ग्रन्थ:बोधपाहुड़ गाथा 59
From जैनकोष
एवं १आयत्तणगुणपज्जंता बहुविसुद्धसम्मत्ते ।
णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहाखादं ॥५९॥
एवं २आयतनगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे ।
निर्ग्रन्थे जिनमार्गे सङ्क्षेपेण यथाख्यातम् ॥५९॥
आगे प्रव्रज्या के कथन का संकोच करते हैं -
अर्थ - इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से आयतन अर्थात् दीक्षा का स्थान जो निर्ग्रन्थ मुनि उसके गुण जितने हैं, उनसे पज्जता अर्थात् परिपूर्ण अन्य भी जो बहुत से गुण दीक्षा में होने चाहिए वे गुण जिसमें हों इसप्रकार की प्रव्रज्या जिनमार्ग में प्रसिद्ध है । उसीप्रकार संक्षेप में कही है । कैसा है जिनमार्ग ? जिसमें सम्यक्त्व विशुद्ध है, जिसमें अतिचार रहित सम्यक्त्व पाया जाता है और निर्ग्रन्थरूप है अर्थात् जिसमें बाह्य-अंतरंग परिग्रह नहीं है ।
भावार्थ - इसप्रकार पूर्वोक्त प्रव्रज्या निर्मल सम्यक्त्वसहित निर्ग्रन्थरूप जिनमार्ग में कही है । अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि और बौद्ध आदिक मत में नहीं है । कालदोष से जैनमत में भ्रष्ट हो गये और जैन कहलाते हैं इसप्रकार के श्वेताम्बरादिक में भी नहीं है ॥५९॥
इसप्रकार प्रव्रज्या के स्वरूप का वर्णन किया ।