ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 47
From जैनकोष
'चरणं' हिंसादिनिवृत्तिलक्षणं चारित्रम् । 'प्रतिपद्यते' स्वीकरोति । कोऽसौ ? 'साधु' - र्भव्य: । कथम्भूत: ? 'अवाप्तसंज्ञान:' । कस्मात्? 'दर्शनलाभात्' । तल्लाभोऽपि तस्य कस्मिन् सति सञ्जात: ? 'मोहतिमिरापहरणे' मोहो दर्शनमोह: स एव तिमिरं तस्यापहरणे यथासम्भवमुपशमे क्षये क्षयोपशमे वा। अथवा मोहो दर्शनचारित्रमोहस्तिमिरं ज्ञानावरणादि तयोरपहणे । अयमर्थ:- दर्शनमोहापहरणे दर्शनलाभ: । तिमिरापहरणे सति दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: भवत्यात्मा । ज्ञानावरणापगमे हि ज्ञानमुत्पद्यमानं सद्दर्शनप्रसादात् सम्यग्व्यपदेशं लभते, तथाभूतश्चात्मा चारित्रमोहापगमे चरणं प्रतिपद्यते । किमर्थम् ? 'रागद्वेषनिवृत्त्यै' रागद्वेषनिवृत्तिनिमित्तम् ॥४७॥
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः
रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥47॥
टीका:
'चरणं' हिंसादिनिवृत्तिलक्षणं चारित्रम् । 'प्रतिपद्यते' स्वीकरोति । कोऽसौ ? 'साधु' - र्भव्य: । कथम्भूत: ? 'अवाप्तसंज्ञान:' । कस्मात्? 'दर्शनलाभात्' । तल्लाभोऽपि तस्य कस्मिन् सति सञ्जात: ? 'मोहतिमिरापहरणे' मोहो दर्शनमोह: स एव तिमिरं तस्यापहरणे यथासम्भवमुपशमे क्षये क्षयोपशमे वा। अथवा मोहो दर्शनचारित्रमोहस्तिमिरं ज्ञानावरणादि तयोरपहणे । अयमर्थ:- दर्शनमोहापहरणे दर्शनलाभ: । तिमिरापहरणे सति दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान: भवत्यात्मा । ज्ञानावरणापगमे हि ज्ञानमुत्पद्यमानं सद्दर्शनप्रसादात् सम्यग्व्यपदेशं लभते, तथाभूतश्चात्मा चारित्रमोहापगमे चरणं प्रतिपद्यते । किमर्थम् ? 'रागद्वेषनिवृत्त्यै' रागद्वेषनिवृत्तिनिमित्तम् ॥४७॥
चारित्र की आवश्यकता
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः
रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥47॥
टीकार्थ:
'चरणं' हिंसादि पापों से निवृत्ति होने को चारित्र कहते हैं । भव्य जीव ऐसे चारित्र को कब और क्यों धारण करता है ? इस प्रश्र का उत्तर देते हुए कहते हैं कि मोह-दर्शनमोह-मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का अपहरण-यथासम्भव उपशम, क्षय, अथवा क्षयोपशम हो जाने पर जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ है, ऐसा भव्य पुरुष रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र धारण करता है । अथवा, 'मोहो दर्शनचारत्रिमोहस्तिमिरं ज्ञानावरणादितयोरपहरणे' अर्थात् मोह का अर्थ दर्शनमोह तथा चारित्रमोह इन दो भेदों से उपलक्षित मोहकर्म और तिमिर शब्द का अर्थ ज्ञानावरणादि कर्म है, जब इन दोनों का अभाव हो जाता है तभी जीव को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि दर्शनमोह का अभाव हो जाने से सम्यग्दर्शन का लाभ होता है और ज्ञानावरणादि के अभाव-क्षयोपशम होने से ज्ञान प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन के प्रसाद से ज्ञान में समीचीनपने का व्यवहार होता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को जिस भव्यात्मा ने प्राप्त कर लिया है, वह चारित्रमोहरूप राग-द्वेष को दूर करने के लिए चारित्र को प्राप्त करता है ।