ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 82
From जैनकोष
बयासीवां पर्व
अथानंतर सूर्योदय होने पर शुभचेष्टाओं के धारक राम और लक्ष्मण पुष्पक विमान में आरूढ़ हो अयोध्या की ओर चले ॥1॥ उनकी सेवा में तत्पर रहने वाले अनेक विद्याधरों के अधिपति अपने-अपने परिवार के साथ नाना प्रकार के यानों और वाहनों पर सवार हो साथ चले ॥2॥ छत्रों और ध्वजाओं से जहाँ सूर्य की किरणें रुक गई थीं ऐसे आकाश में स्थित सब लोग पर्वतों से भूषित पृथिवी को दूर से देख रहे थे ॥3 ।। जिसमें नाना प्रकार के प्राणियों के समूह क्रीड़ा कर रहे थे ऐसे लवण-समुद्र को लाँघकर हर्ष से भरे वे विद्याधर लीला धारण करते हुए जा रहे थे ॥4॥ राम के समीप बैठी गुणगण को धारण करने वाली सती सीता लक्ष्मी के समान महाशोभा को धारण कर रही थी । वह सामने की ओर दृष्टि डालती हुई राम से बोली कि हे नाथ ! जंबूद्वीप के मध्य में यह अत्यंत उज्ज्वल वस्तु क्या दिख रही है ? तब राम ने सुंदरी सीता से कहा कि हे देवि ! जहाँ पहले बाल्यावस्था में देवाधिदेव भगवान मुनिसुव्रतनाथ का हर्ष से भरे देवों ने अभिषेक किया था ॥5-7॥ यह वही रत्नमय ऊँचे मनोहारी शिखरों से युक्त मंदर नाम का प्रसिद्ध पर्वतराज सुशोभित हो रहा है ।।8 ।। अहो ! वेग के कारण विमान दूसरे मार्ग में आ गया है, आओ अब पुनः सेना के पास चलें यह कह तथा सेना के पास जाकर राम बोले कि हे प्रिये ! यह वही दंडक वन है जहाँ काले-काले हाथियों की घटा से महाअंधकार फैल रहा है तथा जहाँ पर बैठी हुई तुम्हें अपना घात करने वाला रावण हरकर ले गया था ॥6-10॥ हे सुंदरि ! यह वही नदी दिखाई देती है जहाँ मेरे साथ तुमने दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों के लिए पारणा कराई थी ॥11॥ हे सुलोचने ! यह वही वंशस्थविल नाम का पर्वत दिखाई देता है जहाँ एक साथ विराजमान देशभूषण और कुलभूषण मुनियों के दर्शन किये थे ॥12॥ जिन मुनियों की मैंने, तुमने तथा लक्ष्मण ने उपसर्ग दूर कर सेवा की थी और जिन्हें मोक्ष सुख का देने वाला केवलज्ञान प्राप्त हुआ था ।।13 ।। हे भद्रे ! यह बालिखिल्य का नगर है जहाँ लक्ष्मण ने तुम्हारे समान कल्याणमाला नाम की अद्भुत कन्या प्राप्त की थी ॥14॥ हे प्रिये ! यह दशांगभोग नाम का नगर दिखाई देता है जहाँ रूपवती का पिता वज्रकर्ण नाम का उत्कृष्ट श्रावक रहता था ॥15॥ तदनंतर पृथिवी की ओर देखकर सीता ने पुनः पूछा कि हे कांत ! यह नगरी किस विद्याधर राजा की दिखाई देती है? ।।16 ।। यह नगरी विमानों के समान उत्तम भवनों से अत्यंत व्याप्त है तथा स्वर्ग की विडंबना करने वाली ऐसी नगरी मैंने कभी नहीं देखी ॥17॥
सीता के वचन सुन तथा धीरे-धीरे दिशाओं की ओर देख राम का चित्त स्वयं क्षणभर के लिए विभ्रम में पड़ गया । परंतु बाद में सब समाचार जानकर मंद हास्य करते हुए बोले कि हे प्रिये ! यह अयोध्या नगरी है । जान पड़ता है कि विद्याधर कारीगरों ने इसकी ऐसी रचना की है कि यह अन्य नगरी के समान जान पड़ने लगी है, इसने लंका को जीत लिया है तथा उत्कृष्ट कांति से युक्त है ॥18-19॥ तदनंतर द्वितीय सूर्य के समान देदीप्यमान तथा आकाश के मध्य में स्थित विमान को सहसा देख नगरी क्षोभ को प्राप्त हो गई ॥20॥ क्षोभ को प्राप्त हुआ भरत महागज पर सवार हो महाविभूति युक्त होता हुआ इंद्र के समान नगरी से बाहर निकला ॥21॥ उसी समय उसने नाना यानों और विमानों में स्थित तथा विचित्र ऋद्धियों से युक्त विद्याधरों से समस्त दिशाओं को आच्छादित देखा ॥22॥ भरत को आता हुआ देख जिन्होंने पुष्पक विमान को पृथिवी पर खड़ा कर दिया था ऐसे राम और लक्ष्मण हर्षित हो समीप में आये ॥23 ।। तदनंतर उन दोनों को समीप में आया देख भरत ने हाथी से उतरकर स्नेहादि से पूरित सैकड़ों अर्घों से उनकी पूजा की ॥24॥ तत्पश्चात् विमान के शिखर से निकलकर बाज़ूबंदों से सुशोभित भुजाओं को धारण करने वाले दोनों अग्रजों ने बड़े प्रेम से भरत का आलिंगन किया ।।25 ।। एक दूसरे को देखकर तथा कुशल समाचार पूछकर राम-लक्ष्मण पुनः भरत के साथ पुष्पक विमान पर आरूढ़ हुए ॥26॥
तदनंतर जिसकी सजावट की गई थी और जो नाना प्रकार की पताकाओं से चित्रित थी ऐसी अयोध्या नगरी में क्रम से सबने प्रवेश किया ॥27॥ धक्काधूमी के साथ चलने वाले यानों, विमानों, घोड़ों, रथों और हाथियों की घटाओं से अयोध्या के मार्ग अवकाश रहित हो गये ॥28॥ लूमते हुए मेघों की गर्जना के समान तुरही के शब्द तथा करोड़ों शंखों के शब्दों से मिश्रित भंभा और भेरियों के शब्द होने लगे ॥29॥ बड़े-बड़े नगाड़ों के जोरदार शब्द तथा बिजली के समान चश्चल लंप और धुंधुओं के मधुर शब्द गंभीरता को प्राप्त हो रहे थे ॥30॥ हैक नामक वादियों की हुँकार से सहित झालर, अम्लातक, हक्का, और गुंजारटित नामक वादित्रों के महाशब्द, काहलों के अस्फुट एवं मधुर शब्द, निविडता को प्राप्त हुए हलहला के शब्द, अट्टहास के शब्द, घोड़े, हाथी, सिंह और व्याघ्रादि के शब्द, बाँसुरी के स्वर से मिले हुए नाना प्रकार के संगीत के शब्द, भांडों के विशाल शब्द, बंदी जनों के विरद पाठ, सूर्य के समान तेजस्वी रथों की मनोहर चीत्कार, पृथिवी के कंपन से उत्पन्न हुए शब्द और इन सबकी करोड़ों प्रकार की प्रतिध्वनियों के शब्द सब एक साथ मिलकर विशाल शब्द कर रहे थे ॥31-34॥ इस प्रकार परम शोभा को धारण करने वाले विद्याधर राजाओं से घिरे हुए सुंदर शरीर के धारक राम और लक्ष्मण ने नगरी में प्रवेश किया ॥35॥ उस समय विद्याधर देव थे, राम-लक्ष्मण इंद्र थे और अयोध्या नगरी स्वर्ग थी तब उनका वर्णन कैसा किया जाय ? ॥36 ।। श्रीराम के मुखरूपी चंद्रमा को देखकर मधुर ध्वनि करने वाला लोकरूपी सागर, बढ़ती हुई वेला के साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ॥37 ।। पहिचान में आये पुरुष जिन्हें पद-पद पर पूज रहे थे, तथा जयवंत रहो, बढ़ते रहो, जीते रहो, समृद्धिमान होओ, इत्यादि शब्दों के द्वारा जिन्हें स्थान-स्थान पर आशीर्वाद दिया जा रहा था ऐसे दोनों भाई नगर में प्रवेश कर रहे थे ॥38॥ अत्यंत ऊँचे विमान तुल्य भवनों के शिखरों पर स्थित स्त्रियों के नेत्रकमल राम लक्ष्मण को देखते ही खिल उठते थे ॥36।। पूर्ण चंद्रमा के समान कमललोचन राम और वर्षाकालीन मेघ के समान श्याम, सुंदर लक्षणों के धारक लक्ष्मण को देखने के लिए तत्पर स्त्रियाँ अन्य सब काम छोड़ अपने मुखों से झरोखों को कमलवन के समान कर रही थीं ॥40-41॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि राजन् ! उस समय परस्पर में अत्यधिक संपर्क होने पर जिनके हार टूट गये थे ऐसी स्त्रियों के पयोधरों अर्थात् स्तनरूपी पयोधरों अर्थात् मेघों ने अपूर्व वृष्टि की थी ॥42॥ जिनके चित्त राम-लक्ष्मण में लग रहे थे ऐसी स्त्रियों की मेखला, नूपुर और कुंडल टूट-टूटकर पृथिवी पर पड़ रहे थे तथा उनमें परस्पर इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था ॥43 ।। कोई कह रही थी कि जिनकी गोद में गुणों को धारण करने वाली यह राजा जनक की पुत्री पतिव्रता सीता प्रिया विद्यमान है यही विशाल नेत्रों को धारण करने वाले राम हैं ॥44॥ कोई कह रही थी कि हाँ, ये वे ही राम हैं जिन्होंने सुग्रीव को आकृति के चोर दैत्यराज वृत्र के नाती दुष्ट साहस गति को युद्ध में मारा था ॥45 ।। कोई कह रही थी कि ये इंद्र तुल्य पराक्रम के धारी लक्ष्मण हैं जिन्होंने युद्ध में अपने चक्र से वक्षःस्थल पर प्रहार कर रावण को मारा था ॥46॥ कोई कह रही थी कि यह महाशक्तिशाली सुग्रीव है, यह उसका बेटा अंगद है, यह सीतादेवी का सगा भाई भामंडल है जिसे उत्पन्न होते ही देव ने पहले तो हर लिया था फिर दया से छोड़ दिया था और चंद्रगति विद्याधर ने देखा था ॥47-48॥ यही नहीं किंतु हर्ष से युक्त हो उसे वन में झेला था तथा ‘‘यह तुम्हारा पुत्र है’’ इस प्रकार कहकर रानी पुष्यवती के लिए सौंपा था । अपने दिव्य रत्नमयी कुंडलों से जिसका मुख देदीप्यमान हो रहा है तथा जो सार्थक नाम का धारी है ऐसा यह विद्याधरों का राजा भामंडल अत्यधिक शोभित हो रहा है ॥46-50॥ हे सखि ! यह चंद्रोदर का लड़का श्रीमान् विराधित है और यह वानर चिह्नित पताका को धारण करने वाला पवनंजय का पुत्र श्रीशैल (हनूमान्) है ॥51॥ इस प्रकार आश्चर्य तथा संतोष को धारण करने वाली नगरवासिनी स्त्रियाँ जिन्हें देख रही थीं ऐसे उत्कट शोभा के धारक सब लोग राजभवन में पहुँचे ॥52 ।। जब तक ये सब राजभवन में पहुँचे तब तक जो भवन के शिखर पर स्थित थीं, पुत्रों के प्रति स्नेह प्रकट करने में तैयार थीं तथा जिनके स्तनों से दूध भर रहा था ऐसी दोनों वीर माताएँ ऊपर से उतरकर नीचे आ गई ॥53॥ महागुणों को धारण करने वाली तथा उत्तम शील से युक्त अपराजिता (कौशल्या), कैकयी (सुमित्रा), केकया (भरत की माता) और सुप्रजा (सुप्रभा) उत्तम चेष्टा को धारण करने वाली तथा मंगलाचार में निपुण ये चारों माताएँ साथ-साथ राम-लक्ष्मण के समीप आई मानो भवांतर में ही संयोग को प्राप्त हुई हों ॥54-15॥
तदनंतर जो माताओं को देखकर प्रसन्न थे, जिनके नेत्रकमल के समान थे और जो लोकपालों के तुल्य कांति को धारण करने वाले थे ऐसे राम-लक्ष्मण दोनों भाई पुष्पक विमान से उतर कर नीचे आये और दोनों ने हाथ जोड़कर नम्रीभूत हो साथ में आये हुए समस्त राजाओं और अपनी स्त्रियों के साथ क्रम से समीप जाकर माताओं के चरणों में नमस्कार किया ।।56-57।। कल्याणकारी हजारों आशीर्वादों को देती हुई उन माताओं ने दोनों पुत्रों का आलिंगन किया । उस समय वे सब स्वसंवेद्य सुख को प्राप्त हो रही थी अर्थात् जो सुख उन्हें प्राप्त हुआ था उसका अनुभव उन्हीं को हो रहा था― अन्य लोग उसका वर्णन नहीं कर सकते थे ॥58॥ वे बार-बार आलिंगन करती थीं फिर भी तृप्त नहीं होती थीं, मस्तक पर चुंबन करती थीं, काँपते हुए हाथ से उनका स्पर्श करती थीं, और उनके नेत्र हर्ष के आँसुओं से पूर्ण हो रहे थे । तदनंतर आसन पर आरूढ हो परस्पर का सुख-दुःख पूछकर वे सब परम धैर्य को प्राप्त हुई ॥56-60॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इनके जो हजारों मनोरथ पहले अनेकों बार गुणित होते रहते थे वे अब पुण्य के प्रभाव से इच्छा से भी अधिक फलीभूत हुए ॥61 ।। जो साधुओं की भक्त थीं, उत्तम चित्त को धारण करने वाली थीं, सैकड़ों पुत्र-वधुओं से सहित थीं, तथा लक्ष्मी के वैभव को प्राप्त थीं ऐसी उन वीर माताओं ने वीर पुत्रों के प्रभाव और अपने पुण्योदय से लोकोत्तर महिमा तथा गौरव को प्राप्त किया ॥62-63॥ वे एक छत्र से सुशोभित लवणसमुद्रांत पृथिवी में बिना किसी बाधा के इच्छानुसार आज्ञा प्रदान करती थीं ।।64॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अत्यंत विशुद्ध बुद्धि को धारण करने वाला जो मनुष्य इस इष्ट समागम के प्रकरण को सुनता है अथवा पढ़ता है वह इष्ट संपत्ति पूर्ण आयु तथा उत्तम पुण्य को प्राप्त होता है ॥65॥ सद्बुद्धि मनुष्य का किया हुआ एक नियम भी अभ्युदय को प्राप्त हो सूर्य के समान उत्तम प्रकाश करता है । हे भव्यजनो ! इस नियम को अवश्य करो ।।66 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्री रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में राम-लक्ष्मण के समागम का वर्णन करने वाला व्यासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥82॥