ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 31
From जैनकोष
जो सुत्ते ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि ।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्ते अप्पणो कज्जे ॥३१॥
य: सुप्त: व्यवहारे स: योगी जागर्ति स्वकार्ये ।
य: जागर्ति व्यवहारे स: सुप्त: आत्मन: कार्ये ॥३१॥
आगे कहते हैं कि जो व्यवहार में तत्पर है, उसके यह ध्यान नहीं होता है -
अर्थ - जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के कार्य में जागता है और जो व्यवहार में जागता है वह अपने आत्मकार्य में सोता है ।
भावार्थ - मुनि के संसारी व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदि है तो मुनि कैसा ? वह तो पाखंडी है । धर्म का व्यवहार संघ में रहना, महाव्रतादिक पालना ऐसे व्यवहार में भी तत्पर नहीं है, सब प्रवृत्तियों की निवृत्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहार में सोता हुआ कहलाता है और अपने आत्मस्वरूप में लीन होकर देखता है, जानता है, वह अपने आत्मकार्य में जागता है, परन्तु जो इस व्यवहार में तत्पर है, सावधान है, स्वरूप की दृष्टि नहीं है वह व्यवहार में जागता हुआ कहलाता है ॥३१॥