ग्रन्थ:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 96
From जैनकोष
इदानीं तदतिचारान् दर्शयन्नाह --
प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपौ
देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पञ्च ॥96॥
टीका:
अत्यया अतिचारा: । पञ्च व्यपदिश्यन्ते कथ्यन्ते । के ते ? इत्याह -- प्रेषणेत्यादिमर्यादीकृते देशे स्वयं स्थितस्य ततो बहिरिदं कुर्विति विनियोग: प्रेषणम् । मर्यादीकृतदेशाद्बहिव्र्यापारं कुर्वत: कर्मकरान् प्रति खात्करणादि: शब्द: । तद्देशाद्बहि: प्रयोजनवशादिदमानयेत्याज्ञापनमानयनम् । मर्यादीकृतदेशे स्थितस्य बहिर्देशे कर्म कुर्वतां कर्मकरणां स्वविग्रहप्रदर्शनं रूपाभिव्यक्ति: । तेषामेव लोष्ठादिनिपात: पुद्गलक्षेप: ॥
देशावकाशिक व्रत के अतिचार
प्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपौ
देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पञ्च ॥96॥
टीकार्थ:
देशावकाशिकव्रत के पाँच अतिचार कहते हैं -- स्वयं मर्यादित क्षेत्र में स्थित रहकर 'तुम यह काम करो', इस प्रकार मर्यादा के बाहर भेजना प्रेषण नाम का अतिचार है । मर्यादा के बाहर कार्य करने वालों के प्रति खांसी आदि शब्द करना शब्द नाम का अतिचार है । मर्यादा के बाहर रहने वाले व्यक्ति से प्रयोजनवश आज्ञा देना कि 'तुम अमुक वस्तु लाओ' यह आनयन नाम का अतिचार है । स्वयं मर्यादित क्षेत्र में स्थित होकर मर्यादा से बाहर काम करने वालों को अपना शरीर दिखाना रूपाभिव्यक्ति नाम का अतिचार है और उन्हीं लोगों को लक्ष्य करके कंकर, पत्थर आदि फेंकना पुद्गलक्षेप नाम का अतिचार है । इस प्रकार ये देशावकाशिकव्रत के पाँच अतिचार हैं ।