ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 95
From जैनकोष
पंचानवेवां पर्व
अथानंतर इस प्रकार भोगों के समूह से युक्त तथा धर्म, अर्थ और काम के संबंध से अत्यंत प्रीति उत्पन्न करने वाले दिनों के व्यतीत होने पर किसी दिन सीता विमान तुल्य भवन में शरद् ऋतु की मेघमाला के समान कोमल शय्या पर सुख से सो रही थी कि उस कमललोचना ने रात्रि के पिछले प्रहर में स्वप्न देखा और देखते ही दिव्य वादित्रों के मंगलमय शब्द से वह जागृत हो गई ॥1-3॥ तदनंतर अत्यंत निर्मल प्रभात के होने पर संशय को प्राप्त सीता, शरीर संबंधी क्रियाएँ करके सखियों सहित पति के पास गई ॥4॥ और पूछने लगी कि हे नाथ ! आज मैंने जो स्वप्न देखा है हे विद्वन् ! आप उसका फल कहने के लिए योग्य हैं ॥5॥ मुझे ऐसा जान पड़ता है कि शरदऋतु के चंद्रमा के समान जिनकी कांति थी, क्षोभ को प्राप्त हुए सागर के समान जिनका शब्द था, कैलाश के शिखर के समान जिनका आकार था, जो सब प्रकार के अलंकारों से अलंकृत थे, जिनकी उत्तम दाढ़ें कांतिमां एवं सफेद थीं और जिनकी गरदन की उत्तम जटाएं सुशोभित हो रही थीं ऐसे अत्यंत श्रेष्ठ दो अष्टापद मेरे मुख में प्रविष्ट हुए हैं ॥6-7॥ यह देखने के बाद दूसरे स्वप्न में मैंने देखा है कि मैं वायु से प्रेरित पताका के समान अत्यधिक संभ्रम से युक्त हो पुष्पक विमान के शिखर से गिरकर नीचे पृथिवी पर आ पड़ी हूँ ॥8॥ तदनंतर राम ने कहा कि हे वरोरू ! अष्टापदों का युगल देखने से तू शीघ्र ही दो पुत्र प्राप्त करेगी ॥9॥ हे प्रिये ! यद्यपि पुष्पक विमान के अग्रभाग से गिरना अच्छा नहीं है तथापि चिंता की बात नहीं है क्योंकि शांतिकर्म तथा दान करने से पापग्रह शांति को प्राप्त हो जावेंगे ॥10॥
अथानंतर जो तिलकपुष्परूपी कवच को धारण किये हुए था, कदंबरूपी गजराज पर आरूढ था, आम्ररूपी धनुष साथ लिये था, कमलरूपी बाणों से युक्त था, बकुल रूपी भरे हुए तरकसों से सहित था, निर्मल गुंजार करने वाले भ्रमरों के समूह जिसका सुयश गा रहे थे, जो कदंब से सुवासित सघन सुंदर वायु से मानो सांस ही ले रहा था, मालती के फूलों के प्रकाश से जो मानो दूसरे शत्रुओं की हँसी कर रहा था और कोकिलाओं के मधुर आलाप से जो मानो अपने योग्य वार्तालाप ही कर रहा था ऐसा लोक में आकुलता उत्पन्न करने वाली राजा की शोभा को धारण करता हुआ वसंतकाल आ पहुँचा ॥11-14॥ अंकोट पुष्प ही जिसके नाखून थे, जो कुरवक रूपी दाढ को धारण कर रहा था, लाल लाल अशोक ही जिसके नेत्र थे, चंचल किसलय ही जिसकी जिह्वा थी, जो परदेशी मनुष्य के मन को परम भय प्राप्त करा रहा था और बकुल पुष्प ही जिसकी गरदन के बाल थे ऐसा वसंतरूपी सिंह आ पहुँचा ॥15-16।। अयोध्या का महेंद्रोदय उद्यान स्वभाव से ही सुंदर था परंतु उस समय वसंत के कारण विशेष रूप से नंदन वन के समान सुंदर हो गया था ।।17॥ जिनमें रंग-बिरंगे फूल फूल रहे थे तथा जिनके नाना प्रकार के पल्लव हिल रहे थे, ऐसे वृक्ष दक्षिण के मलय समीर से मिलकर मानो पागल की तरह झूम रहे थे ॥18।। जो कमल तथा नील कमल आदि से आच्छादित थीं, पक्षियों के समूह जहाँ शब्द कर रहे थे, और जिनके तट मनुष्यों से सेवित थे ऐसी वापिकाएँ अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं ॥19। रागी मनुष्यों के लिए जिनका सहना कठिन था ऐसे हंस, सारस, चकवा, कुरर और कारंडव पक्षियों के मनोहर शब्द होने लगे ॥20॥ उन पक्षियों के उत्पतन और विपतन से क्षोभ को प्राप्त हुआ निर्मल जल हर्ष से ही मानो तरंग युक्त होता हुआ व्याकुल हो रहा था ॥21।। वसंत का विस्तार होने पर जल, कमल आदि से, स्थल कुरवक आदि से और आकाश उनकी पराग से व्याप्त हो गया था ॥22॥ उस समय गुच्छे, गुल्म, लता तथा वृक्ष आदि जो वनस्पति की जातियाँ अनेक प्रकार से स्थित थीं वे सब ओर से परम शोभा को प्राप्त हो रही थीं ॥23।।
उस समय गर्भ के द्वारा की हुई थकावट से जिसका शरीर कुछ-कुछ भ्रांत हो रहा था ऐसी जनकनंदिनी को देखकर राम ने पूछा कि हे कांते ! तुझे क्या अच्छा लगता है ? सो कह । मैं अभी तेरी इच्छा पूर्ण करता हूँ तू ऐसी क्यों हो रही है ? ॥24-25॥ तब कमलमुखी सीता ने मुस्करा कर कहा कि हे नाथ ! मैं पृथिवीतल पर स्थित अनेक चैत्यालयों के दर्शन करना चाहती हूँ ॥26॥ जिनका स्वरूप तीनों लोकों के लिए मंगल रूप है ऐसी पंचवर्ण की जिन-प्रतिमाओं को आदर पूर्वक नमस्कार करने का मेरा भाव है ॥27॥ सुवर्ण तथा रत्नमयी पुष्पों से जिनेंद्र भगवान की पूजा करूँ यह मेरी बड़ी श्रद्धा है। इसके सिवाय और क्या इच्छा करूँ ? ॥28॥
यह सुनकर हर्ष से मुसकराते हुए राम ने तत्काल ही नम्रीभूत शरीर को धारण करने वाली द्वारपालिनी से कहा कि हे कल्याणि ! विलंब किये बिना ही मंत्री से यह कहो कि जिनालयों में अच्छी तरह विशाल पूजा की जावे ॥26-30।। सब लोग बहुत भारी आदर के साथ महेंद्रोदय उद्यान में जाकर जिन-मंदिरों को शोभा करें ॥31॥ तोरण, पताका, घंटा, लंबूष, गोले, अर्धचंद्र, चंदोवा, अत्यंत मनोहर वस्त्र, तथा अत्यंत सुंदर अन्यान्य समस्त उपकरणों के द्वारा लोग संपूर्ण पृथिवी पर जिन-पूजा करें ॥32-33।। निर्वाण क्षेत्रों के मंदिर विशेष रूप से विभूषित किये जावें तथा सर्व संपत्ति से सहित महा आनंद-बहुत भारी हर्ष के कारण प्रवृत्त किये जावें ॥34॥ उन सबमें पूजा करने का जो सीता का दोहला है वह बहुत ही उत्तम है सो मैं पूजा करता हुआ तथा जिन शासन की महिमा बढ़ाता हुआ इसके साथ विहार करूंगा ॥35॥ इस प्रकार आज्ञा पाकर द्वारपालिनी ने अपने स्थान पर अपने ही समान किसी दूसरी स्त्री को नियुक्त कर राम के कहे अनुसार मंत्री से कह दिया और मंत्री ने भी अपने सेवकों के लिए तत्काल आज्ञा दे दी ॥36॥
तदनंतर महान् उद्योगी एवं हर्ष से सहित उन सेवकों ने शीघ्र ही जाकर जिन-मंदिरों में सजावट कर दी ॥37॥ महापर्वत की गुफाओं के समान जो मंदिरों के विशाल द्वार थे उन पर उत्तम हार आदि से अलंकृत पूर्ण कलश स्थापित किये गये ॥38॥ मंदिरों की सुवर्णमयी लंबी चौड़ी दीवालों पर मणिमय चित्रों से चित्त को आकर्षित करने वाले उत्तमोत्तम चित्रपट फैलाये गये ॥38॥ खंभों के ऊपर अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध मणियों के दर्पण लगाये गये और झरोखों के अग्रभाग में स्वच्छ झरने के समान मनोहर हार लटकाये गये ॥40॥ मनुष्यों के जहाँ चरण पड़ते थे ऐसी भूमियों में पाँच वर्ण के रत्नमय सुंदर चूर्णों से नाना प्रकार के बेल-बूटे खींचे गये थे ॥41॥ जिनमें सौ अथवा हजार कलिकाएँ थीं तथा जो लंबी डंडी से युक्त थे ऐसे कमल उन मंदिरों की देहलियों पर तथा अन्य स्थानों पर रक्खे गये थे ॥42॥ हाथ से पाने योग्य स्थानों में मत्त स्त्री के समान शब्द करने वाली उज्ज्वल छोटी-छोटी घंटियों के समूह लगाये गये थे ॥43।। जिनकी मणिमय डंडियाँ थीं ऐसे पाँच वर्ण के कामदार चमरों के साथ-साथ बड़ी-बड़ी हाँड़ियाँ लटकाई गई थीं ॥44॥ जो सुगंधि से भ्रमरों को आकर्षित कर रही थीं तथा उत्तम कारीगरों ने जिन्हें निर्मित किया था ऐसी नाना प्रकार की मालाएँ फैलाई गई थीं ॥45॥ अनेकों की संख्या में जगह-जगह बनाई गई विशाल वादनशालाओं और प्रेक्षकशालाओं― दर्शकगृहों से वह उद्यान अलंकृत किया गया था ॥46॥ इस प्रकार अत्यंत सुंदर विशाल विभूतियों से वह महेंद्रोदय उद्यान नंदनवन के समान सुंदर हो गया था ॥47॥
अथानंतर नगरवासी तथा देशवासी लोगों के साथ, स्त्रियों के साथ, समस्त मंत्रियों के साथ, और सीता के साथ रामचंद्रजी इंद्र के समान बड़े वैभव से उस उद्यान की ओर चले ॥48॥ सीता के साथ-साथ उत्तम हाथी पर बैठे हुए राम ठीक उस तरह सुशोभित हो रहे थे जिस तरह इंद्राणी के साथ ऐरावत के पृष्ठ पर बैठा हुआ इंद्र सुशोभित होता है ।।46॥ यथायोग्य ऋद्धि को धारण करने वाले लक्ष्मण तथा हर्ष से युक्त एवं अत्यधिक अन्न पान की सामग्री से सहित शेष लोग भी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार जा रहे थे ॥10।। वहाँ जाकर देवियाँ मनोहर कदली गृहों में तथा अतिमुक्तक लता के सुंदर निकुंजों में महावैभव के साथ ठहर गई तथा अन्य लोग भी यथायोग्य स्थानों में सुख से बैठ गये ॥51॥ हाथी से उतर कर राम ने कमलों तथा नील कमलों से व्याप्त एवं समुद्र के समान विशाल, निर्मल जल वाले सरोवर में सुखपूर्वक उस तरह क्रीड़ा की जिस तरह कि क्षीरसागर में इंद्र करता है ॥52॥ तदनंतर सरोवर में चिर काल तक क्रीड़ा कर, उन्होंने फूल तोड़े और जल से बाहर निकल कर पूजा की दिव्य सामग्री से सीता के साथ मिलकर जिनेंद्र भगवान की पूजा की ॥53॥ वनलक्ष्मियों के समान उत्तमोत्तम स्त्रियों से घिरे हुए मनोहारी राम उस समय ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो शरीरधारी श्रीमान् वसंत ही आ पहुँचा हो ॥54॥ आठ हजार प्रमाण अनुपम देवियों से घिरे हुए, निर्मल शरीर के धारक राम उस समय ताराओं से घिरे हुए चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥55॥ उस उद्यान में राम ने अमृतमय आहार, विलेपन, शयन, आसन, निवास, गंध तथा माला आदि से उत्पन्न होने वाले शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श संबंधी उत्तम सुख प्राप्त किया था ॥56॥ इस प्रकार जिनेंद्र मंदिर में प्रतिदिन पूजा-विधान करने में तत्पर सूर्य के समान तेजस्वी, उत्तम स्त्रियों से सहित राम को अत्यधिक प्रीति उत्पन्न हुई ॥57॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में जिनेंद्र पूजारूप दोहले का वर्णन करने वाला पंचानवेवां पर्व पूर्ण हुआ ॥95॥