ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 60
From जैनकोष
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं ।
णाऊण धुवं कुज्ज तवयरणं णाणजुत्ते वि ॥६०॥
ध्रुवसिद्धिस्तीर्थङ्कर: चतुर्ज्ञानयुत: करोति तपश्चरणम् ।
ज्ञात्वा ध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्त: अपि ॥६०॥
आगे इसी अर्थ को उदाहरण से दृढ़ करते हैं -
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि देखो..., जिसको नियम से मोक्ष होना है... और जो चार ज्ञान - मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इनसे युक्त है ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण करता है, इसप्रकार निश्चय से जानकर ज्ञानयुक्त होने पर भी तप करना योग्य है । (तप-मुनित्व; सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता को तप कहा है)
भावार्थ - तीर्थंकर मति-श्रुत-अवधि इन तीन ज्ञान सहित तो जन्म लेते हैं और दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाता है, मोक्ष उनको नियम से होना है तो भी तप करते हैं, इसलिए ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने में तत्पर होना, ज्ञानमात्र ही से मुक्ति नहीं मानना ॥६०॥