ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 20
From जैनकोष
दंसणणाणचरित्ते महिलावग्गम्मि देदि वीसट्ठो ।
पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो ॥२०॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि महिलावर्गे ददाति विश्वस्त: ।
पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्ट: भावविनष्ट: न स: श्रमण: ॥२०॥
आगे फिर कहते हैं कि जो स्त्रियों का संसर्ग बहुत रखता है वह भी श्रमण नहीं है -
अर्थ - जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके और उनको विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन ज्ञान चारित्र को देता है उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना-पढ़ाना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इसप्रकार विश्वास उत्पन्न कराके उनमें प्रवर्तता है वह ऐसा लिंगी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रगट भाव से विनष्ट है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - लिंग धारण करके स्त्रियों को विश्वास उत्पन्न कराकर उनसे निरंतर पढ़ना, पढ़ाना, लालपाल रखना, उसको जानो कि इसका भाव खोटा है । पार्श्वस्थ तो भ्रष्ट मुनि को कहते हैं उससे भी यह निकृष्ट है, ऐसे को साधु नहीं कहते हैं ॥२०॥