ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 175 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । (175)
पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं सो बन्धो ॥187॥
अर्थ:
[यः हि पुन:] जो [उपयोगमय: जीव:] उपयोगमय जीव [विविधान् विषयान्] विविध विषयों को [प्राप्य] प्राप्त करके [मुह्यति] मोह करता है, [रज्यति] राग करता है, [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करता है, [सः] वह जीव [तै:] उनके द्वारा (मोह-राग-द्वेष के द्वारा) [बन्ध:] बन्धरूप है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति -
अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमय: । तत्र यो हि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा रागं वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तै: पर-प्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषैरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरक्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्त-त्वैरुपरक्तस्वभाव: स्फटिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति ॥१७५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है (अर्थात् ज्ञान-दर्शनस्वरूप है ।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह आत्मा-काला, पीला, और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और लालपन के द्वारा उपरक्त स्वभाव वाले स्फटिकमणि की भाँति—पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और द्वेष के द्वारा उपरक्त (विकारी, मलिन, कलुषित,) आत्मस्वभाव वाला होने से, स्वयं अकेला ही बंध (बंधरूप) है, क्योंकि मोहरागद्वेषादिभाव उसका द्वितीय है ॥१७५॥