ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 90
From जैनकोष
नब्बेवां पर्व
अथानंतर मधु सुंदर का वह दिव्य शूल रत्न यद्यपि अमोघ था तथापि शत्रुघ्न के प्रभाव से निष्फल हो गया था, उसका तेज छूट गया था और वह अपनी विधि से च्युत हो गया था ॥1॥ अंत में वह खेद शोक और लज्जा को धारण करता हुआ निर्वेग की तरह अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेंद्र के पास गया ॥2॥ शूल रत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार कहे जाने पर उसके सौहार्द का जिसे बार-बार स्मरण आ रहा था ऐसा चमरेंद्र खेद और शोक से पीड़ित हुआ ॥3॥ तदनंतर वेग से युक्त, अत्यंत देदीप्यमान और क्रोध से सहित वह चमरेंद्र पाताल से उठकर मथुरा जाने के लिए उद्यत हुआ ॥4॥ अथानंतर भ्रमण करते हुए गरुड़कुमार देवों के इंद्र वेणुदारी ने चमरेंद्र को देखा और देखकर उससे पूछा कि हे दैत्यराज ! तुमने कहाँ जाने की तैयारी की है ? ॥5॥ तब चमरेंद्र ने कहा कि जिसने मेरे परम मित्र मधुसुंदर को मारा है उस मनुष्य की विषमता करने के लिए यह मैं उद्यत हुआ हूँ ॥6॥ इसके उत्तर में गरुडेंद्र ने कहा कि क्या तुमने कभी विशल्या का माहात्म्य कर्ण में धारण नहीं किया― नहीं सुना जिससे कि ऐसा कह रहे हो ? ॥7॥ यह सुन चमरेंद्र ने कहा कि अब अत्यंत आश्चर्य को करने वाला वह समय व्यतीत हो गया जिस समय कि विशल्या का वैसा अचिंत्य माहात्म्य या ॥8॥ जब वह कौमार व्रत से युक्त थी तभी आश्चर्य उत्पन्न करने वाली थी अब इस समय तो नारायण के संयोग से वह विष रहित भुजंगी के समान हो गई है ॥6॥ जो मनुष्य नियमित आचार का पालन करते हैं, बुद्धिमान हैं तथा सब प्रकार के अतिचारों से रहित हैं उन्हीं के पूर्व पुण्य से उत्पन्न हुए प्रशंसनीय भाव अपना प्रभाव दिखाते हैं ॥10॥ अत्यधिक गर्व को धारण करने वाली विशल्या ने तभी तक विजय पाई है जब तक कि उसने काम चेष्टा को धारण करने वाला नारायण का मुख नहीं देखा था ॥11॥ व्रत का आचरण करने वाले मनुष्यों से सुर-असुर तथा पिशाच आदि तभी तक डरते हैं जब तक कि वे निश्चय रूपी तीक्ष्ण खड्ग को नहीं छोड़ देते हैं ॥12॥ जो मनुष्य मद्य मांस से निवृत्त है, सैकड़ों प्रतिपक्षियों को नष्ट करने वाले उसके अंतर को दुष्ट जीव तब तक नहीं लाँघ सकते जब तक कि इसके नियमरूपी कोट विद्यमान रहता है ॥13॥ रुद्रों में एक कालाग्नि नामक भयंकर रुद्र का नाम क्या तुमने नहीं सुना जो आसक्त होने के कारण विद्यारहित हो स्त्री के साथ ही साथ मृत्यु को प्राप्त हुआ था ॥14॥ अथवा जाओ, तुझे इससे क्या प्रयोजन ? इच्छानुसार काम करो, मैं स्वयं ही मित्र और शत्रु का कर्तव्य ज्ञात करूंगा ॥15॥
इतना कहकर अत्यंत दुष्ट चित्त को धारण करने वाला वह चमरेंद्र आकाश को लाँघकर मथुरा पहुँचा और वहाँ पहुँच कर उसने समस्त लोगों में व्याप्त बहुत भारी उत्सव देखा ॥16॥ वह विचार करने लगा कि ये मथुरा के लोग अकृतज्ञ तथा महादुष्ट हैं जो घर अथवा देश में दुःख का अवसर होने पर भी परम संतोष को प्राप्त हो रहे हैं अर्थात् खेद के समय हर्ष मना रहे हैं ॥17॥ जिसकी भुजाओं की छाया प्राप्त कर जो चिरकाल तक देवों जैसा सुख भोगते रहे वे अब उस मधु की मृत्यु से दुःखी क्यों नहीं हो रहे हैं ? ॥18॥ शूर-वीर मनुष्य कायर मनुष्यों के द्वारा सेवनीय है और पंडित-जन हजारों शूर वीरों के द्वारा सेव्य है सो कदाचित मूर्ख की तो सेवा की जा सकती है पर अकृतज्ञ मनुष्य को छोड़ देना चाहिए ॥13॥ अथवा यह सब रहें, जिसने हमारे स्नेही राजा को मारा है मैं उसके निवास स्वरूप इस समस्त देश को पूर्णरूप से क्षय प्राप्त कराता हूँ ॥20॥
इस प्रकार विचारकर महा रौद्र परिणामों के धारक चमरेंद्र ने क्रोध के भार से प्रेरित हो लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ किया ॥21॥ जिस प्रकार प्रलयकाल का दावानल विशाल वन को जलाने के लिए उद्यत होता है उसी प्रकार वह निर्दय चमरेंद्र अनेक महारोग फैलाकर लोगों को जलाने के लिए उद्यत हुआ ।।22॥ जो मनुष्य जिस स्थान पर खड़ा था, बैठा था अथवा सो रहा था वह वहीं अचल हो दीर्घ निद्रा-मृत्यु को प्राप्त हो गया ॥23॥
उपसर्ग देखकर कुल देवता से प्रेरित हुआ शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या चला गया ।।24॥ विजय प्राप्त कर महायुद्ध से लौटे हुए शूरवीर शत्रुघ्न का राम, लक्ष्मण आदि ने हर्षित हो अभिनंदन किया ॥25॥ जिसकी आशा पूर्ण हो गई थी ऐसी शत्रुघ्न की माता सुप्रजा ने जिनपूजा कर धर्मात्माओं तथा दीन-दुःखी मनुष्यों के लिए दान दिया ।।26।। यद्यपि अयोध्या नगरी सुवर्णमयी महलों से अत्यंत सुंदर थी, कामधेनु के समान समस्त मनोरथों के प्रदान करने में चतुर थी और स्वर्ग जैसे भोगोपभोगों से सहित थी तथापि शत्रुघ्न कुमार का हृदय मथुरा में ही अत्यंत अनुरक्त रहता था वह, जिस प्रकार सीता के बिना राम, धैर्य को प्राप्त नहीं होते थे उसी प्रकार मथुरा के बिना धैर्य को प्राप्त नहीं होता था ।।27-28॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! प्राणियों को सुंदर वस्तुओं का समागम जब स्वप्न के समान अल्प काल के लिए होता है तब वह ग्रीष्मऋतु संबंधी सूर्य की किरणों से उत्पन्न संताप से भी कहीं अधिक संताप को उत्पन्न करता है ॥29॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मथुरा पर
उपसर्ग का वर्णन करने वाले नब्बेवाँ पर्व समाप्त हुआ ।।90॥