ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 86
From जैनकोष
छियासीवां पर्व
अथानंतर जो अत्यंत पवित्र थे, अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले थे, संसाररूपी घोर सागर के नाना दुःखों का निरूपण करने वाले थे और भरत के पूर्वभवों का वर्णन करने वाले थे ऐसे महामुनि श्री देशभूषण केवली के उक्त वचन सुन कर वह समस्त सभा चित्रलिखित के समान निश्चल हो गई ॥1-2।। तदनंतर जिनके हार और कुंडल हिल रहे थे, जो प्रताप से प्रसिद्ध थे, श्रीमान् थे, इंद्र के समान विभ्रम को धारण करने वाले थे, अत्यधिक संवेग के धारक थे, जिनका शरीर नम्रीभूत था, मन उदार था, जिन्होंने हस्तरूपी कमल की बोड़ियों को बाँध रक्खा था और जो संसार संबंधी निवास से अत्यंत खिन्न थे ऐसे भरत ने पृथिवी पर घुटने टेक कर मुनिराज को नमस्कार कर इस प्रकार के अत्यंत मनोहारी वचन कहे ॥3-5॥ कि हे नाथ ! मैं संकटपूर्ण हजारों योनियों में चिरकाल से भ्रमण करता हुआ मार्ग के महाश्रम से खिन्न हो चुका हूँ अतः मुझे मोक्ष का कारण जो तपश्चरण है वह दीजिये ॥6॥ हे भगवन् ! मैं जन्म-मरण रूपी ऊँची लहरों से युक्त संसाररूपी नदी में चिरकाल से बहता चला आ रहा हूँ सो आप मुझे हाथ का सहारा दीजिये ॥7॥ इस प्रकार कह कर भरत समस्त परिग्रह का परित्याग कर पर्यंकासन से स्थित हो गये तथा महाधैर्य से युक्त हो उन्होंने अपने हाथ से केशलोंच कर डाले ॥8।। इस प्रकार परम सम्यक्त्व को पाकर महाव्रत को धारण करने वाले भरत तत्क्षण में दीक्षित हो उत्कृष्ट मुनि हो गये ॥9।। उस समय भरत के मुनि अवस्था को प्राप्त होने पर आकाश में देवों का धन्य-धन्य यह शब्द हुआ तथा दिव्य पुष्पों की वर्षा हुई ॥10॥ भरत के अनुराग से प्रेरित हो कुछ अधिक एक हजार राजाओं ने क्रमागत राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मुनिदीक्षा धारण की ॥11॥ जिनकी शक्ति हीन थी ऐसे कितने ही लोगों ने मुनिराज को नमस्कार कर विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म धारण किया ॥12॥ जो निरंतर अश्रुओं की वर्षा कर रही थी, तथा जिसकी चेतना अत्यंत आकुल थी ऐसी भरत की माता केकया घबड़ा कर उनके पीछे-पीछे दौड़ती जा रही थी सो बीच में ही पृथिवी पर गिर कर मूर्छित हो गई थी ॥13॥ तदनंतर जो पुत्र की प्रीति के भार से युक्त थी, तथा जिसका शरीर निश्चल पड़ा हुआ था ऐसी वह केकया गोशीर्ष आदि चंदन के जल के सींचने पर भी चेतना को प्राप्त नहीं हो रही थी ॥14॥ बहुत समय बाद जब वह स्वयं चेतना को प्राप्त हुई तब बछड़े से रहित गाय के समान करुण रोदन करने लगी ॥15॥ वह कहने लगी कि हाय वत्स ! तू मन को आह्लादित करने वाला था, अत्यंत विनीत था और गुणों की खान था। अब तू कहाँ चला गया ? उत्तर दे और मेरे अंगों को धारण कर ॥16॥ हाय पुत्रक ! तेरे द्वारा छोड़ी हुई मैं दुःखरूपी सागर में निमग्न हो शोक से पीड़ित होती हुई कैसे रहूँगी? यह तूने क्या किया ? ॥17।। इस प्रकार विलाप करती हुई भरत की माता को राम और लक्ष्मण ने अत्यंत सुंदर वचनों से संतोष प्राप्त कराया ॥18।। उन्होंने कहा हे माता ! भरत बड़ा पुण्यवान् और विद्वान् है, तू शोक छोड़ । क्या हम दोनों तेरे आज्ञाकारी पुत्र नहीं हैं ? ॥19॥ इस प्रकार जिससे बड़े भय से उत्पन्न कातरता छुड़ाई गई थी तथा जिसका हृदय अत्यंत शुद्ध था, ऐसी वह केकया सपत्नीजनों के वचनों से शोकरहित हो गई थी ॥20॥ वह शुद्ध हृदया जब सचेत हुई तब अपने आपकी निंदा करने लगी। वह कहने लगी कि स्त्री के इस शरीर को धिक्कार हो जो अनेक दोषों से आच्छादित है ॥21॥ अत्यंत अपवित्र है, ग्लानि पूर्ण है, नगरी निर्भर अर्थात् गटर के प्रवाह के समान है। अब तो मैं वह कार्य करूँगी जिसके द्वारा पापकर्म से मुक्त हो जाऊँगी॥22॥ वह जिनेंद्रप्रणीत धर्म से तो पहले ही प्रभावित थी, इसलिए महान वैराग्य से प्रयुक्त हो एक सफेद साड़ी से युक्त हो गई ॥23॥ तदनंतर निर्मल सम्यक्त्व को धारण करती हुई उसने तीन सौ स्त्रियों के साथ साथ पृथिवीमती नामक आर्या के पास दीक्षा ग्रहण कर ली ॥24॥ समस्त गृहस्थधर्म के जाल को छोड़ कर तथा आर्यिका का उत्कृष्ट धर्म धारण कर वह केकया मेघ के संगम से रहित निष्कलंक चंद्रमा की रेखा के समान सुशोभित हो रही थी ॥25॥ उस समय देशभूषण मुनिराज की सभा में एक ओर तो उत्तम तेज को धारण करने वाले मुनियों का समूह विद्यमान था और दूसरी ओर आर्यिकाओं का समूह स्थित था इसलिए वह सभा अत्यधिक कमल और कमलिनियों से युक्त सरोवर के समान सुंदर जान पड़ती थी ॥26॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि इस तरह वहाँ जितने मनुष्य विद्यमान थे उन सभी के चित्त नाना प्रकार की व्रत संबंधी क्रियाओं के संग से पवित्र हो रहे थे सो ठीक ही है क्योंकि सूर्योदय होने पर कौन भव्यजन प्रकाश से युक्त नहीं होता ? अर्थात् सभी होते हैं ॥27॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में भरत और
केकया की दीक्षा का वर्णन करने वाला छियासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥86॥