ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 36
From जैनकोष
यद्येतत्सर्वं न व्रजन्ति तर्हि भवान्तरे कीदृशास्ते भवन्तीत्याह-
ओजस्तेजोविद्या-वीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः
माहाकुला महार्था मानवतिलकाः भवन्ति दर्शनपूताः ॥36॥
टीका:
दर्शनपूता दर्शनेन पूता: पवित्रिता: । दर्शनं वा पूतं पवित्रं येषां ते । भवन्ति । मानवतिलका: मानवानां मनुष्याणां तिलका मण्डनीभूता मनुष्यप्रधाना इत्यर्थ: । पुनरपि कथम्भूता इत्याह ओज इत्यादि ओज उत्साह: तेज: प्रताप: कान्तिर्वा, विद्या सहजा अहार्या च बुद्धि:, वीर्यं विशिष्टं सामथ्र्यं यशोविशिष्टाख्याति: वृद्धि: कलत्र-पुत्रपौत्रादिसम्पत्ति:, विजय: पराभिभवेनात्मनो गुणोत्कर्ष:, विभवो धनधान्यद्रव्यादिसम्पत्ति: एतै: सनाथा सहिता । तथा माहाकुला महच्च तत् कुलं च माहाकुलं तत्र भवा: महार्था महान्तोऽर्था धर्मार्थकाममोक्षलक्षणा येषाम् ॥३६॥
यदि सम्यग्दृष्टि नारकी आदि अवस्था को प्राप्त नहीं होते तो कैसे होते हैं, यह कहते हैं-
ओजस्तेजोविद्या-वीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः
माहाकुला महार्था मानवतिलकाः भवन्ति दर्शनपूताः ॥36॥
टीकार्थ:
दर्शनेन पूता: पवित्रिता: अथवा दर्शनं पूतं पवित्रं येषां ते इस समास के अनुसार जो सम्यग्दर्शन से पवित्र हैं अथवा जिनका सम्यग्दर्शन पवित्र है, वे जीव सम्यग्दर्शनपूत कहलाते हैं । ओज का अर्थ-उत्साह, तेज का अर्थ प्रताप या कान्ति है । स्वाभाविक अथवा जिसका हरण न किया जा सके ऐसी बुद्धि को विद्या कहते हैं । स्त्री, पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति को वृद्धि कहते हैं। दूसरे के तिरस्कार से अपने गुणों का उत्कर्ष करना विजय है । धन-धान्य द्रव्यादिक की प्राप्ति होना विभव है । उत्तम कुल में उत्पत्ति होना महाकुल और धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थयुक्त होना महार्थ है । जो मनुष्यों में श्रेष्ठ-प्रधान होते हैं, वे मानवतिलक कहलाते हैं । इस प्रकार पवित्र सम्यग्दृष्टि जीव ओज आदि सहित, उच्चकुलोत्पन्न चारों पुरुषार्थों के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं ।