ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 12
From जैनकोष
जो देहे णिरवेक्खो णिद्दंदो णिम्ममो णिरारंभो ।
आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥१२॥
य: देहे निरपेक्ष: निर्द्वन्द: निर्मम: निरारम्भ: ।
आत्मस्वभावे सुरत: योगी स लभते निर्वाणम् ॥१२॥
आगे कहते हैं कि जो मुनि देह में निरपेक्ष है, देह को नहीं चाहता है, इसमें ममत्व नहीं करता है, वह निर्वाण को पाता है -
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि देह में निरपेक्ष है अर्थात् देह को नहीं चाहता है उदासीन है, निर्द्वन्द है-रागद्वेषरूप इच्छा अनिष्ट मान्यता से रहित है, निर्ममत्व है-देहादिक में ‘यह मेरा’ ऐसी बुद्धि से रहित है, निरारंभ है-इस शरीर के लिए तथा अन्य लौकिक प्रयोजन के लिए आरंभ से रहित है और आत्मस्वभाव में रत है, लीन है, निरंतर स्वभाव की भावना सहित है, वह मुनि निर्वाण को प्राप्त करता है ।
भावार्थ - जो बहिरात्मा के भाव को छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्मा में लीन होता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है । यह उपदेश बताया है ॥१२॥