ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 22 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । (22)
अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥23॥
अर्थ:
[सदा अक्षातीतस्य] जो सदा इन्द्रियातीत हैं, [समन्तत: सर्वाक्षगुण-समृद्धस्य] जो सर्व ओर से (सर्व आत्म-प्रदेशों से) सर्व इन्द्रिय गुणों से समृद्ध हैं [स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य] और जो स्वयमेव ज्ञानरूप हुए हैं, उन केवली भगवान को [किंचित् अपि] कुछ भी [परोक्ष नास्ति] परोक्ष नहीं है ॥२२॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथास्य भगवतोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वादेव न किंचित्परोक्षं भवतीत्यभिप्रैति -
अस्य खलु भगवत: समस्तावरणक्षयक्षण एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधान-हेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यक्षाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपै: समरसतया समन्तत: सर्वैरेवेन्द्रियगुणै: समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं लोकोत्तरज्ञानजातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव स्यात् ॥२२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से ही इन भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय प्रगट करते हैं :-
समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही
- जो (भगवान) सांसारिक ज्ञान को उत्पन्न करने के बल को कार्यरूप देने में हेतुभूत ऐसी अपने-अपने निश्चित विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों से अतीत हुए हैं,
- जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के ज्ञानरूप सर्व इन्द्रिय-गुणों के द्वारा सर्व ओर से समरसरूप से समृद्ध हैं (अर्थात् जो भगवान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्द को सर्व आत्म-प्रदेशों से समानरूप से जानते हैं) और
- जो स्वयमेव समस्तरूप से स्व-पर का प्रकाशन करने में समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञान-रूप हुए हैं,