ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 18 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स ।
पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ॥18॥
अर्थ:
[उत्पाद:] किसी पर्याय से उत्पाद [विनाश: च] और किसी पर्याय से विनाश [सर्वस्य] सर्व [अर्थजातस्य] पदार्थमात्र के [विद्यते] होता है; [केन अपि पर्यायेण तु] और किसी पर्याय से [अर्थ:] पदार्थ [सद्भूत: खलु भवति] वास्तव में ध्रुव है ॥१८॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शुद्धात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति -
यथा हि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गदपर्यायेणोत्पत्तिर्दृष्टा, पूर्वव्यवस्थितांगुलीयकादिपर्यायेण च विनाश:, पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयत: ध्रुवत्वम्; एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पाद: केनचिद्विनाश: केनचिद्ध्रौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । अत: शुद्धात्मनोऽप्युत्पादादित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ॥१८॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) सर्व द्रव्यों के साधारण है इसलिये शुद्धआत्मा (केवली भगवान और सिद्ध भगवान) के भी अवश्यम्भावी है ऐसा व्यक्त करते हैं :-
जैसे उत्तम स्वर्ण की बाजूबन्द रूप पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है, पूर्व अवस्था रूप से वर्तने वाली अँगूठी इत्यादिक पर्याय से विनाश देखा जाता है और पीलापन इत्यादि पर्याय से दोनों में (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त न होने से ध्रौव्यत्व दिखाई देता है । इस प्रकार सर्व द्रव्यों के किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से विनाश और किसी पर्याय से ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्मा के भी द्रव्य का लक्षण-भूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है ।