ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 145 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
सपदेसेहिं समग्गो लोगो अट्ठेहिं णिट्ठिदो णिच्चो । (145)
जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥156॥
अर्थ:
[सप्रदेशै: अर्थै:] सप्रदेश पदार्थों के द्वारा [निष्ठितः] समाप्ति को प्राप्त [समग्र: लोक:] सम्पूर्ण लोक [नित्य:] नित्य है, [तं] उसे [यः जानाति] जो जानता है [जीव:] वह जीव है,— [प्राणचतुष्काभिसंबद्ध:] जो कि (संसार दशा में) चार प्राणों से संयुक्त है ।
तात्पर्य-वृत्ति:
अतः परं शुद्धजीवस्य द्रव्यभावप्राणैः सह भेदनिमित्तं ‘सपदेसेहिं समग्गो’ इत्यादि यथाक्रमेण गाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावनाव्याख्यानं करोति । तद्यथा । अथज्ञानज्ञेयज्ञापनार्थं तथैवात्मनः प्राणचतुष्केन सह भेदभावनार्थं वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति --
लोगो लोकोभवति । कथंभूतः । णिट्ठिदो निष्ठितः समाप्तिं नीतो भृतो वा । कैः कर्तृभूतैः । अट्ठेहिं सहजशुद्धबुद्धैकस्वभावो योऽसौ परमात्मपदार्थस्तत्प्रभृतयो येऽर्थास्तैः । पुनरपि किंविशिष्टः । सपदेसेहिं समग्गो स्वकीयप्रदेशैः समग्रः परिपूर्णः । अथवा पदार्थैः । कथंभूतैः । सप्रदेशैः प्रदेशसहितैः । पुनरपिकिंविशिष्टो लोकः । णिच्चो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः लोकाकाशापेक्षया वा । अथवा नित्यो, न केनापिपुरुषविशेषेण कृतः । जो तं जाणदि यः कर्ता तं ज्ञेयभूतं लोकं जानाति जीवो स जीवपदार्थो भवति । एतावता किमुक्तं भवति । योऽसौ विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो जीवः स ज्ञानं ज्ञेयश्च भण्यते । शेषपदार्थास्तु ज्ञेया एवेति ज्ञातृज्ञेयविभागः । पुनरपि किंविशिष्टो जीवः । पाणचदुक्के ण संबद्धो यद्यपिनिश्चयेन स्वतःसिद्धपरमचैतन्यस्वभावेन निश्चयप्राणेन जीवति तथापि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादा-युराद्यशुद्धप्राणचतुष्केनापि संबद्धः सन् जीवति । तच्च शुद्धनयेन जीवस्वरूपं न भवतीति भेदभावनाज्ञातव्येत्यभिप्रायः ॥१४५॥
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[लोगो] लोक है । लोक कैसा है? [णिट्ठिदो] निष्ठित, समाप्ति को प्राप्त अथवा भरा हुआ है । किन कर्ताओं से भरा हुआ है? [अट्ठेहिं] सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति जो पदार्थ, उनसे भरा हुआ है । वह लोक और किन विशेषताओं वाला है? [सपदेसेहिं समग्गो] अपने प्रदेशों द्वारा समग्र (परिपूर्ण) है । अथवा पदार्थों से परिपूर्ण है । कैसे पदार्थों से परिपूर्ण है? सप्रदेशी- प्रदेश सहित पदार्थों से परिपूर्ण है । लोक और किस विशेषता वाला है? [णिच्चो] द्रव्यार्थिकनय से नित्य है अथवा लोकाकाश की अपेक्षा नित्य है । अथवा किसी पुरुष-विशेष द्वारा किया गया नहीं है, अत: नित्य है । [जो तं जाणदि] जो कर्ता उस ज्ञेयभूत लोक को जानता है, [जीवो] वह जीव पदार्थ है ।
इससे क्या कहा गया है? जो वह विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जीव है वह ज्ञान और ज्ञेय कहा गया है; परन्तु शेष पदार्थ तो ज्ञेय ही हैं -- इसप्रकार ज्ञाता और ज्ञेय का विभाग (भेद) है ।
जीव और किस विशेषता वाला है? [णाणचदुक्केण संबद्धो] - यद्यपि निश्चय से जीव स्वत: सिद्ध परम चैतन्य स्वभाव रूप निश्चय प्राण से जीता है, तथापि व्यवहार से अनादि कर्म बन्धन वश आयु आदि अशुद्ध चार प्राणों द्वारा सम्बद्ध (सहित) होता हुआ जीता है । और वह शुद्धनय से जीव का स्वरूप नहीं है- इसप्रकार भेदरूप भावना जाननी चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥१५६॥