ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 47 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । (47)
अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ॥48॥
अर्थ:
[यत्] जो [युगपद्] एक ही साथ [समन्तत:] सर्वत: (सर्व आत्म-प्रदेशों से) [तात्कालिकं] तात्कालिक [इतरं] या अतात्कालिक, [विचित्रविषमं] विचित्र (अनेक प्रकार के) और विषम (मूर्त, अमूर्त आदि असमान जाति के) [सर्वं अर्थं] समस्त पदार्थों को [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] उस ज्ञान को [क्षायिकं भणितम्] क्षायिक कहा है ॥४७॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञानं सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति –
तत्कालकलितवृत्तिकमतीतोदर्ककालकलितवृत्तिकं चाप्येकपद एव समन्ततोऽपि सकलमप्यर्थजातं, पृथक्त्ववृत्तस्वलक्षणलक्ष्मीकटाक्षितानेकप्रकारव्यञ्जितवैचित्र्यमितरेतर-विरोधधापितासमानजातीयत्वोद्दामितवैषम्यं क्षायिकं ज्ञानं किल जानीयात् । तस्य हि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानां क्षयोपशमावस्थावस्थितज्ञानावरणीयकर्मपुद्गलानामत्य- न्ताभावात्तत्कालिकमतात्कालिकं वाप्यर्थजातं तुल्यकालमेव प्रकाशेत । सर्वतो विशुद्धस्य प्रतिनियतदेशविशुद्धेरन्त:प्लवनात् समन्ततोऽपि प्रकाशेत । सर्वावरणक्षयाद्देशावरणक्षयो-पशमस्यानवस्थानात्सर्वमपि प्रकाशेत । सर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयादसर्वप्रकारज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विलयनाद्विविचित्रमपि प्रकाशेत । असमानजातीयज्ञानावरणक्षयात्समानजातीयज्ञानावरणीयक्षयोपशमस्य विनाशना-द्विषममपि प्रकाशेत ।अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेव जानीयात् ॥४७॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, पुनः प्रकृत का (चालु विषय का) अनुसरण करके अतीन्द्रिय-ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं (अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान सबका ज्ञाता है ऐसी उसकी प्रशंसा करते हैं) -
क्षायिक ज्ञान वास्तव में एक समय में ही सर्वत: (सर्व आत्मप्रदेशों से), वतर्मान में वर्तते तथा भूत-भविष्यत काल में वर्तते उन समस्त पदार्थों को जानता है जिनमें *पृथकरूप से वर्तते स्व-लक्षणरूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र प्रगट हुआ है और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होनेवाली असमानजातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है ।
(इसी बात को युक्ति-पूर्वक समझाते हैं)
- क्रम-प्रवृत्ति के हेतुभूत, क्षयोपशम-अवस्था में रहने वाले ज्ञानावरणीय कर्म-पुद्गलों का उसके (क्षायिक ज्ञान के) अत्यन्त अभाव होने से वह तात्कालिक या अतात्कालिक पदार्थ-मात्र को समकाल में ही प्रकाशित करता है;
- (क्षायिक ज्ञान) सर्वत: विशुद्ध होने के कारण प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि (सर्वत: विशुद्धि) के भीतर डूब जाने से वह सर्वत: (सर्व आत्मप्रदेशों से) भी प्रकाशित करता है;
- सर्व आवरणों का क्षय होने से, देश-आवरण का क्षयोपशम न रहने से वह सब को भी प्रकाशित करता है;
- सर्वप्रकार ज्ञानावरण के क्षय के कारण (सर्व पकार के पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्म के क्षय होने से) असर्वप्रकार के ज्ञानावरण का क्षयोपशम (-अमुक ही पकार के पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानके आवरण में निमित्तभूत कर्मों का क्षयोपशम) विलय को प्राप्त होने से वह विचित्र को भी (अनेक पकार के पदार्थो को भी) प्रकाशित करता है;
- असमानजातीय-ज्ञानावरण के क्षय के कारण (असमानजाति के पदार्थोंको जानने वाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्मों के क्षय के कारण) समानजातीय ज्ञानावरण का क्षयोपशम (समान जाति के ही पदार्थों को जानने वाले ज्ञान के आवरण में निमित्तभूत कर्मों का क्षयोपशम) नष्ट हो जाने से वह विषम को भी (असमानजाति के पदार्थों को भी) प्रकाशित करता है ।
*द्रव्यों के भिन्न-भिन्न वर्तनेवाले निज-निज लक्षण उन द्रव्यों की लक्ष्मी-सम्पत्ति-शोभा हैं