ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 70
From जैनकोष
सत्तरहवां पर्व
अथानंतर रावण बहुरूपिणी विद्या साध रहा है । यह समाचार गुप्तचरों के मुख से राम की सेना में सुनाई पड़ा सो विजय प्राप्त करने में तत्पर विद्याधर राजा कहने लगे कि ऐसा सुनने में आया है कि लंका का स्वामी रावण श्रीशांति-जिनेंद्र के मंदिर में प्रवेश कर विद्या सिद्ध करने में लगा हुआ है ॥1-2॥ वह बहुरूपिणी विद्या चौबीस दिन में सिद्धि को प्राप्त होती है तथा देवों का भी मद भंजन करने वाली है ॥3॥ इसलिए वह भगवती विद्या जब तक उसे सिद्ध नहीं होती है तब तक शीघ्र ही जाकर नियम में बैठे रावण को क्रोध उत्पन्न करो ॥4॥ बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हो जाने पर वह इंद्रों के द्वारा भी नहीं जीता जा सकेगा फिर हमारे जैसे क्षुद्र पुरुषों की तो कथा ही क्या है ? ॥5॥ तब विभीषण ने कहा कि यदि निश्चित ही यह कार्य करना है तो शीघ्र ही प्रारंभ किया जाय । आप लोग विलंब किसलिए कर रहे हैं ।। 6 ।꠰ तदनंतर इस प्रकार सलाह कर सब विद्याधरों ने श्रीराम से कहा कि इस अवसर पर लंका ग्रहण की जाय ॥7॥ रावण को मारा जाय और इच्छानुसार कार्य किया जाय । इस प्रकार कहे जाने पर महापुरुषों की चेष्टा से युक्त धीरवीर राम ने कहा कि जो मनुष्य अत्यंत भयभीत हैं उन आदि के ऊपर भी जब हिंसापूर्ण कार्य करना योग्य नहीं हैं तब जो नियम लेकर जिन-मंदिर में बैठा है उस पर यह कुकृत्य करना कैसे योग्य हो सकता है ? ॥8-6 ।। जो उच्च कुल में उत्पन्न हैं, अहंकार से उन्नत हैं तथा शस्त्र चलाने के कार्य में जिन्होंने श्रम किया है ऐसे क्षत्रियों की यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं हैं ॥10॥
तदनंतर हमारे स्वामी राम महापुरुष हैं, ये अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करेंगे ऐसा निश्चय कर उन्होंने एकांत में अपने-अपने कुमार लंका की ओर रवाना किये ।। 11 ।। तत्पश्चात् कल चलेंगे इस प्रकार निश्चय कर लेने पर भी विद्याधर आठ दिन तक सलाह ही करते रहे ।। 12॥ अथानंतर पूर्णिमा का दिन आया तब पूर्ण चंद्रमा के समान मुख के धारक, कमल के समान दीर्घ नेत्रों से युक्त एवं नाना लक्षणों की ध्वजाओं से सुशोभित विद्याधर कुमार सिंह, व्याघ्र, वराह, हाथी और शरभ आदि से युक्त रथों तथा विमानों पर आरूढ़ हो निशंक होते हुए आदर के साथ लंका की ओर चले । उस समय उत्तमोत्तम शस्त्रों को धारण करने वाले तथा रावण को कुपित करने की भावना से युक्त वे वानरकुमार भवनवासी देवों के समान देदीप्यमान हो रहे थे । ॥13-15 ।। उन कुमारों से कुछ के नाम इस प्रकार हैं । मकरध्वज, साटोप, चंद्राभ, वातायन, गुरुभर, सूर्यज्योति, महारथ, प्रीतिंकर, दृढ़रथ, समुन्नतबल, नंदन, सर्वद, दुष्ट, सिंह, सर्वप्रिय, नल, नील, समुद्रघोष, पुत्रसहित पूर्णचंद्र, स्कंद, चंद्ररश्मि, जांबव, संकट, समाधिबहल, सिंहजघन, इंद्रवज्र और बल । इनमें से प्रत्येक के रथ में सौ-सौ घोड़े जुते हुए थे ।। 16-19॥ पदातियों के मध्य में स्थित, परम तेजस्वी शेष कुमार मन के समान वेगशाली सिंह, वराह, हाथी और व्याघ्ररूपी वाहनों के द्वारा लंका की ओर चले ॥20॥ जिनके ऊपर नाना चिह्नों को धारण करने वाले छत्र फिर रहे थे, जो नाना तोरणों से चिह्नित थे, आकाशांगण में जो रंग-बिरंगी ध्वजाओं से सहित थे, जिनकी सेनारूपी सागर से अत्यंत गंभीर शब्द उठ रहा था, जो मान को धारण कर रहे थे, तथा अतिशय उन्नत थे ऐसे वे सब कुमार दिशाओं को आच्छादित करते हुए लंकापुरी के बाह्य मैदान में पहुँचकर इस प्रकार विचार करने लगे कि यह क्या आश्चर्य है ? जो यह लंका निश्चिंत स्थित है ॥21-23॥ इस लंका के निवासी स्वस्थ तथा शांतचित्त दिखाई पड़ते हैं और यहाँ के योद्धा भी ऐसे स्थित हैं मानो इनके यहाँ पहले युद्ध हुआ ही नहीं हो ॥24॥ अहो लंकापति का यह विशाल धैर्य, यह उन्नत गांभीर्य, और यह लक्ष्मी तथा प्रताप से उन्नत सत्त्व-बल धन्य हैं ॥25॥ यद्यपि महाबलवान् कुंभकर्ण, इंद्रजित् तथा मेघनाद बंदीगृह में पड़े हुए हैं, तथा प्रचंड बलशाली भी जिन्हें पकड़ नहीं सकते थे ऐसे अक्ष आदि अनेक शूरवीर युद्ध में मारे गये हैं तथापि इस धनी को कोई शंका उत्पन्न नहीं हो रही है।। 26-27॥ इस प्रकार विचारकर तथा परस्पर वार्तालाप कर परम आश्चर्य को प्राप्त हुए कुमार कुछ शंकित से हो गये ॥28॥
तदनंतर सुभूषण नाम से प्रसिद्ध विभीषण के पुत्र ने, धैर्यशाली, भ्रांतिरहित वातायन से इस प्रकार कहा कि ॥29 ।। भय छोड़ शीघ्र ही लंका में प्रवेश कर कुलांगनाओं को छोड़ इस समस्त लोगों को अभी हिलाता हूँ ॥30॥ उसके वचन सुन विद्याधरों के कुमार समस्त नगरी को ग्रसते हुए के समान सर्वत्र छा गये । वे कुमार महाशूरवीरता से अत्यंत उद्दंड थे, कठिनता से वश में करने योग्य थे, कलह-प्रिय थे, आशीविष-सर्प के समान थे, अत्यंत क्रोधी थे, गर्वीले थे, बिजली के समान चंचल थे, भोगों से लालित हुए थे, अनेक संग्रामों में कीर्ति को उपार्जित करने वाले थे, बहुत भारी सेना से युक्त थे तथा शस्त्रों की किरणों से सुशोभित थे ॥31-33 ।। सिंह तथा हाथी आदि के शब्दों से मिश्रित भेरी एवं दुंदुभि आदि के अत्यंत भयंकर शब्द को सुन लंका परम कंपन को प्राप्त हुई― सारी लंका काँप उठी ॥34॥ जो आश्चर्यचकित हो भयभीत हो गई थीं, जिनके नेत्र अत्यंत चंचल थे और जिनके आभूषण गिर-गिरकर शब्द कर रहे थे ऐसी स्त्रियाँ सहसा पतियों की गोद में जा छिपी ॥35 ।। जो अत्यंत विह्वल थे तथा जिनके वस्त्र वायु से इधर-उधर उड़ रहे थे ऐसे विद्याधरों के युगल आकाश में बहुत ऊँचाई पर शब्द करते हुए चक्राकार भ्रमण करने लगे ॥36॥ रावण का जो भवन महारत्नों की किरणों से देदीप्यमान था, जिसमें मंगलमय तुरही तथा मृदंगों का गंभीर शब्द हो रहा था, जिसमें रहने वाली स्त्रियाँ अविरल उत्तम संगीत तथा नृत्य में निपुण थीं, जो जिनपूजा में तत्पर कन्याजनों से व्याप्त थी और जिसमें उत्तम स्त्रियों के विलासों से भी काम उन्माद को प्राप्त नहीं हो रहा था ऐसे रावण के भवन में जो अंतःपुररूपी सागर विद्यमान था वह तुरही के कठोर शब्द को सुन क्षोभ को प्राप्त हो गया ॥37-38 ।। सब ओर से आकुलता से भरा भूषणों के शब्द से मिश्रित ऐसा मनोहर एवं गंभीर शब्द उठा जो मानो वीणा का ही विशाल शब्द था ॥40॥ कोई स्त्री विह्वल होती हुई विचार करने लगी कि हाय-हाय यह क्या कष्ट आ पड़ा । शत्रुओं के द्वारा किये हुए इस क्रूरता पूर्ण कार्य में क्या आज मरना पड़ेगा ? ॥41॥ कोई स्त्री सोचने लगी कि न जाने मुझे पापी लोग बंदीगृह में डालते हैं या वस्त्ररहित कर लवणसमुद्र में फेंकते हैं ॥42॥ इस प्रकार जब नगरी के समस्त लोग आकुलता को प्राप्त थे तथा सब ओर से घबड़ाहट के शब्द सुनाई पड़ रहे थे तब क्रोध से भरा एवं उन्नत पराक्रम का धारी, मंदोदरी का पिता मय नामक महा दैत्य कवच पहिनकर, कवच धारण करने वाले मंत्रियों के साथ युद्ध के लिए उद्यत हो देदीप्यमान हुआ रावण के भवन में उस प्रकार पहुँचा जिस प्रकार कि श्रीसंपन्न हरिणकेशी इंद्र के भवन आता है, ॥43-45॥ तब मंदोदरी ने पिता को बड़ी डाँट दिखाकर कहा कि हे तात ! इस तरह आपको दोषरूपी सागर में निमज्जन नहीं करना चाहिए ।। 46 ।। जिसकी घोषणा की गई थी ऐसा जैनाचार क्या तुमने सुना नहीं था । इसलिए यदि अपनी भलाई चाहते हो तो प्रसाद करो― शांत होओ ॥47॥ पुत्री के स्वहितकारी वचन सुनकर दैत्यपति मय ने शांत हो अपना शस्त्र उस तरह संकोच लिया जिस तरह कि सूर्य अपनी किरणों के समूह को संकोच लेता है ॥48 ।। तदनंतर जो दुर्भेद्य कवच से आच्छादित था, मणिमय कुंडलों से अलंकृत था और जिसका वक्षःस्थल हार से सुशोभित था ऐसे मय ने अपने जिनालय में प्रवेश किया ॥46॥
इतने में ही उद्वेलसागर के समान आकार को धारण करने वाले कुमार, वेग संबंधी वायु से प्राकार को शिखर रहित करते हुए आ पहुँचे ॥50॥ महान् उपद्रव करने में जिनकी लालसा थी ऐसे वे धीरवीर कुमार, लंबे-चौड़े गोपुर के वज्रमय किवाड़ तोड़कर नगरी के भीतर घुस गये ॥51॥ उनके पहुँचते ही नगरी में इस प्रकार का हल्ला मच गया कि ये आ गए, जल्दी भागो; कहाँ जाऊँ ? घर में घुस जाओ; हाय मातः यह क्या आ पडा है ? हे तात ! तात ! देखो तो सही; अरे भले आदमी बचाओ; हे भाई ! ‘क्या-क्या’ ‘ही ही’ ‘क्यों-क्यों’ हे आर्य पुत्र ! लौटो, ठहरो, हाय-हाय बड़ा भय है । इस प्रकार भय से व्याकुल हो चिल्लाते हुए नगरवासियों से रावण का भवन भर गया ।। 52-54॥ कोई एक स्त्री इतनी अधिक घबड़ा गई थी कि वह अपनी गिरी हुई मेखला को अपने ही पैर से लाँघती हुई आगे बढ़ गई और अंत में पृथ्वी पर ऐसी गिरी कि उसके घुटने टूट गये ।। 55॥ खिसकते हुए वस्त्र को जिसने हाथ से पकड़ रक्खा था, जो अत्यंत घबड़ाई हुई थी, जिसने बच्चे को उठा रक्खा था और जो कहीं जाने के लिए तैयार थी ऐसी कोई दुबली-पतली स्त्री भय से काँप रही थी ॥56 ।। हड़बड़ाहट के कारण हार के टूट जाने से जो मोतियों के समूह की वर्षा कर रही थी ऐसी कोई एक स्त्री मेघ की रेखा के समान बड़े वेग से कहीं भागी जा रही थी।। 57॥ भयभीत हरिणी के समान जिसके नेत्र थे, तथा जिसके बालों का समूह बिखर गया था ऐसी कोई एक स्त्री पति के वक्षःस्थल से जब लिपट गई तभी उसकी कँपकँपी छूटी ॥58 ।।
तदनंतर इसी बीच में लोगों को भयभीत देख शांतिजिनालय के आश्रय में रहने वाले शासन देव, अपने पक्ष की रक्षा करने में उद्यत तथा दयालु चित्त हो भावपूर्ण मन से शीघ्र ही द्वार-पालपना करने के लिए प्रवृत्त हुए अर्थात् उन्होंने किसी को अंदर नहीं आने दिया ॥56 ।। जिनके आकार अत्यंत भयंकर थे, जिन्होंने नाना प्रकार के वेष धारण कर रक्खे थे, जिनके मुख दाँढों की पंक्ति से व्याप्त थे, जिनके नेत्र मध्याह्न के सूर्य के समान दुर्निरीक्ष्य थे, जो क्षुभित थे क्रोध से विष उगल रहे थे, ओंठ चाब रहे थे, डील-डौल के बड़े थे, नाना वर्ण के महाशब्द कर रहे थे― और जो शरीर के देखने मात्र से विषम विकारों में युक्त थे ऐसे वे शासन देव शांतिजिनालय से निकलकर वानरों की सेना पर ऐसे झपटे कि उसे अत्यंत विह्वल कर क्षण भर में खदेड़ दिया ॥60-63॥ वे शासनदेव क्षणभर में सिंह, क्षणभर में अग्नि, क्षणभर में मेघ, क्षणभर में हाथी, क्षणभर में सर्प, क्षणभर में वायु और क्षणभर में पर्वत बन जाते थे ॥64 ।। शांतिजिनालय के आश्रय में रहने वाले देवों के द्वारा इन वानरकुमारों को पराभूत देख; वानरों के हित में तत्पर रहने वाले जो देव शिविर के जिनालयों में रहते थे वे भी विक्रिया से आकार बदलकर युद्ध करने के लिए आ पहुँचे सो ठीक ही है क्योंकि जो अपने स्थानों में निवास करते हैं देव लोग उनके रक्षक होते हैं ।। 65-66॥ तदनंतर देवों का परस्पर भयंकर युद्ध प्रवृत्त होने पर उनकी विकृति देख परमार्थ स्वभाव में भी संदेह होने लगा था ॥67 ।।
अथानंतर अपने देवों को पराजित होते, दूसरे देवों को बलवान होते और अहंकारी वानरों को लंका के सन्मुख प्रस्थान करते देख महाक्रोध को प्राप्त हुआ परम प्रभावी बुद्धिमान पूर्णभद्र नाम का यक्षेंद्र मणिभद्र नामक यक्ष से इस प्रकार बोला ॥68-69॥ कि इन दयाहीन वानरों को तो देखो जो सब शास्त्रों को जानते हुए भी विकार को प्राप्त हुए हैं ॥70॥ ये लोकमर्यादा और आचार से रहित हैं। देखो, रावण तो आहार छोड़ ध्यान में आत्मा को लगा शरीर में भी निस्पृह हो रहा है तथा अत्यंत शांत चित्त है फिर भी ये उसे मारने के लिए उद्यत हैं, पापपूर्ण चेष्टा युक्त हैं, छिद्र देख प्रहार करने वाले हैं, क्षुद्र हैं और वीरों की चेष्टा से रहित हैं ॥71-72॥ तदनंतर जो दूसरे पूर्णभद्र के समान था ऐसा मणिभद्र बोला कि जो सम्यक्त्व की भावना से सहित है, वीर है, जिनेंद्र भगवान के चरणों का सेवक है, उत्तम लक्षणों से पूर्ण है, शांतचित्त है और महादीप्ति का धारक है ऐसे रावण को पराभव प्राप्त कराने के लिए इंद्र भी समर्थ नहीं है फिर इनकी तो बात ही क्या है ? ।। 73-74॥ तदनंतर तेजस्वी पूर्णभद्र के तथास्तु इस प्रकार कहने पर दोनों यक्षेंद्र विघ्न का नाश करने वाले हुए ॥75॥ तत्पश्चात् क्रोध से भरे दोनों यक्षेंद्रों को युद्ध के लिए उद्यत देख दूसरे देव लज्जा से युक्त तथा भयभीत होते हुए अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥76।। दोनों यक्षेंद्र तीव्र आँधी से प्रेरित पाषाणों की वर्षा करने लगे तथा अत्यंत भयंकर विशाल गर्जना करते हुए प्रलयकाल के मेघ के समान हो गये ॥77॥ उन यक्षेंद्रों की अत्यंत वेगशाली जंघाओं की वायु से प्रेरित हुई विद्याधरों की सेना सूखे पत्तों के ढेर के समान हो गई अर्थात् भय से इधर-उधर भागने लगी ।। 78।। उन भागते हुए वानरों का पीछा करते हुए दोनों यक्षेंद्र उलाहना देने के अभिप्राय से भी राम के पास आये ।।79 ।। उनमें से बुद्धिमान पूर्णभद्र राम की अच्छी तरह प्रशंसा कर बोला कि तुम श्रीमान् राजा दशरथ के पुत्र हो ।। 80 ।। अप्रशस्त कार्यों से तुम सदा दूर रहते और शुभकार्यों में सदा उद्यत रहते हो । शास्त्रोंरूपी समुद्र के पार को प्राप्त हो तथा शुद्ध गुणों से उन्नत हो ॥81॥ हे भद्र ! इस तरह सामर्थ्यवान होने पर भी क्या यह कार्य उचित है कि आपकी सेना के लोगों ने नगरवासी जनों को नष्ट-भ्रष्ट किया है ॥82॥ जो जिसके प्रयत्नपूर्वक कमाये हुए धन का हरण करता है वह उसके प्राणों को हरता है क्योंकि धन बाह्य प्राण कहा गया ॥83।। आपके लोगों ने अमूल्य हीरा वैडूर्यमणि तथा मूंगा आदि से व्याप्त लंकापुरी को विध्वस्त कर दिया है तथा उसकी स्त्रियों को व्याकुल किया है ।। 84 ।।
तदनंतर सब प्रकार की विधियों के जानने में निपुण, प्रौढ़ नीलकमल के समान कांति को धारण करने वाले लक्ष्मण ने ओजपूर्ण वचन कहे ॥25॥ उन्होंने कहा कि जिस दुष्ट राक्षस ने इन रामचंद्र की प्राणों की अधिक, महागुणों की धारक एवं शीलव्रतरूपी अलंकार को धारण करने वाली प्रिया को छल से हरा है उस रावण के ऊपर तुम दया क्यों कर रहे हो ? ॥86-87॥ हम लोगों ने तुम्हारा क्या अपकार किया है और उसने क्या उपकार किया है सो हे यक्षराज ! कुछ थोड़ा भी तो कहो ॥88॥ जिससे संध्या के समान लाल-लाल ललाट पर कुटिल तथा भयंकर भृकुटि कर कुपित हुए हो तथा बिना कार्य ही यहाँ पधारे हो ॥89॥ तदनंतर अत्यंत भयभीत सुग्रीव ने सुवर्णमय पात्र से उसे अर्घ देकर कहा कि हे यक्षराज ! क्रोध छोड़िए ।।90॥ आप समभाव से हमारी सेना तथा साक्षात् ईतिपना को प्राप्त हुए लंका के सैन्य सागर की भी स्थिति देखिए । देखिए दोनों में क्या अंतर है ॥91॥
इतना सब होने पर भी राक्षसों के अधिपति रावण का यह प्रयत्न जारी है । यह रावण पहले भी किसके द्वारा साध्य था ? और फिर बहुरूपिणी विद्या के सिद्ध होने पर तो कहना ही क्या है ? ॥92॥ जिस प्रकार जिनागम के निपुण विद्वान के सामने प्रवादी लोग लड़खड़ा जाते हैं उसी प्रकार युद्ध में कुपित हुए रावण के सामने अन्य राजा लड़खड़ा जाते हैं ॥93॥ इसलिए इस समय मैं क्षमाभाव से बैठे हुए रावण को क्षोभ युक्त करूंगा क्योंकि जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि मनुष्य सिद्धि को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार क्षोभ युक्त साधारण पुरुष भी विद्या को सिद्ध नहीं कर पाता ॥94॥ रावण को क्षोभित करने का हमारा उद्देश्य यह है कि हम तुल्य विभव के धारक हो उसके साथ युद्ध करेंगे अन्यथा हमारा और उसका युद्ध विषम युद्ध होगा ॥95॥
तदनंतर पूर्णभद्र ने कहा कि ऐसा हो सकता है किंतु हे सत्पुरुष ! लंका में जीर्णतृण को भी अणुमात्र भी पीड़ा नहीं करना चाहिए ॥96॥ वेदना आदिक न पहुँचाकर रावण के शरीर की कुशलता रखते हुए उसे क्षोभ उत्पन्न करो । परंतु मैं समझता हूँ कि रावण बड़ी कठिनाई से क्षोभ को प्राप्त होगा ॥97॥ इस प्रकार कहकर जिनके नेत्र प्रसन्न थे, जो भव्यजनों पर स्नेह करने वाले थे, भक्त थे, मुनिसंघ की वैयावृत्य करने में सदा तत्पर रहते थे, और चंद्रमा के समान उज्ज्वल मुख के धारक थे ऐसे यक्षों के दोनों अधिपति राम की प्रशंसा करते हुए सेवकों के साथ अंतर्हित हो गये ।। 98-99॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, जो यक्षेंद्र उलाहना देने आये थे वे लक्ष्मण के कहने से अत्यंत लज्जित होते हुए समचित्त होकर चुपचाप बैठ रहे ॥100꠰। जब तक निर्दोषता है तभी तक निकटवर्ती पुरुषों में अधिक प्रीति रहती है सो ठीक ही है क्योंकि उत्पात सहित सूर्य की कौन इच्छा करता है ? अर्थात् कोई नहीं । भावार्थ― जिस प्रकार लोग उत्पात रहित सूर्य को चाहते हैं उसी प्रकार दोषरहित निकटवर्ती मनुष्य को चाहते हैं ।। 101॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराण में सम्यग्दृष्टि देवों के प्रातिहार्यपने का वर्णन करने वाला सत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥70॥