तीर्थंकर हैं ।।212।। मुक्ति के कारण संभव नाथ, भव्य जीवो को आनंदित करने वाले अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभ, अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले पुष्पदंत शील के सागर स्वरूप शीतलनाथ, उत्तम चेष्टाओं के द्वारा कल्याण करने वाले श्रेयोनाथ, सतपुरुषों के द्वारा पूजित वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुंथूनाथ, अरनाथ, मल्लीनाथ, सुव्रतनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और जिन मार्ग के धुरंधर वीरनाथ। ये इस अवसर्पिणी युग के चौबीस तीर्थंकर हैं। ये सभी देवाधिदेव और जीवों का कल्याण करने वाले होंगे ।।213-216।। इन सभी का जन्मावतरण रत्नों की वर्षा से अभिनंदित होगा तथा देव लोग क्षीरसागर के जल से सुमेरु पर्वत पर सबका जन्माभिषेक करेंगे।।217।। इन सभी का तेज, रूप, सुख और बल उपमा से रहित होगा और सभी इस संसार में जन्म रूपी शत्रु का विध्वंस करने वाले होंगे अर्थात मोक्षगामी होंगे ।।218।।जब महावीररूपी सूर्य अस्त हो जायेगा तब इस संसार में बहुत से पाखंडीरूपी जुगनू तेज को प्राप्त करेंगे ।।219।। वे पाखंड पुरुष इस चतुर्गतिरूप संसार कूप में स्वयं गिरेंगे तथा मोह से अंधे अन्य प्राणियों को भी गिरावेंगे ।।220।। तुम्हारे समान चक्रांकित लक्ष्मी का अधिपति एक चक्रवर्ती तो हो चुका है, अत्यंत शक्तिशाली द्वितीय चक्रवर्ती तुम हो और तुम दो के सिवाय दस चक्रवर्ती और होंगे ।।221।। चक्रवर्तीओं में प्रथम चक्रवर्ती भरत हो चुके हैं, द्वितीय चक्रवर्ती सगर तुम विद्यमान ही हो और तुम दो के सिवाय चक्र चिन्हित भोगों के स्वामी निम्नांकित दस चक्रवर्ती राजा और भी होंगे ।।222।। 3 सनटकुमार, 4 मघवा, 5 शांति, 6 कुंथू, 7 अर, 8 सुभूम, 9 महापद्म, 10 हरिषेण, 11 जयसेन और 12 ब्राहमदत्त ।।223।। नौ प्रतिनारायणों के साथ नौ नारायण होंगे और धर्म में जिनका चित्त लग रहा है ऐसे बलभद्र भी नौ होंगे ।।224-225।। हे राजन! जिस प्रकार हमने अवसर्पिणी काल मे होने वाले तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि का वर्णन किया है उसी प्रकार के तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि उतसर्पिणी काल में भी भारत और ऐरावत क्षेत्र में होंगे ।।226।। इस प्रकार कर्मों के वक्ष होने वाला जीवों का संसार भ्रमण, महापुरुषों की उत्पत्ति, काल चक्र का परिवर्तन, और आठ कर्मों से रहित जीवों का होने वाला अनुपम सुख इन सबका विचार कर बुद्धिमान मेघवाहन ने अपने मन में निम्न विचार किया ।।227-228।। हाय हाय, बढ़े दुख की बात है की जिन कर्मों के द्वारा यह जीव आताप को प्राप्त होता है कर्म रूपी मदिरा से उन्मत्त हुआ यह उन्हीं कर्मों को करने के लिए उत्साहित होता है ।।229।। जो प्रारंभ में ही मनोहर दिखते हैं और अंत में विष के समान दु:ख देते हैं अथवा दु:ख उत्पन्न करना ही जिनका स्वभाव है। ऐसे विषयों में क्या प्रेम करना है? ।। 230।। यह जीव धन, स्त्रियों तथा भाई-बंधुओं का चिरकाल तक संग करता है तो भी संसार में इसे अकेले ही भ्रमण करना पड़ता है ।।231।। जिस प्रकार कुत्ता के पिल्ले को जब तक रोटी का टुकड़ा देते रहते हैं तभी तक वह प्रेम करता हुआ पीछे लगा रहता है इसी प्रकार इन संसार के सभी प्राणियों को जब तक कुछ मिलता रहता है तभी तक ये प्रेमी बनकर अपने पीछे लगे रहते हैं ।। 232।। इतना भारी काल वीत गया पर इनमे से कौन मनुष्य ऐसा है जो भाई- बंधुओं, स्त्रियों, मित्रों तथा अन्य इष्ट जनों के साथ परलोक गया हो ।।233।। ये पंचेंद्रियों के भोग साँप के शरीर के समान भयंकर एवं नरक में गिराने वाले हैं। ऐसा कौन सचेतन―विचारक पुरुष है जो कि इन विषयों में आसक्ति करता हो? ।।234।। अहो! सबसे बड़ा आश्चर्य तो इस बात का है कि जो मनुष्य लक्ष्मी का सद्भावना से आश्रय लेते हैं यह उन्हे ही धोखा देती है- ठगती है, इससे बढ़कर दुष्टता क्या होगी ।।235।। जिस प्रकार स्वप्न में होने वाला इष्ट जनों का समागम अस्थायी है उसी प्रकार बंधुजनों का समागम भी अस्थायी है तथा बंधुजनों के समागम से जो सुख होता है वह इंद्रधनुष के समान क्षणमात्र के लिए ही होता है ।।236।। शरीर पानी के बबूले के समान सार से रहित है तथा यह जीवन बिजली की चमक के समान चंचल है ।।237।। इसलिए संसार निवास के कारणभूत इस समस्त परिकर को छोड़कर मैं तो कभी धोखा नहीं देने वाले एक धर्मरूप सहायक को ही ग्रहण करता हूँ ।।238।। तदनंतर ऐसा विचारकर वैराग्यरूपी कवच को धारण करने वाले बुद्धिमान् मेघवाहन विद्याधर ने महाराक्षस नामक पुत्र के लिए राज्यभार सौंपकर अजितनाथ भगवान् के समीप दीक्षा धारण कर ली ।।239।। राजा मेघवाहन के साथ अन्य एक सौ दस विद्याधर भी वैराग्य प्राप्त कर घररूपी बंदीगृह से बाहर निकले ।।240।।
यह महाराक्षस रूपी चंद्रमा भी दानरूपी किरणों के समूह से बंधुजन रूपी समुद्र को हुलसाता हुआ लंकारूपी आकाशांगण के बीच सुशोभित होने लगा ।।241।। उसका ऐसा प्रभाव था कि बड़े-बड़े विद्याधरों के अधिपति स्वप्न में भी उसकी आज्ञा प्राप्त कर हड़बड़ाकर जाग उठते थे और हाथ जोड़कर मस्तक से लगा लेते थे ।।242।। उसकी विमलाभा नाम की प्राणप्रिया वल्लभा थी जो छाया के समान सदा उसके साथ रहती थी ।।243।। उसके उमररक्ष, उदधिरक्ष और भानूरक्ष नामक तीन पुत्र हुए। ये तीनों ही पुत्र सब प्रकार के अर्थों से परिपूर्ण थे ।।244।। विचित्र विचित्र कार्यों से युक्त थे, उत्तुंग अर्थात उदार थे जन धन से विस्तार को प्राप्त थे इसलिए ऐसे जन पड़ते थे मानों तीनों लोक ही हों ।।245।। भगवान् अजितनाथ भी मुक्तिगामी भव्य जीवों को मोक्ष का मार्ग प्रवर्ताकर सम्मेद शिखर पर पहुँचे और वहाँ से आत्मस्वभाव को प्राप्त हुए―सिद्ध पद को प्राप्त हुए ।।246।। सगर चक्रवर्ती के इंद्राणी के समान तेज को धारण करने वाली छयानवे हजार रानियाँ थीं और उत्तम शक्ति को धारण करने वाले एवं रत्नमयी खंभों के समान देदीप्यमान साठ हजार पुत्र थे। उन पुत्रों के भी अनेक पुत्र थे ।।247।। किसी समय वे सभी पुत्र वंदना के लिए कैलास पर्वत पर गये। उस समय वे चरणों के विक्षेप से पृथिवी को कंपा रहे थे और पर्वतों के समान जान पड़ते थे ।।249।। कैलास पर्वत पर स्थित सिद्ध प्रतिमाओं की उन्होंने बड़ी विनय से वंदना की और तदनंतर वे दंड रत्न से उस पर्वत के चारों ओर खाई खोदने लगे ।।250।। उन्होंने दंड रत्न से पाताल तक गहरी पृथिवी खोद डाली यह देख नागेंद्र ने क्रोध से प्रज्वलित हो उनकी ओर देखा ।।251।। नागेंद्र की क्रोधाग्नि की ज्वालाओं से जिनका शरीर व्याप्त हो गया था ऐसे वे चक्रवर्ती के पुत्र भस्मी भूत हो गये ।।252।। जिस प्रकार विष की मारक शक्ति के बीच एक जीवक शक्ति भी होती है और उसके प्रभाव से वह कभी-कभी औषधि के समान जीवन का भी कारण बन जाती है इसी प्रकार उस नागेंद्र की क्रोधाग्नि में भी जहाँ जलाने की शक्ति थी वहाँ एकं अनुकंपारूप परिणति भी थी। उसी अनुकंपारूप परिणति के कारण उन पुत्रों के बीच में भीम, भगीरथ नामक दो पुत्र किसी तरह भस्म नहीं हुए ।।253।। सगर चक्रवर्ती के पुत्रों की इस आकस्मिक मृत्यु को देखकर वे दोनों ही दुःखी होकर सगर के पास आये ।।254।। सहसा इस समाचार के कहने पर चक्रवर्ती कहीं प्राण न छोड़ दें ऐसा विचारकर पंडितजनों ने भीम और भगीरथ को यह समाचार चक्रवर्ती से कहने के लिए मना कर दिया ।।255।।
तदनंतर राजा, कुल क्रमागत मंत्री, नाना शास्त्रों के पारगामी और विनोद के जानकार विद्वज्जन एकत्रित होकर चक्रवर्ती के पास गये। उस समय उन सबके मुख की कांति में किसी प्रकार का अंतर नहीं था तथा वेशभूषा भी सबकी पहले के ही समान थी। सब लोग विनय से जाकर पहले ही के समान चक्रवर्ती सगर के समीप पहुँचे ।।256-257।। नमस्कार कर सब लोग जब यथास्थान बैठ गये तब उनके संकेत से प्रेरित हो एक वृद्धजन ने निम्नांकित वचन कहना शुरू किया ।।258।।
हे राजन् सगर! आप संसार की इस अनित्यता को तो देखो जिसे देखकर फिर संसार की ओर मन प्रवृत्त नहीं होता ।।259।। पहले तुम्हारे ही समान पराक्रम का धारी राजा भरत हो गया है जिसने इस छह खंड की पृथ्वी को दासी के समान वश कर लिया था ।।260।। उसके महापराक्रमी अर्ककीर्ति नामक ऐसा पुत्र हुआ था कि जिसके नाम से यह सूर्यवंश अब तक चल रहा है ।।261।। अर्ककीर्ति के भी पुत्र हुआ और उसके पुत्र को भी पुत्र हुआ परंतु इस समय वे सब दृष्टिगोचर नहीं हैं ।।262।। अथवा इन सबको रहने दो, स्वर्गलोक के अधिपति भी जो कि वैभव से देदीप्यमान रहते हैं क्षणभर में दुःख से भस्म हो जाते हैं ।।263।। अथवा इन्हें भी जाने दो, तीनलोक को आनंदित करने वाले जो तीर्थकर हैं वे भी आयु समाप्त होने पर शरीर को छोड़कर चले जाते हैं ।।264।। जिस प्रकार पक्षी रात्रि के समय किसी बड़े वृक्ष पर बसकर प्रातःकाल दसों दिशाओं में चले जाते हैं उसी प्रकार अनेक प्राणी एक कुटुंब में एकत्रित होकर कर्मों के अनुसार फिर अपनी गति को चले जाते हैं ।।265-266।। किन्हीं ने उन पूर्व पुरुषों की चेष्टाएँ तथा उनका अत्यंत सुंदर शरीर अपनी आंखों से देखा है परंतु हम कथामात्र से उन्हें जानते हैं ।।267।। मृत्यु सभी बलवानों से अधिक बलवान् है क्योंकि इसने अन्य सभी बलवानों को परास्त कर दिया है ।।268।। अहो! यह बड़ा आश्चर्य है कि भरत आदि महापुरुषों के विनाश का स्मरण कर हमारी छाती नहीं फट रही है ।।269।। जीवों की धनसंपदाएँ, इष्ट समागम और शरीर, फेन, तरंग, इंद्रधनुष, स्वप्न, बिजली और बबूला के समान हैं ।।270।। संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जो इस विषय में उपमान हो सके कि जिस तरह यह अमर है उसी तरह हम भी अमर रहेंगे ।।271।। जो मगरमच्छों से भरे समुद्र को सुखाने के लिए समर्थ हैं अथवा अपने दोनों हाथों से सुमेरु पर्वत को चूर्ण करने में समर्थ हैं अथवा पृथ्वी को ऊपर उठाने में और चंद्रमा तथा सूर्य को ग्रसने में समर्थ हैं वे मनुष्य भी काल पाकर यमराज के मुख में प्रविष्ट हुए हैं ।।272-273।। तीनों लोकों के प्राणी इस दुर्लघनीय मृत्यु के वश हो रहे हैं। यदि कोई बाकी छूटे हैं तो जिनधर्म से उत्पन्न हुए सिद्ध भगवान् ही छूटे हैं ।।274।।
जिस प्रकार बहुत से राजा काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुए हैं उसी प्रकार हम लोग भी विनाश को प्राप्त होंगे। संसार का यह सामान्य नियम है ।।275।। जो मृत्यु तीन लोक के जीवों को समान रूप से आती है उसके प्राप्त होने पर ऐसा कौन विवेकी पुरुष होगा जो संसार के कारणभूत शोक को करेगा ।।276।। इस प्रकार वृद्ध मनुष्य के द्वारा यह चर्चा चल रही थी इधर चेष्टाओं के जानने में निपुण चक्रवर्ती ने सामने सिर्फ दो पुत्र देखे। उन्हें देखकर वह मन में विचार करने लगा।।277।। हमेशा सब पुत्र मुझे एक साथ नमस्कार करते थे पर आज दो ही पुत्र दिख रहे हैं और उतने पर भी इनके मुख अत्यंत दीन दिखाई देते हैं। जान पड़ता है कि शेष पुत्र क्षय को प्राप्त हो चुके हैं ।।278।। ये आगत राजा लोग इस भारी दुःख को साक्षात् कहने में समर्थ नहीं है इसलिए अन्योक्ति- दूसरे के बहाने कह रहे हैं ।।279।। तदनंतर सगर चक्रवर्ती यद्यपि शोक रूपी सर्प से डसा गया था तो भी सभासद जनों के वचनरूपी मंत्रों से प्रतिकार- सांतवना पाकर उसने प्राण नहीं छोड़े थे ।।280।। उसने संसार के सुख को केले के गर्भ के समान निसार जानकर भगीरथ को राज्य लक्ष्मी सौंपी और स्वयं दीक्षा धारण कर ली ।।281।। उत्कृष्ट लीला को धारण करनेवाला राजा सगर जब इस पृथ्वी का त्याग कर रहा था तब नाना नगर और सुवर्णादि की खानों से सुशोभित यह पृथ्वी उसके मन में जीर्णतृण के समान तुच्छ जान पड़ती थी ।।282।। तदनंतर सगर चक्रवर्ती भीमरथ नामक पुत्र के साथ अजितनाथ भगवान की शरण में गया। वहाँ दीक्षा धारण कर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया और तदनंतर सिद्धपद का आश्रय लिया अर्थात् मुक्त हुआ ।।283।।
सगर चक्रवर्ती का पुत्र जह्नु का लड़का भगीरथ राज्य करने लगा। किसी एक दिन उसने श्रुतसागर मुनिराज से पूछा ।।284।। कि हमारे बाबा सगर के पुत्र एक साथ किस कर्म के उदय से मरण को प्राप्त हुए हैं और उनके बीच में रहता हुआ भी मैं किस कर्म से बच गया हूँ ।।285।। भगवान् अजितनाथ ने कहा कि एक बार चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहा था सो मार्ग में वह अंतिक नामक ग्राम में पहुँचा ।।286।। संघ को देखकर उस अंतिक ग्राम के सब लोग कुवचन कहते हुए संघ की हँसी करने लगे परंतु उस ग्राम में एक कुंभकार था उसने गाँव के सब लोगों को मना कर संघ की स्तुति की ।।287।। उस गाँव में रहने वाले एक मनुष्य ने चोरी की थी सो अविवेकी राजा ने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है इसलिए घेरा डालकर सारा का सारा गाँव जला दिया ।।288।। जिस दिन वह गाँव जलाया गया था उस दिन मध्यस्थ परिणामों का धारक कुंभकार निमंत्रित होकर कहीं बाहर गया था ।।289।। जब कुंभकार मरा तो वह बहुत भारी धन का अधिपति वैश्य हुआ और गाँव के सब लोग मरकर कौड़ी हुए। वैश्य ने उन सब कौड़ियों को खरीद लिया ।।290।। तदनंतर कुंभकार का जीव मरकर राजा हुआ और गाँव के जीव मरकर गिंजाई हुए सो राजा के हाथी से चूर्ण होकर वे सब गिंजाइयो के जीव संसार में भ्रमण करते रहे ।।291।। कुंभकार के जीव राजा ने मुनि होकर देवपद प्राप्त किया और वहाँ से स्तुत होकर तू भगीरथ हुआ है तथा गाँव के सब लोग मरकर सगर चक्रवर्ती के पुत्र हुए हैं ।।262।। मुनि संघ की निंदा कर यह मनुष्य भव-भव में मृत्यु को प्राप्त होता है। इसी पाप से गाँव के सब लोग भी एक साथ मृत्यु को प्राप्त हुए थे और संघ की स्तुति करने से तू इस तरह संपन्न तथा दीर्घायु हुआ है ।।263।। इस प्रकार भगीरथ भगवत् कि मुख से पूर्वभव सुनकर अत्यंत शांत हो गया और मुनियों में मुख्य बनकर तप के योग्य पद को प्राप्त हुआ ।।294।। गौतम स्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन्! प्रकरण पाकर यह सगर का चरित्र मैंने तुझ से कहा। अब इस समय प्रकृत कथा कहूंगा सो सुन ।।295।।
अथानंतर- जो महारक्ष नामा विद्याधरों का राजा लंका में निष्कंटक राज्य करता था, विद्याबल से समुन्नत वह राजा एक समय अंतःपुर के साथ क्रीड़ा करने के लिए बड़े वैभव से उस प्रमदवन में गया जो कि कमलों से आच्छादित वापिकाओं से सुशोभित था, जिसके बीच में नाना रत्नों की प्रभा से ऊँचा दिखने वाला क्रीड़ा पर्वत बना हुआ था, खिले हुए फूलों से सुशोभित वृक्षों के समूह जिसकी शोभा बढ़ा रहे थे, अव्यक्त मधुर शब्दों के साथ इधर-उधर मँडराते हुए पक्षियों के समूह से व्याप्त था, जो रत्नमयी भूमि से वेष्टित था, जिसमें नाना प्रकार को कांति विकसित हो रही थी और जो सघन पल्लवों की समीचीन छाया से युक्त लतामंडपों से सुशोभित था ।।296-300।। राजा महारक्ष उस प्रमदवन में अपनी स्त्रियों के साथ कीड़ा करने लगा। कभी स्त्रियाँ उसे फूलों से ताड़ना करती थीं और कभी वह फूलों से स्त्रियों को ताड़ना करता था ।।301।। कोई स्त्री अन्य स्त्री के पास जाने के कारण यदि ईर्ष्या से कुपित हो जाती थी तो उसे वह चरणों में झुककर शांत कर लेता था। इसी प्रकार कभी आप स्वयं कुपित हो जाता था तो लीला से भरी स्त्री उसे प्रसन्न कर लेती थी ।।302।। कभी यह त्रिकूटाचल के तट के समान सुशोभित अपने वक्ष:स्थल से किसी स्त्री को प्रेरणा देता था तो अन्य स्त्री उसे भी अपने स्थूल स्तनों के आलिंगन से प्रेरणा देती थी ।।303।। इस तरह क्रीड़ा में निमग्न स्त्रियों के प्रच्छन्न शरीरों को देखता हुआ यह राजा रतिरूप सागर के मध्य में स्थित होता हुआ प्रमदवन में इस प्रकार क्रीड़ा करता रहा जिस प्रकार कि नंदन वन में इंद्र क्रीड़ा करता है ।।304।।
अथानंतर सूर्य अस्त हुआ और रात्रि का प्रारंभ होते ही कमलों के संपुट संकोच को प्राप्त होने लगे। राजा महारक्ष ने एक कमल संपुट के भीतर भरा हुआ भौंरा देखा ।।305।। उसी समय मोहनीय कर्म का उदय शिथिल होने से उसके हृदय में संसार भ्रमण को नष्ट करने वाली निम्नांकित चिंता उत्पन्न हुई ।।306।। वह विचार करने लगा कि देखो मकरंद के रस में आसक्त हुआ यह मूढ़ भौंरा तृप्त नहीं हुआ इसलिए मरण को प्राप्त हुआ। आचार्य कहते हैं कि इस अंतरहित अनंत इच्छा को धिक्कार हो ।।307।। जिस प्रकार इस कमल में आसक्त हुआ यह भौंरा मृत्यु को प्राप्त हुआ है उसी प्रकार स्त्रियों के मुखरूपी कमलों में आसक्त हुए हम लोग भी मृत्यु को प्राप्त होंगे ।।308।। जब कि यह भौंरा घ्राण और रसना इंद्रिय के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हुआ है तब हम तो पाँचों इंद्रियों के वशीभूत हो रहे हैं अत: हमारी बात ही क्या है? ।।309।। अथवा यह भौंरा तिर्यंच जाति का है- अज्ञानी है अत: इसका ऐसा करना ठीक भी है परंतु हम तो ज्ञान से संपन्न हैं फिर भी इन विषयों में क्यों आसक्त हो रहे हैं? ।।310।। शहद लपेटी तलवार की उस धार के चाटने में क्या सुख होता है? जिस पर पड़ते ही जीभ के सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ।।311।। विषयो में कैसा सुख होता है सो जान पड़ता है उन विषयों में जिनमें कि सुख की बात दूर रही किंतु दुःख की संतति ही उत्तरोत्तर प्राप्त होती है ।।312।। किंपाक फल के समान विषयों से जो मनुष्य विमुख हो गये हैं मैं उन सब महापुरुषों को मन वचन-काय से नमस्कार करता हूँ ।।313।। हाय-हाय, बडे खेद की बात है कि मैं बहुत समय तक इन दुष्ट विषयों से वंचित होता रहा―धोखा खाता रहा। इन विषयों की आसक्ति अत्यंत विषम है तथा विष के समान मारने वाली है ।।314।।
अथानंतर उसी समय उस वन में श्रुतसागर इस सार्थक नाम को धारण करने वाले एक महा मुनिराज वहाँ आये ।।315।। श्रुतसागर मुनिराज अत्यंत सुंदर रूप से युक्त थे, वे कांति से चंद्रमा को लज्जित करते थे, दीप्ति से सूर्य का तिरस्कार करते थे और धैर्य से सुमेरु को पराजित करते थे ।।316।। उनकी आत्मा सदा धर्मध्यान में लीन रहती थी, वे रागद्वेष से रहित थे, उन्होंने मन-वचन-काय की निरर्थक प्रवृत्तिरूपी तीन दंडों को भग्न कर दिया था, कषायों के शांत करने में वे सदा तत्पर रहते थे ।।317।। वे इंद्रियों को वश करने वाले थे, छह काय के जीवों से स्नेह रखते थे, सात भयों और आठ मदों से रहित थे ।।318।। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् धर्म ही शरीर के साथ संबंध को प्राप्त हुआ है। वे मुनिराज उत्तम चेष्टा के धारक बहुत बड़े मुनिसंघ से सहित थे ।।319।। जिन्होंने अपने शरीर की कांति से समस्त दिशाओं के अग्रभाग को आच्छादित कर दिया था ऐसे वे मुनिराज उस उद्यान के विस्तृत, शुद्ध एवं निर्जंतुक पृथिवी तल पर विराजमान हो गये ।।320।। जब राजा महारक्ष को वनपालों के मुख से वहाँ विराजमान इन मुनिराज का पता चला तो वह उत्कृष्ट हृदय को धारण करता हुआ उनके सम्मुख गया ।।321।।
अथानंतर- अत्यंत प्रसन्न मुख की कांतिरूपी जल के द्वारा प्रक्षालन करता हुआ राजा महारक्ष मुनिराज के कल्याणदायी चरणों में जा पड़ा ।।322।। उसने शेष संघ को भी नमस्कार किया, सबसे धर्म संबंधी कुशल-क्षेम पूछी और फिर क्षणभर ठहरकर भक्तिभाव से धर्म का स्वरूप पूछा ।।323।। तदनंतर मुनिराज के हृदय में जो उपशम भावरूपी चंद्रमा विद्यमान था उसकी किरणों के समान निर्मल दाँतों की किरणों के समूह से चांदनी को प्रकट हुए मुनिराज कहने लगे ।।324।। उन्होंने कहा कि हे राजन्! जिनेंद्र भगवान् ने एक अहिंसा के सद्भाव को ही धर्म कहा है, बाकी सत्यभाषण आदि सभी इसके परिवार हैं ।।325।। संसारी प्राणी कर्मो के उदय से जिस जिस गति में जाते हैं जीवन के प्रति मोहित होते हुए वे उसी उसी में प्रेम करने लगते हैं ।।326।। एक ओर तीन लोक की प्राप्ति हो रही हो और दूसरी ओर मरण की संभावना हो तो मरण से डरने वाले ये प्राणी तीन लोक का लोभ छोड़कर जीवित रहने की इच्छा करते हैं इससे जान पड़ता है कि प्राणियों को जीवन से बढ़कर और कोई वस्तु प्रिय नहीं है ।।327।। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है? यह बात तो अपने अनुभव से ही जानी जा सकती है कि जिस प्रकार हमें अपना जीवन प्यारा है उसी प्रकार समस्त प्राणियों को भी अपना जीवन प्यारा होता है ।।328।। इसलिए जो क्रूरकर्म करने वाले मूर्ख प्राणी, जीवों के ऐसे प्रिय जीवन को नष्ट करते हैं उन्होंने कौन सा पाप नहीं किया? ।।329।। जीवो के जीवन को नष्ट कर प्राणी कर्मों के भार से इतने वजनदार हो जाते हैं कि वे पानी में लोहपिंड के समान सीधे नरक में ही पड़ते हैं ।।330।। जो वचन से तो मानो मधु झरते हैं पर हृदय में विष के समान दारुण हैं। जो इंद्रियों के वश में स्थित हैं और बाहर से जिनका मन त्रैकालिक संध्याओं में निमग्न रहता है ।।331।। जो योग्य आचार से रहित हैं और इच्छानुसार मनचाही प्रवृत्ति करते हैं ऐसे दुष्ट जीव तिर्यंचयोनि में परिभ्रमण करते हैं ।।332।। सर्वप्रथम तो जीवों को मनुष्यपद प्राप्त होना दुर्लभ है, उससे अधिक दुर्लभ सुंदर रूप का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ धन समृद्धि का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ आर्यकुल में उत्पन्न होना है, उससे अधिक दुर्लभ विद्या का समागम होना है, उससे अधिक दुर्लभ हेयोपादेय पदार्थ को जानना है और उससे अधिक दुर्लभ धर्म का समागम होना है ।।333-334।।
कितने ही लोग धर्म करके उसके प्रभाव से स्वर्ग में देवियों आदि के परिवार से मानसिक सुख प्राप्त करते हैं ।।335।। वहाँ से चयकर, विष्ठा तथा मूत्र से लिप्त बिलबिलाते कीड़ाओं से युक्त, दुर्गंधित एवं अत्यंत दु:सह गर्भगृह को प्राप्त होते हैं ।।336।। गर्भ में यह प्राणी चर्म के जाल से आच्छादित रहते हैं, पित्त, श्लेष्मा आदि के बीच में स्थित रहते हैं और नाल द्वार से च्युत माता द्वारा उपभुक्त आहार के द्रव का आस्वादन करते रहते हैं ।।337।। वहाँ उनके समस्त अंगोपांग संकुचित रहते हैं और दुःख के भार से वे सदा पीड़ित रहते हैं। वहाँ रहने के बाद निकलकर उत्तम मनुष्य पर्याय प्राप्त करते हैं ।।338।। सो कितने ही ऐसे पापी मनुष्य जो कि जन्म से ही क्रूर होते हैं, नियम, आचार-विचार से विमुख रहे हैं और सम्यग्दर्शन से शून्य होते हैं, विषयों का सेवन करते हैं ।।339।। जो मनुष्य काम के वशीभूत होकर सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाते हैं वे महादु:ख प्राप्त करते हुए संसाररूपी समुद्र में परिभ्रमण करते हैं ।।340।। दूसरे प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न करनेवाला वचन प्रयत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए क्योंकि ऐसा वचन हिंसा का कारण है और हिंसा संसार का कारण है ।।341।।
इसी प्रकार चोरी, परस्त्री का समागम तथा महापरिग्रह की आकांक्षा, यह सब भी छोड़ने के योग्य है क्योंकि यह सभी पीड़ा के कारण हैं ।।342।। विद्याधरों का राजा महारक्ष, मुनिराज के मुख से धर्म का उपदेश सुनकर वैराग्य को प्राप्त हो गया। तदनंतर उसने नमस्कार कर मुनिराज से अपना पूर्व भव पूछा ।।343।। चार ज्ञान के धारी श्रुतसागर मुनि विनय से समीप में बैठे हुए महारक्ष विद्याधर से संक्षेप पूर्वक कहने लगे ।।344।।
हे राजन्! भरत क्षेत्र के पोदनपुर नगर में एक हित नाम का मनुष्य रहता था। माधवी उसकी स्त्री का नाम था और तू उन दोनों के प्रीति नाम का पुत्र था ।।345।। उसी पोदनपुर नगर में उदयाचल राजा और अर्हच्छी नाम की रानी से उत्पन्न हुआ हेमरथ नाम का राजा राज्य करता था ।।346।। एक दिन उसने जिनमंदिर में बड़ी श्रद्धा के साथ लोगों को आश्चर्य में डालने वाली बड़ी पूजा की ।।347।। उस पूजा के समय लोगों ने बड़े जोर से जय-जय शब्द किया, उसे सुनकर तूने भी आनंदविभोर हो जय-जय शब्द उच्चारण किया ।।348।। तू इस आनंद के कारण घर के भीतर ठहर नहीं सका इसलिए बाहर निकलकर आंगन में इस तरह नृत्य करने लगा जिस प्रकार कि मयूर मेघ का शब्द सुनकर नृत्य करने लगता है ।।349।। इस कार्य से तूने जो पुण्य बंध किया था उसके फलस्वरूप तू मरकर यक्षों के नेत्रों को आनंद देने वाला यक्ष हुआ ।।350।। तदनंतर किसी दिन पश्चिम विदेह क्षेत्र के कांचनपुर नगर में शत्रुओं ने मुनियों के ऊपर उपसर्ग करना शुरू किया ।।351।। सो तूने उन शत्रुओं को अलग कर धर्मसाधन में सहाय भूत मुनियों के शरीर की रक्षा की। इस कार्य से तूने बहुत भारी पुण्य का संचय किया ।।352।। तदनंतर वहाँ से च्युत होकर तू विजयार्ध पर्वत पर तडिदंगद विद्याधर और श्रीप्रभा विद्याधरी के उदित नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ ।।353।। एक बार अमरविक्रम नामक विद्याधरों का राजा मुनियों की वंदना के लिए आया था सो उसे देखकर तूने निदान किया कि मेरे भी ऐसा वैभव हो ।।354।। तदनंतर महातपश्चरण कर तू दूसरे ऐशान स्वर्ग में देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर मेघवाहन का पुत्र महारक्ष हुआ है ।।355।। जिस प्रकार सूर्य के रथ का चक्र निरंतर भ्रमण करता रहता है इसी प्रकार तूने भी स्त्री तथा जिह्वा इंद्रिय के वशीभूत होकर संसार में परिभ्रमण किया है ।।356।। तूने दूसरे भवों में जितने शरीर प्राप्त कर छोड़े है यदि वे एकत्रित किये जावें तो तीनों लोकों में कभी न समावें। ।।357।। जो करोड़ों कल्प तक प्राप्त होनेवाले देवो के भोगों से तथा विद्याधरों के मनचाहे भोग-विलास से नहीं हो सका वह तू केवल आठ दिन तक प्राप्त होने वाले स्वप्न अथवा इंद्रजाल सदृश भोगों से कैसे तृप्त होगा? इसलिए अब भोगों की अभिलाषा छोड़ और शांति भाव धारण कर ।।358-359।। तदनंतर मुनिराज के मुख से अपनी आयु का क्षय निकटस्थ जानकर उसे विषाद नहीं हुआ किंतु इस संसार चक्र में अब भी मुझे अनेक भव धारण करना है यह जानकर कुछ खेद अवश्य हुआ ।।360।। तदनंतर उसने अमररक्ष नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्यपद पर स्थापित कर भानुरक्ष नामक लघु पुत्र को युवराज बना दिया ।।361।। और स्वयं समस्त परिग्रह का त्याग कर परमार्थ में तत्पर हो स्तंभ के समान निश्चल होता हुआ लोभ से रहित हो गया ।।362।। शरीर का पोषण करने वाले आहार पानी आदि समस्त पदार्थो का त्याग कर वह शत्रु तथा मित्र में सम- मध्यस्थ बन गया और मन को निश्चल कर मौन व्रत ले जिन मंदिर के मध्य में बैठ गया। इन सब कार्यों के पहले उसने अर्हंत भगवान की अभिषेक पूर्वक विशाल पूजा की ।।363-364।। अर्हंत भगवान के चरणों के ध्यान से जिसकी चेतना पवित्र हो गयी थी ऐसा वह विद्याधर समाधिमरण कर उत्तम देव हुआ ।।365।।
अथानंतर अमररक्ष ने, किन्नरगीत नामक नगर में श्रीधर राजा और विद्या रानी से समुत्पन्न रति नामक स्त्री को प्राप्त किया अर्थात् उसके साथ विवाह किया ।।366।। और भानुरक्ष ने गंधर्व गीत नगर में राजा सुरसन्निभ और गांधारी रानी के गर्भ से उत्पन्न, गंधर्वा नाम की कन्या के साथ विवाह किया ।।367।। अमररक्ष के अत्यंत सुंदर दस पुत्र और देवांगनाओं के समान सुंदर रूप वाली, गुणरूप आभूषणों से सहित छह पुत्रियां उत्पन्न हुई ।।368।। इस प्रकार भानुरक्ष के भी अपनी कीर्ति के द्वारा दिग्दिगंत को व्याप्त करने वाले दस पुत्र और छह पुत्रियां उत्पन्न हुई ।।369।।
हे श्रेणिक ! उन विजयी राजपुत्रों ने अपने नाम के समान नाम वाले बड़े-बड़े सुंदर नगर बसाये ।।370।। उन नगरों के नाम सुनो- 1 संध्याकार, 2 सुवेल, 3 मनोलाद, 4 मनोहर, 1 हंसद्वीप, 6 हरि, 7 योध, 8 समुद्र, 9 कांचन और 10 अर्धस्वर्गोत्कृष्ट। स्वर्ग की समानता रखनेवाले ये दस नगर, महाबुद्धि और पराक्रम को धारण करने वाले अमररक्ष के पुत्रों ने बसाये थे ।।371-372।। इसी प्रकार 1 आवर्त, 2 विघट, 3 अंभोद, 4 उत्कट, 5 स्फुट, 6 दुर्ग्रह, 7 तट, 8 तोय, 9 आवली और 10 रत्नद्वीप ये दस नगर भानुरक्ष के पुत्रों ने बसाये थे ।।373।। जिन में नाना रत्नों का उद्योत फैल रहा था तथा जो सुवर्णमयी दीवालों के प्रकाश से जगमगा रहे थे ऐसे वे सभी नगर क्रीड़ा के अभिलाषी राक्षसों के निवास हुए थे ।।374।। वहीं पर दूसरे द्वीपों में रहनेवाले विद्याधरों ने बड़े उत्साह से अनेक नगरों की रचना की थी ।।375।।
अथानंतर- अमररक्ष और भानुरक्ष दोनों भाई, पुत्रों को राज्य देकर दीक्षा को प्राप्त हुए और महातमरूपी धन के धारक हो सनातन सिद्ध पद को प्राप्त हुए ।।376।। इस प्रकार जिसमें बड़े―बड़े पुरुषों द्वारा पहले तो राज्य पालन किया गया और तदनंतर दीक्षा धारण की गयी ऐसी राजा मेघवाहन की बहुत बड़ी संतान की परंपरा क्रमपूर्वक चलती रही ।।377।। उसी संतान परंपरा में एक मनोवेग नामक राक्षस के, राक्षस नाम का ऐसा प्रभावशाली पुत्र हुआ कि उसके नाम से यह वंश ही राक्षस वंश कहलाने लगा ।।378।। राजा राक्षस के सुप्रभा नाम की रानी थी, उससे उसके आदित्यगति और बृहत्कीर्ति नाम के दो पुत्र हुए। ये दोनों ही पुत्र सूर्य और चंद्रमा के समान कांति से युक्त थे ।।379।। राजा राक्षस, राज्य रूपी रथ का भार उठाने में वृषभ के समान उन दोनों पुत्रों को संलग्न कर तप धर स्वर्ग को प्राप्त हुए ।।380।। उन दोनों भाइयों में बड़ा भाई आदित्यगति राजा था और छोटा भाई बृहत्कीर्ति युवराज था। आदित्यगति की स्त्री का नाम सदनपद्मा था और बृहत्कीर्ति की स्त्री पुष्पनखा नाम से प्रसिद्ध थी ।।381।। आदित्यगति के भीमप्रभ नाम का पुत्र हुआ जिसकी देवांगनाओं के समान कांति वाली एक हजार स्त्रियां थीं ।।382।। उन स्त्रियो से उसके एक सौ आठ बलवान् पुत्र हुए थे। ये पुत्र स्तंभों के समान चारों ओर से अपने राज्य को धारण किये थे ।।383।। तदनंतर राजा भीमप्रभ ने अपने बड़े पुत्र के लिए राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली और क्रम से तपश्चरण कर परमपद प्राप्त कर लिया ।।384।। इस प्रकार राक्षस देवों के इंद्र, भीम सुभीमने जिन पर अनुकंपा की थी ऐसे मेघवाहन की वंश परंपरा के अनेक विद्याधर राक्षस द्वीप में निवास करते रहे ।।385।। पुण्य जिनकी रक्षा कर रहा था ऐसे राक्षसवंशी विद्याधर चूँकि उस राक्षस जातीय देवों के द्वीप की रक्षा करते थे इसलिए वह द्वीप राक्षस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और उस द्वीप के रक्षक विद्याधर राक्षस कहलाने लगे ।।386।।
गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि हे राजन! यह राक्षसवंश की उत्पत्ति मैंने तुझ से कही। अब आगे इस वंश के प्रधान पुरुषों का उल्लेख करूंगा। सो सुन ।।387।। भीमप्रभ का प्रथम पुत्र पूजार्ह नाम से प्रसिद्ध था सो वह अपने जितभास्कर नामक पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षित हुआ ।।388।। जितभास्कर संपरिकीर्ति नामक पुत्र को राज्य दे मुनि हुआ और संपरिकीर्ति सुग्रीव के लिए राज्य सौंप दीक्षा को प्राप्त हुआ ।।389।। सुग्रीव, हरिग्रीव को अपने पद पर बैठाकर उग्र तपश्चरण की आराधना करता हुआ उत्तम देव हुआ ।।390।। हरिग्रीव भी श्रीग्रीव के लिए राज्यसंपत्ति देकर मुनिव्रत धार वन में चला गया ।।391।। श्रीग्रीव सुमुख के लिए राज्य देकर पिता के द्वारा अंगीकृत मार्ग को प्राप्त हुआ और बलवान् सुमुख ने सुव्यक्त नामक पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली ।।392।। सुव्यक्त ने अमृतवेग नामक पुत्र के लिए राक्षसवंश की संपदा सौंपकर तप धारण किया। अमृतवेग ने भानुगति को और भानुगति ने चिंतागति को वैभव समर्पित कर साधुपद स्वीकृत किया ।।393।। इस प्रकार इंद्र, इंद्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवि, इंद्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुंड, मारण, भीष्म, द्विपवाह, अरिमर्दंन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चंड, लंकाशोक, मयूरवान्, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कांत, अरिसंत्रास, चंद्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ और नक्षत्रदमन आदि करोड़ों विद्याधर उस वंश में हुए। ये सभी विद्याधर माया और पराक्रम से सहित थे तथा विद्या, बल और महाकांति के धारक थे ।।394-399।। ये सभी लंका के स्वामी, विद्यानुयोग में कुशल थे, सबके वक्षःस्थल लक्ष्मी से सुशोभित थे, सभी सुंदर थे और प्राय: स्वर्ग से च्युत होकर लंका में उत्पन्न हुए थे ।।400।। ये राक्षसवंशी राजा, संसार से भयभीत हो वंश परंपरा से आगत लक्ष्मी अपने पुत्रों के लिए सौंपकर दीक्षा को प्राप्त हुए थे ।।401।। कितने ही राजा कर्मो को नष्ट कर त्रिलोक के शिखर को प्राप्त हुए और कितने ही पुण्योदय के प्रभाव से स्वर्ग में उत्पन्न हुए थे ।।402।। इस प्रकार बहुत से राजा व्यतीत हुए। उनमें लंका का अधिपति एक घनप्रभ नामक राजा हुआ। उसकी पपा नामक स्त्री के गर्भ में उत्पन्न हुआ कीर्ति धवल नाम का प्रसिद्ध पुत्र हुआ। समस्त विद्याधर उसी का शासन मानते थे और जिस प्रकार स्वर्ग में इंद्र परमैश्वर्य का अनुभव करता है उसी प्रकार वह कीर्तिधवल भी लंका में परमैश्वर्य का अनुभव करता था ।।403-404।।
इस तरह पूर्वभव में किये तपश्चरण के वल से पुरुष, मनुष्यगति तथा देवगति में भोग भोगते हैं, वहाँ उत्तम गुणो से युक्त तथा नाना गुणों से भूषित शरीर के धारक होते हैं, कितने ही मनुष्य कर्मो के पलट को भस्म कर सिद्ध हो जाते हैं, तथा जिनकी बुद्धि दुष्कर्म में आसक्त है ऐसे मनुष्य इस लोक में भारी निंदा को प्राप्त होते हैं और मरने के बाद कुयोनि में पड़कर अनेक प्रकार के दु: ख भोगते हैं। ऐसा जानकर हे भव्य जीवो! ? पापरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य की सदृशता प्राप्त करो ।।405-406।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य विरचित पद्म चरित में
राक्षस वंश निरूपण करने वाला पंचम पर्व पूर्ण हुआ ।।5।।