ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 89
From जैनकोष
नवासीवां पर्व
अथानंतर अच्छी तरह प्रीति को धारण करने वाले राम और लक्ष्मण ने शत्रुघ्न से कहा कि जो देश तुझे इष्ट हो उसे स्वीकृत कर ॥1॥ क्या तू अयोध्या का आधा भाग लेना चाहता है ? या उत्तम पोदनपुर को ग्रहण करना चाहता है ? या राजगृह नगर चाहता है अथवा मनोहर पौंड्र सुंदर नगर की इच्छा करता है ? ॥2॥ इस प्रकार राम-लक्ष्मण ने उस तेजस्वी के लिए सैकड़ों राजधानियाँ बताई पर वे उसके मन में स्थान नहीं पा सकी ॥3॥ तदनंतर जब शत्रुघ्न ने मथुरा की याचना की तब राम ने उससे कहा कि मथुरा का स्वामी मधु नाम का शत्रु है यह क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है ? ॥4॥ वह मधु रावण का जमाई है, अनेक युद्धों से सुशोभित है, और चमरेंद्र ने उसके लिए कभी व्यर्थ नहीं जाने वाला वह शूल रत्न दिया है, कि जो देवों के द्वारा भी दुर्निवार है, जो ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान अत्यंत दु:सह है, और जो हजारों के प्राण हरकर पुनः उसके हाथ में आ जाता है ॥5-6॥ जिसके लिए मंत्रणा करते हुए हम लोग चिंतातुर हो सारी रात निद्रा को नहीं प्राप्त होते हैं ।।7। जिस प्रकार सूर्य उदित होता हुआ ही समस्त लोक को परमप्रकाश प्राप्त कराता है उसी प्रकार जिसने उत्पन्न होते ही विशाल हरिवंश को परमप्रकाश प्राप्त कराया था ॥8॥ और जिसका लवणार्णव नाम का पुत्र विद्याधरों के द्वारा भी दुःसाध्य है उस शूरवीर को जीतने के लिए तू किस प्रकार समर्थ हो सकेगा ? ॥9॥
तदनंतर शत्रुघ्न ने कहा कि इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ? आप तो मुझे मथुरा दे दीजिये मैं उससे स्वयं ले लूँगा ॥10॥ यदि मैं युद्ध में मधु को मधु के छत्ते के समान नहीं तोड़ डालूँ तो मैं पिता दशरथ से अहंकार नहीं धारण करूँ अर्थात् उनके पुत्र होने का गर्व छोड़ दूं ॥11॥ जिस प्रकार अष्टापद सिंहों के समूह को नष्ट कर देता है उसी प्रकार यदि मैं उसके बल को चूर्ण नहीं कर दूं तो आपका भाई नहीं होऊँ ॥12॥ आपका आशीर्वाद ही जिसकी रक्षा कर रहा है ऐसा मैं यदि उस शत्रु को दीर्घ निद्रा नहीं प्राप्त करा दूं तो मैं सुप्रजा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ नहीं कहलाऊँ ।।13।। इस प्रकार उत्तम तेज का धारक शत्रुघ्न जब पूर्वोक्त प्रतिज्ञा को प्राप्त हुआ तब विद्याधर राजा परम आश्चर्य को प्राप्त हुए ॥14॥ तदनंतर वहाँ जाने के लिए उद्यत शत्रुघ्न को सामने से दूर हटाकर श्रीराम ने कहा कि हे धीर ! मैं तुझसे याचना करता हूँ तू मुझे एक दक्षिणा दे ॥15॥ यह सुन शत्रुघ्न ने कहा कि असाधारण दाता तो आप ही हैं सो आप ही जब याचना कर रहे हैं तब मेरे लिए इससे बढ़कर अन्य प्रशंसनीय क्या होगा ? ॥16॥ आप तो मेरे प्राणों के भी स्वामी हैं फिर अन्य वस्तु की क्या कथा है ? एक युद्ध के विघ्न को छोड़कर कहिये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥17॥
तदनंतर राम ने कुछ ध्यान कर उससे कहा कि हे वत्स ! मेरे कहने से तू एक बात मान ले । वह यह कि जब मधु शूल रत्न से रहित हो तभी तू अवसर पाकर उसे क्षोभित करना; अन्य समय नहीं ॥18॥ तत्पश्चात् 'जैसी आपकी आज्ञा हो' यह कहकर तथा सिद्ध परमेष्ठियों को नमस्कार और उनकी पूजा कर भोजनोपरांत शत्रुघ्न सुख से बैठी हुई माता के पास आकर तथा प्रणाम कर पूछने लगा ॥16॥ रानी सुप्रजा ने पुत्र को देखकर उसका मस्तक सूंघा और उसके बाद कहा कि हे पुत्र ! तू तीक्ष्ण बाणों के द्वारा शत्रु समूह को जीते ॥20॥ वीरप्रसविनी माता ने पुत्र को अर्धासन पर बैठाकर पुनः कहा कि हे वीर ! तुझे युद्ध में शत्रुओं को पीठ नहीं दिखाना चाहिए ॥21॥ हे पुत्र ! तुझे युद्ध से विजयी हो लौटा देखकर मैं सुवर्ण कमलों से जिनेंद्र भगवान् की परम पूजा करूँगी ।।22।। जो तीनों लोकों के लिए मंगल स्वरूप हैं, तथा सुर और असुर जिन्हें नमस्कार करते हैं ऐसे वीतराग जिनेंद्र तेरे लिए मंगल प्रदान करें ॥23॥ जिन्होंने संसार के कारण अत्यंत दुर्जय मोह को जीत लिया है ऐसे अर्हंत भगवान् तेरे लिए मंगल स्वरूप हों ॥24॥ जो तीन काल संबंधी चतुर्गति के विधान का निरूपण करते हैं ऐसे स्वयंबुद्ध जिनेंद्र भगवान् तेरे लिए शत्रु के जीतने में बुद्धि प्रदान करें ।।25।। जो अपने तेज से समस्त लोकालोक को हाथ पर रक्खे हुए आमलक के समान देखते हैं ऐसे केवलज्ञानी तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप हों ॥26॥ जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित हो त्रिलोक शिखर पर विद्यमान हैं ऐसे सिद्धि के करने वाले सिद्ध परमेष्ठी, हे वत्स ! तेरे लिए मंगल स्वरूप हो ॥27॥ जो कमल के समान निर्लिप्त, सूर्य के समान तेजस्वी, चंद्रमा के समान शांतिदायक, पृथिवी के समान निश्चल, सुमेरु के समान उन्नत उदार, समुद्र के समान गंभीर और आकाश के समान निःसंग हैं तथा परम आधार स्वरूप हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी तेरे लिए मंगलरूप हो ॥2॥ जो निज और पर शासन के जानने वाले हैं तथा जो अपने अनुगामी जनों को सदा उपदेश करते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हे आयुष्मन् ! तेरे लिए मंगल रूप हो ॥26॥ और जो बारह प्रकार के तप के द्वारा मोक्ष सिद्ध करते हैं― निर्वाण प्राप्त करते हैं ऐसे शूरवीर साधु परमेष्ठी हे भद्र ! तेरे लिए मंगल स्वरूप हों ॥30॥ इस प्रकार विघ्नों को नष्ट करने वाले दिव्य मंगल स्वरूप आशीर्वाद को स्वीकृत कर तथा माता को प्रणाम कर शत्रुघ्न घर से बाहर चला गया ॥31॥
सुवर्णमयी मालाओं से युक्त महागज पर बैठा शत्रुघ्न मेघ पृष्ठ पर स्थित पूर्ण चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहा था ॥32॥ नाना प्रकार के वाहनों पर आरूढ सैकड़ों राजाओं से घिरा हुआ वह शत्रुघ्न, देवों से घिरे इंद्र के समान सुशोभित हो रहा था ॥33॥ अत्यधिक प्रीति को धारण करने वाले भाई राम और लक्ष्मण तीन पड़ाव तक उसके साथ गये थे । तदनंतर उसने कहा कि हे पूज्य ! आप लौट जाइये । अब मैं निरपेक्ष हो शीघ्र ही आगे जाता हूँ ॥34॥ उसके लिए लक्ष्मण ने सागरावर्त नाम का धनुषरत्न और वायु के समान वेगशाली अग्निमुख बाण समर्पित किये ॥35॥ तत्पश्चात् अपनी समानता रखने वाले कृतांतवक्त्र को सेनापति बनाकर रामचंद्रजी चिंता युक्त होते हुए लक्ष्मण के साथ वापिस लौट गये ॥36॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! बड़ी भारी सेना अथवा अत्यधिक पराक्रम से युक्त वीर शत्रुघ्न ने मधु राजा के द्वारा पालित मथुरा की ओर प्रयाण किया ॥37॥ क्रम-क्रम से पुण्यभागा नदी का तट पाकर उसने दीर्घ मार्ग को पार करने वाली अपनी सेना संभ्रम सहित ठहरा दी ॥38॥
वहाँ जिन्होंने समस्त क्रिया पूर्ण की थी, जिनका श्रम दूर हो गया था और जिनकी बुद्धि अत्यंत सूक्ष्म थी ऐसे मंत्रियों के समूह ने संशयारूढ़ हो परस्पर इस प्रकार विचार किया ॥36॥ कि अहो ! मधु के पराजय की आकांक्षा करने वाली इस बालक की बुद्धि तो देखो जो नीतिरहित हो केवल अभिमान से ही युद्ध के लिए प्रवृत्त हुआ है ॥40॥ जो विद्याधरों के द्वारा भी दुःसाध्य था ऐसा महाशक्तिशाली मांधाता जिसके द्वारा पहले युद्ध में जीता गया था वह मधु इस बालक के द्वारा कैसे जीता जा सकेगा ? ॥41॥ जिसमें चलते हुए पैदल सैनिक रूपी ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही हैं तथा जो शस्त्ररूपी मगरमच्छों से व्याप्त है ऐसे मधुरूपी सागर को यह भुजाओं से कैसे तैरना चाहता है ? ॥42॥ जो पैदल सैनिक रूपी बड़े-बड़े वृक्षों से युक्त तथा मदोन्मत्त हाथियों से भयंकर है ऐसे मधुरूपी वन में प्रवेश कर कौन पुरुष जीवित निकलता है ? ॥43॥
इस प्रकार मंत्रियों का कहा सुनकर कृतांतवक्त्र सेनापति ने कहा कि तुम लोग अभिमान को छोड़कर इस तरह भयभीत क्यों हो रहे हो ? ॥44।। यद्यपि मधु, अमोघ शूल के कारण गर्व पर आरूढ है-अहंकार कर रहा है तथापि शत्रुघ्न से मारने के लिए समर्थ है ।।45॥ जिसके मद की धारा झर रही है ऐसा बलवान् हाथी यद्यपि अपनी सूंड से वृक्षों को गिरा देता है तथापि वह सिंह के द्वारा मारा जाता है ।।46।। यतश्च शत्रुघ्न लक्ष्मी और प्रताप से सहित है, धैर्यवान है, बलवान् है, बुद्धिमान् है, और उत्तम सहायकों से युक्त है इसलिए अवश्य ही शत्रु को नष्ट करने वाला होगा ॥47॥
अथानंतर मंत्रिजनों के आदेश से जो गुप्तचर मथुरा नगरी गये थे उन्होंने लौटकर विधिपूर्वक यह समाचार कहा कि हे देव ! सुनिये, यहाँ से उत्तर दिशा में मथुरा नगरी है। वहाँ नगर के बाहर राजलोक से घिरा हुआ एक अत्यंत सुंदर उद्यान है ।।48-46॥ सो जिस प्रकार देवकुरु के मध्य में इच्छाओं को पूर्ण करने वाला कुबेरच्छंद नाम का विशाल उपवन सुशोभित है उसी प्रकार वहाँ वह उद्यान सुशोभित है । ॥50॥ अपनी जयंती नामक महादेवी के साथ राजा मधु इसी उद्यान में निवास कर रहा है। जिस प्रकार हथिनी के वश में हुआ हाथी बंधन में पड़ जाता है उसी प्रकार राजा मधु भी महादेवी के वश में हुआ बंधन में पड़ा है ॥51॥ वह राजा अत्यंत कामी है, उसने अन्य सब काम छोड़ दिये हैं वह महा अभिमानी है तथा प्रमाद के वशीभूत है। उसे उद्यान में रहते हुए आज छठवाँ दिन है ।।52॥ जिसकी बुद्धि काम के वशीभूत है ऐसा वह मधु राजा, न तो तुम्हारी प्रतिज्ञा को जानता है और न तुम्हारे आगमन का ही उसे पता है। जिस प्रकार वैद्य किसी रोगी की उपेक्षा कर देते हैं उसी प्रकार मोह की प्रबलता से विद्वानों ने भी उसकी उपेक्षा कर दी है ॥53॥ यदि इस समय मथुरा पर अधिकार नहीं किया जाता है तो फिर वह मधुरूपी सागर अन्य पुरुषों की सेनारूपी नदियों के प्रवाह से दुःसह हो जायगा― उसका जीतना कठिन हो जायगा ॥54॥ गुप्तचरों के यह वचन सुनकर क्रम के जानने में निपुण शत्रुघ्न एक लाख घोड़ा लेकर मथुरा की ओर चला ॥55॥
तदनंतर अर्धरात्रि व्यतीत होने पर जब सब लोग आलस्य में निमग्न थे, तब महान ऐश्वर्य को प्राप्त हुए शत्रुघ्न ने लौटकर मथुरा के द्वार में प्रवेश किया ॥56॥ वह शत्रुघ्न योगी के समान था, द्वार कर्मों के समूह के समान चूर चूर हो गया था, और अत्यंत मनोहर मथुरा नगरी सिद्धभूमि के समान थी ॥57॥ 'राजा दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न की जय हो' इस प्रकार वंदीजनों के मुखों से बड़ा भारी शब्द उठ रहा था ॥58॥
अथानंतर जिस प्रकार लंका में अंगद के पहुंचने पर लंका के निवासी लोग भय से क्षोभ को प्राप्त हुए थे उसी प्रकार नगरी को शत्रु के द्वारा आक्रांत जान मथुरावासी लोग भय से क्षोभ को प्राप्त हो गये ॥59॥ भय के कारण जिनके नेत्र चंचल हो रहे थे तथा जो आकुलता को प्राप्त थीं ऐसी स्त्रियों के गर्भ उनके हृदय के साथ-साथ अत्यंत विचलित हो गये ॥60॥ शब्द की प्रेरणा होने पर जो जाग उठे थे ऐसे निर्भय शूर-वीर सिंहों के समान सहसा उठ खड़े हुए ॥61॥ तत्पश्चात् अत्यंत प्रबल पराक्रम को धारण करने वाला शत्रुघ्न, शब्दमात्र से ही शत्रु समूह को नष्ट कर राजा मधु के घर में प्रविष्ट हुआ ।।62॥ वहाँ वह अतिशय प्रतापी शत्रुघ्न दिव्य शस्त्रों से व्याप्त आयुधशाला की रक्षा करता हुआ स्थित था। वह प्रसन्न था तथा यथायोग्य अभ्युदय को प्राप्त था ॥63।। वह मधुर तथा मनोज्ञ वाणी के द्वारा सबको सांत्वना प्राप्त कराता था इसलिए सबने भय का परित्याग किया था ॥64॥
तदनंतर शत्रुघ्न को मथुरा में प्रविष्ट जानकर वह महाबलवान् मधुसुंदर रावण के समान क्रोधवश उद्यान से बाहर निकला ॥65॥ उस समय जिस प्रकार निर्ग्रंथ मुनि के द्वारा रक्षित आत्मा में मोह प्रवेश करने के लिए समर्थ नहीं है उसी प्रकार शत्रुघ्न के द्वारा रक्षित अपने स्थान में राजा मधु प्रवेश करने के लिए समर्थ नहीं हुआ ॥66॥ यद्यपि मधु नाना उपाय करने पर भी मथुरा में प्रवेश को नहीं पा रहा था, और शूल से रहित था तथापि वह अभिमानी होने के कारण शत्रुघ्न से संधि की प्रार्थना नहीं करता था ।।67॥ तत्पश्चात् अहंकार से उत्कट शत्रु सेना को देखने के लिए असमर्थ हुए शत्रुघ्न के घुड़सवार सैनिक अपनी सेना से बाहर निकले ॥68॥ वहाँ युद्ध प्रारंभ होते-होते शत्रुघ्न की समस्त सेना आ पहुँची और दोनों ही पक्ष की सेनारूपी सागरों के बीच संयोग हो गया अर्थात् दोनों ही सेनाओं में मुठभेड़ शुरू हुई ॥69॥ उस समय शक्ति से संपन्न तथा नाना प्रकार के शस्त्र धारण करने वाले रथ हाथी तथा घोड़ों के सवार एवं पैदल सैनिक, वेगशाली रथ, हाथी तथा घोड़ों के सवारों एवं पैदल सैनिकों के साथ भिड़ गये ॥70॥
शत्रु सेना के भयंकर शब्द करने वाले दर्प को सहन नहीं करता हुआ कृतांतवक्त्र बड़े वेग से शत्रु की सेना में जा घुसा ।।71।। सो जिस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र में इंद्र विना किसी रोक-टोक के क्रीड़ा करता है उसी प्रकार वह कृतांतवक्त्र भी विना किसी रोक-टोक के युद्ध में क्रीड़ा करने लगा ॥72।। तदनंतर जिस प्रकार मेघ, जल के द्वारा महापर्वत को आच्छादित करता है उसी प्रकार मधुसुंदर के पुत्र लवणार्णव ने, कृतांतवक्त्र का सामना कर उसे बाणों से आच्छादित किया ।।73।। इधर कृतांतवक्त्र ने भी, कान तक खींचे हुए सर्प तुल्य बाणों के द्वारा उसके बाण काट डाले और उनसे पृथिवी तथा आकाश को व्याप्त कर दिया ॥74।। सिंहों के समान बल से उत्कट दोनों योद्धा परस्पर एक दूसरे के रथ तोड़कर हाथी की पीठ पर आरूढ़ हो क्रोध सहित युद्ध करने लगे ।।75।। प्रथम ही लवणार्णव ने कृतांतवक्त्र के वक्षःस्थल पर बाण से प्रहार किया सो उसके उत्तर में कृतांतवक्त्र ने भी बाणों तथा शस्त्रों के प्रहार से शत्रु और कवच को अंतर से रहित कर दिया अर्थात् शत्रु का कवच तोड़ डाला ।।76।। तदनंतर क्रोध से जिसके नेत्रों की कांति देदीप्यमान हो रही थी ऐसे लवणार्णव ने तोमर उठाकर कृतांतवक्त्र पर पुनः प्रहार किया ॥77॥ जो अपने रुधिर के निषेक से युक्त थे तथा महाक्रोधपूर्वक जो भयंकर युद्ध कर रहे थे ऐसे दोनों वीर फूले हुए पलाश वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे ॥78।। उन दोनों के बीच, अपनी-अपनी सेना के हर्ष विषाद करने में उत्कट गदा खड्ग और चक्र नामक शस्त्रों की भयंकर वर्षा हो रही थी ।।79॥ तदनंतर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद जिसके वक्षःस्थल पर शक्ति नामक शस्त्र से प्रहार किया गया था ऐसा लवणार्णव पृथिवी पर इस प्रकार गिर पड़ा जिस प्रकार कि पुण्य क्षय होने से कोई देव पृथिवी पर आ पड़ता है ।।80॥
रणाग्र भाग में पुत्र को गिरा देख मधु कृतांतवक्त्र को लक्ष्य कर दौड़ा परंतु शत्रुघ्न ने उसे बीच में धर ललकारा ।।1॥ जो दुःख से सहन करने योग्य शोक और क्रोध के वशीभूत था ऐसा मधुरूपी प्रवाह शत्रुघ्नरूपी पर्वत से रुककर समीप में वृद्धि को प्राप्त हुआ ।।2।। आशीविष सर्प के समान उसकी दृष्टि को देखने के लिए असमर्थ हुई शत्रुघ्न की सेना उस प्रकार भाग उठी जिस प्रकार कि तीक्ष्ण वायु से सूखे पत्तों का समूह भाग उठता है ।।83॥ तदनंतर शत्रुघ्न को उसके सामने जाते देख जो अभिमानी योद्धा थे वे पुनः लौट आये ॥84॥ सो ठीक ही है क्योंकि अनुगामी-सैनिक भय से तभी तक पराजय को प्राप्त होते हैं जब तक कि वे सामने प्रसन्नमुख स्वामी को नहीं देख लेते हैं ॥85॥
अथानंतर जो उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ दिव्य धनुष को धारण कर रहा था, जिसका वक्षःस्थल हार से सुशोभित था, जो शिर पर मुकुट धारण किये हुए था, जिसके कुंडल हिल रहे थे, जो शरत् ऋतु के सूर्य के समान देदीप्यमान था, जिसकी चाल को कोई रोक नहीं सकता था, जो सब प्रकार से समर्थ था, और अत्यंत तीक्ष्ण क्रोध से युक्त था ऐसा शत्रुघ्न शत्रु के सामने जा रहा था ॥86-87॥ जिस प्रकार दावानल, सूखे पत्तों की राशि को क्षण भर में जला देता है उसी प्रकार शत्रुओं को नष्ट करने वाला वह शत्रुघ्न सैकड़ों योद्धाओं को क्षण भर में जला देता था ।।88।। जिस प्रकार जिनशासन में निपुण विद्वान के सामने अन्य मत से दूषित मनुष्य नहीं ठहर पाता है उसी प्रकार कोई भी वीर युद्ध में उसके आगे नहीं ठहर पाता था ॥89॥ जो कोई भी मानी मनुष्य, उसके साथ युद्ध करने की इच्छा करता था वह सिंह के आगे हाथी के समान क्षणभर में विनाश को प्राप्त हो जाता था ॥90॥ जो उन्मत्त के समान अत्यंत आकुल थी तथा जो अधिकांश घायल होकर गिरे हुए योद्धाओं से प्रचुर थी ऐसी राजा मधु की सेना मधु की शरण में पहुँची ॥91॥
अथानंतर मधु ने वेग से जाते हुए शत्रुघ्न की ध्वजा काट डाली और शत्रुघ्न ने भी तुरा के समान तीक्ष्ण बाणों से उसके रथ और घोड़े छेद दिये ॥92॥ तदनंतर जिसका चित्त अत्यंत संभ्रांत था, और जिसका शरीर क्रोध से प्रज्वलित हो रहा था ऐसा मधु पर्वत के समान विशाल गजराज पर आरूढ़ होकर निकला ॥93॥ सो जिस प्रकार महामेघ सूर्य के बिंब को आच्छादित कर लेता है उसी प्रकार मधु भी निरंतर छोड़े हुए बाणों से शत्रुघ्न को आच्छादित करने के लिए उद्यत हुआ ॥94॥ इधर चतुर शत्रुघ्न ने भी उसके बाण और कसे हुए कवच को छेदकर रण के पाहुने का जैसा सत्कार होना चाहिए वैसा पुष्कलता के साथ उसका सत्कार किया अर्थात् खूब खबर ली ॥95॥
अथानंतर जो अपने आपको शूल नामक शस्त्र से रहित जानकर प्रतिबोध को प्राप्त हुआ था तथा पुत्र की मृत्यु का महाशोक जिसे पीड़ित कर रहा था ऐसे मधु ने शत्रु को दुर्जेय देख कर विचार किया कि अब मेरा अंत होने वाला है। भाग्य की बात कि उसी समय उसके प्रबल कर्म का उदय क्षीण हो गया जिससे उसने बड़ी धीरता और पश्चात्ताप के साथ दिगंबर मुनियों के वचन का स्मरण किया ॥96-97।। वह विचार करने लगा कि यह समस्त आरंभ क्षणभंगुर तथा दुःख देने वाला है । इस संसार में एक वही कार्य प्रशंसा योग्य है जो धर्म का कारण है ॥98।। जो पुण्यात्मा प्राणी मनुष्य जन्म पाकर धर्म में बुद्धि नहीं लगाता है वह यथार्थ में मोह कर्म के द्वारा ठगा गया है ॥66 पुनर्जन्म अवश्य ही होगा ऐसा जानकर भी मुझ पापी ने उस समय अपना हित नहीं किया जिस समय कि काल अपने आधीन था अतः प्रमाद करने वाले मुझ मूर्ख को धिक्कार है ॥100॥ मैं पापी जब स्वाधीन था तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं उत्पन्न हुई ? अब जब कि शत्रु मुझे अपने सामने किये हुए है तब मैं अभागा क्या करूँ ? ॥101।। जब भवन जलने लगता है तब कुआं खुदवाने के प्रति आदर कैसा? और जिसे साँप ने डस लिया है उसे मंत्र सिद्ध करने का समय क्या है ? अर्थात् ये सब कार्य तो पहले से करने के योग्य होते हैं ।।102।। इस समय तो सब प्रकार से यही उचित जान पड़ता है कि मैं निराकुल हो मन का शुभ समाधान करूं क्योंकि वही आत्महित का कारण है ॥103॥ अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों के लिए मन, वचन काय से बार-बार नमस्कार हो ॥104।। अर्हंत, सिद्ध, साधु और केवली भगवान के द्वारा कहा हुआ धर्म ये चारों पदार्थ मेरे लिए सदा मंगल स्वरूप हैं ।।105।। अढाई द्वीप संबंधी पंद्रह कर्मभूमियों में जितने अर्हंत हैं मैं उन सबको मन वचन काय से नमस्कार करता हूँ ॥106।। मैं जीवन पर्यंत के लिए सावद्य योग का त्याग करता हूँ उसके विपरीत शुद्ध आत्मा का त्याग नहीं करता हूँ तथा प्रत्याख्यान में तत्पर होकर पूर्वोपार्जित पाप कर्म की निंदा करता हूँ ॥107॥ इस आदि रहित संसार रूप अटवी में मैंने जो पाप किया है वह मिथ्या हो । अब मैं तत्त्व विचार करने में लीन होता हूँ ।।108॥ यह मैं छोड़ने योग्य समस्त कार्य को छोड़ता हूँ और ग्रहण करने योग्य कार्य को ग्रहण करता हूँ, ज्ञान दर्शन ही मेरी आत्मा है, पर पदार्थ के संयोग से होने वाले अन्य भाव सब पर-पदार्थ हैं ॥109॥ समाधिमरण के लिए यथार्थ में न तृण ही सांथरा है और न उत्तम भूमि ही सांथरा है किंतु कलुषित बुद्धि से रहित आत्मा ही उत्तम सांथरा है ॥110॥
इस प्रकार समीचीन ध्यान पर आरूढ़ हो उसने अंतरंग तथा बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह छोड़ दिये और बाह्य में हाथी पर बैठे-बैठे ही उसने केश उखाड़कर फेंक दिये ॥111॥ यद्यपि उसके शरीर में गहरे घाव लग रहे थे, तथापि वह अत्यंत दुर्धर धैर्य को धारण कर रहा था। उसने शरीर आदि की ममता छोड़ दी थी और अत्यंत विशुद्ध बुद्धि धारण की थी ॥112।।
जब शत्रुघ्न ने यह हाल देखा तब उसने आकर उसे नमस्कार किया और कहा कि हे साधो ! मुझ पापी के लिए क्षमा कीजिए ॥113॥ उस समय जो अप्सराएँ युद्ध देखने के लिए आई थीं उन्होंने आश्चर्य से चकित हो विशुद्ध भावना से उस पर पुष्प छोड़े ॥114॥ तदनंतर समाधिमरण कर मधु क्षण मात्र में ही जिसका हृदय उत्तम सुखरूपी सागर में निमग्न था ऐसा सनत्कुमार स्वर्ग में उत्तम देव हुआ ॥115॥ इधर वीर शत्रुघ्न भी कृतकृत्य हो गया। अब उत्तम तेज के धारक उस शत्रुघ्न ने बड़ी प्रसन्नता से प्रवेश किया और जिस प्रकार हस्तिनापुर में मेघेश्वर― जयकुमार रहते थे उसी प्रकार वह मथुरा में रहने लगा ॥116॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस प्रकार समाधि धारण करने वाले पुरुष जो भव धारण करते हैं उसमें उन्हें दिव्य रूप प्राप्त होता है इसलिए हे भव्य जनो ! सदा शुभ कार्य ही करो जिससे सूर्य से भी अधिक उत्कृष्ट कांति को प्राप्त हो सको ॥117॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मधुसुंदर के
वध का वर्णन करने वाला नवासीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥8॥