ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 130
From जैनकोष
एवंविधैरतिचारै रहितां सल्लेखनाम् अनुतिष्ठन् कीदृशं फलं प्राप्रोत्याह-
नि:श्रेयसमभ्युदयं, निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्
नि: पिबति पीतधर्मा, सर्वैर्दु:खैरनालीढ: ॥130॥
टीका:
निष्पिबति आस्वादयति अनुभवति वा कश्चित् सल्लेखनानुष्ठाता । किं तत् ? नि:श्रेयसं निर्वाणम् । किंविशिष्टम् ? सुखाम्बुनिधिं सुखसमुद्रस्वरूपम्। तर्हि सपर्यन्तं तद्भविष्यतीत्याह- निस्तीरं तीरात्पर्यन्तान्निष्क्रान्तम् । कश्चित्पुनस्तदनुष्ठाता अभ्युदयमहमिन्द्रादिसुखपरम्परा निष्पिबति । कथम्भूतम् ? दुस्तरं महता कालेन प्राप्यपर्यन्तम् । किंविशिष्ट: सन् ? सर्वैर्दु:खैरनालीढ: सर्वै: शारीरमानसादिभिर्दु:खैरनालीढोऽसंस्पृष्ट: । कीदृश: सन्नेतद्वयं निष्पिबति ? पीतधर्मा पीतोऽनुष्ठितो धर्म उत्तमक्षमादिरूप: चारित्रस्वपो वा येन ॥
सल्लेखना का फल
नि:श्रेयसमभ्युदयं, निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्
नि: पिबति पीतधर्मा, सर्वैर्दु:खैरनालीढ: ॥130॥
टीकार्थ:
सल्लेखना धारण करने का फल मोक्ष और स्वर्गादिक के सुखों की प्राप्ति है । नि:श्रेयस-निर्वाण को कहते हैं । वह सुख के समुद्ररूप है । नि:श्रेयस- मोक्ष निस्तीर है अर्थात् आत्मोत्थसुख अन्त से रहित है । अहमिन्द्रादिक के पद को अभ्युदय कहते हैं । यह दुस्तर है अर्थात् सागरों पर्यन्त काल तक अहमिन्द्रादिक के सुखों का पान करते हैं । और शारीरिक, मानसिक आदि सभी दु:खों से अछूते रहते हैं, इस प्रकार दोनों ही पद सुख के समुद्ररूप हैं । सल्लेखना लेने वाला दोनों फलों को प्राप्त करता हुआ पीतधर्मा होता है अर्थात् वह उत्तमक्षमादिरूप अथवा चारित्ररूप धर्म का पान करने वाला होता है ।