ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 56
From जैनकोष
उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च १अत्थइ ।
सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ ॥५६॥
उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति ।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र ॥५६॥
आगे फिर कहते हैं -
अर्थ - उपसर्ग अथवा देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत उपद्रव और परीषह अर्थात् दैव-कर्मयोग से आये हुए बाईस परीषहों को समभावों से सहना इसप्रकार प्रव्रज्यासहित मुनि है, वे जहाँ अन्यजन नहीं रहते ऐसे निर्जन वनादि प्रदेशों में सदा रहते हैं, वहाँ भी शिलातल, काष्ठ, भूमितल में रहते हैं, इन सब ही प्रदेशों में बैठते हैं, सोते हैं, ‘सर्वत्र’ कहने से वन में रहें और किंचित्काल नगर में रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें ।
भावार्थ - जैनदीक्षावाले मुनि उपसर्गपरीषह में समभाव रखते हैं और जहाँ सोते हैं, बैठते हैं, वहाँ निर्जन प्रदेश में शिला, काष्ठ, भूमि में ही बैठते हैं, सोते हैं, इसप्रकार नहीं है कि अन्यमत के भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिए ॥५६॥