ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 83
From जैनकोष
अथ को भोग: कश्चोपभोगो यत्परिमाणं क्रियते इत्याशङ्क्याह --
भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः
उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥83॥
टीका:
पञ्चेन्द्रियाणामयं पाञ्चेन्द्रियो विषय: । भुक्त्वा परिहातव्य स्त्याज्य: स 'भोगो' ऽशनपुष्पगन्धविलेपनप्रभृति: । य: पूर्वं भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य: स 'उपभोगो' वसनाभरणप्रभृति: वसनं वस्त्रम् ॥
भोग-उपभोग के लक्षण
भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः
उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥83॥
टीकार्थ:
जो पदार्थ एक बार भोगकर छोड़ दिये जाते हैं, वे पुन: काम में नहीं आते, ऐसी भोजन, पुष्प, गन्ध और विलेपन आदि वस्तुएँ भोग कहलाती हैं तथा जो पहले भोगी हुई वस्तु बार-बार भोगने में आवे, वह उपभोग है । जैसे -- वस्त्र, आभूषण आदि। इन भोग और उपभोग की वस्तुओं का नियम करना भोगोपभोग परिमाणव्रत कहलाता है ।