ग्रन्थ:मोक्षपाहुड़ गाथा 99
From जैनकोष
किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणंतु।
किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो॥९९॥
किं करिष्यति बहि: कर्म किं करिष्यति बहुविधं च क्षमणं तु।
किं करिष्यति आताप: आत्मस्वभावात् विपरीत:॥९९॥
आगे कहते हैं कि जो आत्मस्वभाव से विपरीत बाह्य क्रियाकर्म है वह यया करे ? मोक्षमार्ग में तो कुछ भी कार्य नहीं करते हैं -
अर्थ - आत्मस्वभाव से विपरीत, प्रतिकूल बाह्यकर्म में जो क्रियाकांड वह यया करेगा ? कुछ मोक्ष का कार्य तो किंचिन्मात्र भी नहीं करेगा, बहुत अनेकप्रकार क्षमण अर्थात् उपवासादि बाह्य तप भी यया करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा, आतापनयोग आदि काययलेश यया करेगा ? कुछ भी नहीं करेगा।
भावार्थ - बाह्य क्रियाकर्म शरीराश्रित हैं और शरीर ज९ड है, आत्मा चेतन है, ज९ड की क्रिया तो चेतन को कुछ फल करती नहीं है, जैसा चेतना का भाव जितना क्रिया में मिलता है उसका फल चेतन को लगता है। चेतन का अशुभ उपयोग मिले तब अशुभकर्म बँधे और शुभ उपयोग मिले तब शुभकर्म बँधता है और जब शुभ-अशुभ दोनों से रहित उपयोग होता है, तब कर्म नहीं बँधता है, पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष करता है।
इसप्रकार चेतना उपयोग के अनुसार फलती है, इसलिए ऐसा कहा है कि बाह्य क्रिया कर्म से तो कुछ मोक्ष होता नहीं है, शुद्ध उपयोग होने पर मोक्ष होता है। इसलिए दर्शन ज्ञान उपयोग का विकार मेटकर शुद्ध ज्ञान चेतना का अभ्यास करना मोक्ष का उपाय है॥९९॥